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चीन का आर्थिक हमला

जागरण मेहमान कोना
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1970 के दशक में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने चीन की विशाल आबादी पर कटाक्ष किया तो माओ त्से तुंग ने कहा था, चीनी केवल मुंह लेकर नहीं पैदा होते, उनके दो हाथ भी होते हैं। यह उन्हीं हाथों का कमाल है कि दुनिया भर के बाजार चीन में बने सामानों से अटे पड़े हैं। इसे रोकने के लिए विश्व भर की सरकारों ने भरसक कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी हाथ नहीं लगी। चीन के इस आर्थिक हमले ने दुनिया भर की फैक्टि्रयों में काम-धंधों की रफ्तार को थाम दिया है। दरअसल जैसे ही चीन की सस्ता बेचो नीति से पैदा हुई आमदनी वहां पहुंची वैसे ही करोड़ों चीनी खाद्य श्रृंखला में ऊपरी पायदान पर चढ़े। इससे अनाज के बजाय मांस, मछली, दूध, अंडे की खपत तेजी से बढ़ी। उल्लेखनीय है कि सूअर का मांस कभी चीन के संभ्रांत वर्ग को ही नसीब होता था, लेकिन आज वह जन-जन की पहुंच में है। आज दुनिया भर के मांस की एक-चौथाई खपत चीन में हो रही है, लेकिन इसके बाजवूद 135 करोड़ चीनियों की भूख थमने का नाम नहीं ले रही है। गौरतलब है कि 1978 में अमेरिका की सालाना मांस खपत 240 लाख टन थी जबकि चीन की 80 लाख टन। लेकिन 1992 तक मांस खपत के मामले में चीन ने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया और उसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।


दहशत में ड्रैगन


आज चीन की मांस खपत 7.10 करोड़ टन हो चुकी है जो कि अमेरिका की तुलना में दोगुनी है। चीन की इस बढ़ती भूख ने दुनिया भर की खेती के पैटर्न को बदल कर रख दिया। इसका कारण यह है कि जिस ढंग से चीन में मांस की मांग बढ़ी उसकी पूर्ति परंपरागत पशुआहार से संभव नहीं थी। इसीलिए पशुओं को सोयाबीन व अनाज मिश्रित आहार खिलाया जाने लगा। अनाजों के बढ़ते अप्रत्यक्ष उपभोग से निपटने के लिए चीन ने दोहरी नीति पर काम किया। जहां उसने खाद्यान्नों की मांग को पूरा करने के लिए घरेलू उत्पादन बढ़ाने की रणनीति अपनाई, वहीं सोयाबीन के लिए आयात का सहारा लिया। इस प्रकार चीन का सोयाबीन आयात तेजी से बढ़ा। उदाहरण के लिए 1994 में सोयाबीन का उत्पादन व खपत दोनों लगभग बराबर था वहीं 2010 तक उसकी खपत पांच गुना बढ़कर सात करोड़ टन हो गई जबकि उत्पादन 1.4 करोड़ टन ही बना रहा। इस प्रकार चीन अपनी खपत का 80 फीसदी सोयाबीन आयात करने लगा है। चीन द्वारा बड़े पैमाने पर सोयाबीन आयात ने पश्चिीमी गोला‌र्द्ध में खेती के पैटर्न को बदल कर रख दिया क्योंकि इसी क्षेत्र में क्षमता है कि वह चीन की बढ़ती मांग को पूरा कर सके। अमेरिका में आज गेहूं से अधिक जमीन पर सोयाबीन की खेती हो रही है।


सोयाबीन की बढ़ती खपत के चलते दुनिया भर में उसकी खेती का तेजी से विस्तार हुआ। 1950 में विश्व का सोयाबीन उत्पादन 1.7 करोड़ टन था जो आज 25 करोड़ टन तक पहुंच गया अर्थात 14 गुना ज्यादा, जबकि इस दौरान दुनिया का खाद्यान्न उत्पादन चार गुना ही बढ़ा। आज अनाज की कीमतों में जो बढ़ोतरी दिखाई दे रही है उसका कारण सोयाबीन के बढ़ते रकबे के कारण अनाजों की खेती की उपेक्षा ही है। शुरू में चीन की घरेलू स्तर पर अनाज उत्पादन बढ़ाने की रणनीति कामयाब रही और चीन का उत्तरी मैदान देश का आधा गेहूं और एक-तिहाई मक्का पैदा करने लगा। लेकिन मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटने, भूजल भंडारों के सूखने और कृषि योग्य भूमि की कमी के चलते पैदावार में आया बुलबुला फट गया। गहन खेती और भूजल दोहन से इलाके सूख गए और वहां से धूल के गुबार उठने लगे हैं। डेढ़ दशक तक खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर रहने वाले चीन ने अब महंगाई से बचने के लिए आयात का सहारा लेना शुरू कर दिया। 2010 में चीन के खाद्यान्न उत्पादन में 2.9 फीसदी की बढ़ोतरी के बावजूद कीमतें काबू में नहीं आ पाईं तब उसने खाद्यान्नों का रिकॉर्ड आयात किया जिससे अनाज का सुरक्षित भंडार बढ़कर 20 करोड़ टन से अधिक हो गया। इस प्रकार चीन की बढ़ती मांग से अनाजों की कीमतें बढ़ रही हैं और यह महंगाई दुनिया के गरीबों को भुखमरी के बाड़े में धकेल रही है।


लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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