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शिव का शतक है जवाब

जागरण मेहमान कोना
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वेस्टइंडीज के मध्यम क्रम के बल्लेबाज शिवनारायण चंद्रपाल रविवार को फिरोजशाह कोटला मैदान पर जब खेलने उतरे तो वह अपने इष्टदेव बाबा भोलेनाथ के उपवास पर थे। पहले दिन ही वह शतक जड़ने में कामयाब रहे। गले में भगवान शिव का लॉकेट पहनने वाले शिवनारायण को उनके साथी खिलाड़ी शिव ही कहते हैं। शिव का भारत के खिलाफ शतक बनाना वेस्टइंडीज के उन लोगों को करारा जवाब है, जो कैरिबियाई देशों में बसे भारतीय मूल के नागरिकों पर भारत के प्रति निष्ठा बनाए रखने का आरोप लगाते रहे हैं। और तो और, महान खिलाड़ी विव रिच‌र्ड्स ने भी एक बार त्रिनिदाद और गयाना में बस गए भारत वंशियों पर आरोप लगाया था कि जब भारतीय टीम त्रिनिदाद और गयाना में खेलती है तब ये भारतवंशी भारतीय टीम की हौसलाअफजाई करते हैं, न कि वेस्टइंडीज टीम की। रिच‌र्ड्स की टिप्पणी का भारतवंशियों ने जमकर विरोध किया था, पर उन्हें शक की नजरों से तो देखा जाने ही लगा था। आगे बढ़ने से पहले बताते चलें कि अंग्रेज मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार से साल 1839 से 1920 के बीच बहुत बड़ी संख्या में लोगों को गयाना, त्रिनिदाद, मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम आदि देशों में गन्ने के खेतों में काम करने के लिए लेकर जाते रहे थे। उनमें से कुछ तो वापस अपने देश लौट आए पर अधिकतर दूर देश में ही बस गए। फिर से शिव पर लौटेंगे। उन्हें साल 1994 में वेस्टइंडीज की टीम में जगह मिली थी। शिव से पहले रोहन बाबूलाल कन्हाई, एल्विन कालीचरण, इंसान अली, सोनी रामाधीन वगैरह वेस्टइंडीज की टीम की तरफ से खेल चुके थे।


कन्हाई और कालीचरण तो वेस्ट इंडीज के कप्तान भी रहे। पर शिव के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी थी। उन्हें साबित करना था कि भले ही त्रिनिदाद और गयाना के भारतवंशी अपने पूर्वजों की भूमि से भावनात्मक स्तर पर जुड़े हैं, पर उनकी पहली निष्ठा अपने देशों के साथ ही है। इसमें कोई शक भी नहीं कि त्रिनिदाद के पोर्ट ऑफ स्पेन और गयाना के जॉर्ज टाउन में खेले जाने वाले मैचों के दौरान भारतवंशी पूरे जोश से भारतीय खिलाडि़यों के समर्थन में नारे लगाते थे। पर इसका यह कतई मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारतीय मूल के खिलाडि़यों ने वेस्टइंडीज की तरफ से खेलते हुए कभी जानबूझकर कमजोर प्रदर्शन किया हो। शिव ने अपने कुल जमा शतकों में सर्वाधिक 8 शतक भारत के खिलाफ जड़े। रोहन कन्हाई, कालीचरण, रामनरेश सरवन आदि ने भी भारत के खिलाफ शानदार प्रदर्शन किया है। त्रिनिदाद के पूर्व प्रधानमंत्री वासुदेव पांडे के अनुसार सात समंदर पार बसने के बाद भी भारतीय मूल के लोग अपने पूर्वजों के देश से जुड़े हुए हैं। पर उनकी निष्ठा उन्हीं देशों के साथ है, जिधर उनके पूर्वज जाकर बस गए थे। हालांकि अपने धर्म और संस्कृति को लेकर उनकी निष्ठा निर्विवाद है। इतना लंबा समय बीतने के बाद भी वहां के भारतवंशियों ने अपने धर्म और संस्कृति का साथ नहीं छोड़ा। यह भी सच है कि बहुत से भारतवंशी अब पश्चिमी समाज और सभ्यता को आत्मसात कर चुके हैं। लेकिन उनमें अपनी भाषा को जानने की ललक बरकरार है। यह भी सही है कि कुछ पर्व और परंपराएं पीछे भी छूट रही हैं। पिछले प्रवासी भारतीय सम्मेलन के दौरान गयाना से आए एक सज्जन, जिनके पूर्वज बिहार के सीवान से संबंध रखते थे, ने बातचीत के दौरान छठ पर्व को लेकर अनभिज्ञता दर्शाई थी।


साहित्य का नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके विद्यासागर नॉयपाल को अपनी पहली भारत यात्रा के दौरान दिवाली की सजावट देखकर बहुत हैरानी हुई थी। इधर लोग घरों के बाहर आलोक सज्जा बिजली के बल्बों से कर रहे थे, जबकि उनके देश यानी त्रिनिदाद में दिवाली पर अब भी मिट्टी के दीयों में तेल डालकर आलोक सज्जा करने की परंपरा खूब फल-फूल रही है। संयोग से वर्तमान में त्रिनिदाद और गयाना के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारतवंशी हैं। गयाना के राष्ट्रपति भरत जगदेव है, तो त्रिनिदाद की प्रधानमंत्री कमला प्रसाद हैं। पिछले साल उन्होंने इस पद की शपथ लेते हुए भगवत गीता की प्रतिज्ञा ली थी।


लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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