- 1877 Posts
- 341 Comments
हर साल आने वाली बाढ़ से न केवल करोड़ों की संपत्ति का नुकसान होता है, बल्कि हजारों-लोगों की जिंदगियां और घर बार प्रभावित होते हैं। लहलहाती खेती बर्बाद हो जाती है और अनगिनत मवेशी मौत के मुंह में चले जाते हैं। अक्सर देखने में आता है कि मानसून के आते ही नदियां उफान पर आने लगती हैं और देश के अधिकांश भू-भागों में तबाही का तांडव मच जाता है। वैसे तो आपदाएं चाहे वह बाढ़ हो, भूकंप हो या फिर कोई अन्य इनका मानव सभ्यता से आदिकाल से रिश्ता रहा है। इसमें भी दो राय नहीं कि सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ और जब-जब बाढ़ ने विकराल रूप धारण किया नदियों के किनारे बसी बस्तियां बाढ़ के प्रकोप का शिकार होकर नेस्तनाबूद हो गई। यही नहीं नदियों के प्रवाह क्षेत्र में हरे-भरे खेत भी उसकी चपेट में आकर तबाह हो गए। नतीजन मानव जीवन हर साल बाढ़ की विभीषिका को सहने को बाध्य हो गया। देखने में आया है कि पिछले कुछ वर्षो से बाढ़ ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया है। भले ही बीते दशकों की तुलना में पिछले कुछ वर्षो में बारिश की मात्रा में कमी आई है, लेकिन बाढ़ से होने वाली तबाही बढ़ती ही जा रही है। हालांकि नदी विशेषज्ञ नदियों में जल की मात्रा घटने से चिंतित नजर आ रहे हैं। एक समय सूखे की मार झेलता राजस्थान का रेगिस्तानी इलाका भी अब नदियों के कोप का शिकार हो रहा है।
बीते बरस इसकी गवाही देते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि जो इलाके कुछ समय पहले तक बाढ़ के प्रकोप से अछूते थे, आज वे भी नदियों में आ रहे उफान से तबाह हो रहे हैं। असल में बाढ़ की समस्या वैसे तो सभी क्षेत्रों में है, लेकिन मुख्य समस्या गंगा के उत्तरी किनारे वाले क्षेत्र में है। गंगा बेसिन के इलाके में गंगा के अलावा यमुना, घाघरा, गंडक, कोसी, सोन और महानंदा आदि प्रमुख नदियां हैं जो मुख्यत: उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार सहित मध्य एवं दक्षिणी बंगाल में फैली हंै। इनके किनारे घनी आबादी वाले शहर बसे हुए हैं। इस इलाके की आबादी अब 40 करोड़ से भी ऊपर पहुंच गई है और यहां की आबादी का घनत्व 500 व्यक्ति प्रति किमी का आंकड़ा पार कर चुका है। आज नदियों के प्रवाह क्षेत्र पर जनसंख्या दबाव बेतहाशा बढ़ रहा है। बाढ़ क्षेत्रों में रिहायशी कालोनियों का जाल बिछता जा रहा है और नदियों के किनारे एक्सप्रेस वे और दिल्ली में यमुना नदी किनारे खेल गांव का निर्माण इसका सुबूत है कि सरकारें भी इस दिशा में कितनी संवेदनहीन हैं। यह सिलसिला अभी भी जारी है। हिमालय से निकलने वाली चाहे गंगा नदी हो, सिंधु हो, ब्रह्मपुत्र या फिर कोई अन्य नदी इनकी सहायक नदियों के उद्गम क्षेत्रों में पहाड़ी ढलानों की मिट्टी को बांधकर रखने वाले जंगलों को विकास के नाम पर जिस तेजी से काटा गया और वहां बहुमंजिली इमारतें बनाई गई उससे बाढ़ की समस्या और भी विकराल हुई है। विकास के नाम पर यह विनाश आज भी निर्बाध गति से जारी है।
ढलानों पर बरसने वाला पानी बारहमासी झरनों के माध्यम से जहां सदैव इन नदियों में बहता था अब वह ढलानों की मिट्टी और अन्य मलबे आदि को लेकर मिनटों में ही बह जाता है और अपने साथ वहां बसी हुई बस्तियों को भी बहा ले जाता है। दरअसल इससे नदी घाटियों की ढलानें नंगी हो जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप भूस्खलन, भू-क्षरण और बाढ़ जैसा समस्या आती है। इससे बांधों में गाद मिट्टी का जमाव दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। जंगलों को काटने के बाद बची झाडि़यां और घास-फूस को चारे और जलावन के लिए काट लिया जाता है। इसके बाद ढलानों को काट-काटकर बस्तियों, सड़कों का निर्माण व खेती के लिए जमीन को समतल किया जाता है। इससे झरने सूखते गए, नदियों का प्रवाह घटा और बाढ़ का खतरा बढ़ता गया। दरअसल हर साल दिन-ब-दिन बढ़ता बाढ़ का प्रकोप इसी असंतुलन का नतीजा है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि स्वार्थ की खातिर पहले अंग्रेजी हुकूमत के दौरान फिर आजादी के बाद देश में विकास के नाम पर जिस तेजी से जंगलों का कटान किया गया उसके कारण नदी घाटी क्षेत्र की ढलानों में बरसात को झेलने की क्षमता भी टूटी है या कहें कि अब वह लगभग खत्म हो चुकी है।
नदियों के उद्गम क्षेत्रों में यदि जंगल बढ़ाए जाएं तो ही बाढ़ का प्रकोप एक हद तक कम हो सकता है। नदियों के जलागम क्षेत्र की जमीन जंगलों के काटे जाने से जब नंगी हो जाती है तो उस हालत में मिट्टी अवसाद के रूप में नदी की तली में जमने लगती है। मैदानी इलाकों में यह अवसाद या गाद नदियों की गहराई को कम करता है और नदियों को उथला बना देती है। इससे बरसात के पानी का प्रवाह नदी की धारा में समा नहीं पाता और फिर वह आस-पास के इलाकों में फैलकर बाढ़ का रूप अख्तियार कर लेता है। जहां तक गंगा, यमुना और अन्य नदियों का प्रश्न है तो इनमें से अधिकांश का पानी मैदानी क्षेत्रों में खेती आदि के लिए सिंचाई की खातिर नहरों के जरिये निकाला जाता रहा है। इस कारण नदियों में पानी न के बराबर रहता है जिसकी वजह से नदियां अवसाद को समुद्र तक बहाकर ले जाने में नाकाम रहती हैं।
नदी की धारा में मिट्टी के जमने और गहराई के अभाव में पानी कम होने से वे सपाट होती जाती हैं। एक और कि नदियों के किनारे अब न तो हरियाली बची है और न ही पेड़-पौधे। जब पेड़-पौधे रहेंगे ही नहीं तो उनकी जड़ें मिट्टी कहां से बांधेंगी। जब बारिश आती है तो बरसात का पानी नदी की धारा में न समाकर आसपास के क्षेत्रों में फैलकर विकराल बाढ़ का रूप धारण कर लेता है। अभी तक हमारे यहां नदी प्रबंधन के नाम पर बांध, बैराज, पुश्तों का निर्माण और सिंचाई के लिए नहरें निकालने का काम तीव्र गति से हुआ है और इसी को विकास की संज्ञा दी गई है। इस काम में हमारा देश चीन, पाकिस्तान जैसे देशों के मुकाबले शीर्ष पर है। जहां तक नदी किनारे तटबंधों के निर्माण का सवाल है तो वह नदी की धारा को रोके रखने के मामले में नाकाम ही साबित हुआ है। कोसी और केन के तटबंध और तमाम छोटे-छोटे बांध इसका उदाहरण हैं। अब यह जरूरी हो गया है कि मौसम के बदलाव के मद्देनजर नदियों की प्रकृति का सूक्ष्म रूप से विश्लेषण किया जाए, उनका अध्ययन किया जाये और उसी के तहत नदी प्रबंधन की योजना बनाई जाए। यह ध्यान में रखते हुए कि बाढ़ महज प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, बल्कि यह मानवजनित कारणों से उपजी एक भीषण त्रासदी है। इसके लिए प्रशासनिक तंत्र को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है। इसी से बाढ़ पर अंकुश की बात सोची जा सकती है। दो वर्ष पूर्व बिहार में कोसी नदी में आए प्रलयंकारी बाढ़ से तकरीब डेढ़-पौने दो करोड़ लोग बेघर हुए थे। इन्हीं सबको देखते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा था कि बाढ़ की विभषिका से बचने की दिशा में नदी प्रबंधन के काम को प्राथमिकता दिए जाने की जरूरत है।
लेखक ज्ञानेंद्र रावत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Comments