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यह बड़ी अजीब स्थिति है कि भारत के कूटनीतिज्ञ या राजनयिक विदेश नीति पर कोई फैसला लेते हैं तो उस पर अमेरिका की गहरी छाप दिखती है। यानी यह कहा जा सकता है कि चाहे कारण जो हो, भारतीय अमेरिका का पिछलग्गू बनने को विवश हैं। मौजूदा हालात को देख पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी को याद करना लाजिमी है। अपनी तटस्थ नीतियों के कारण इंदिरा गांधी ने कभी अमेरिका के आगे घुटने नहीं टेके। यही नहीं, उन्होंने अपने जमाने में अमेरिका की बंदरघुड़की का जवाब देकर यह बता दिया था कि हम किसी के पिछलग्गू नहीं हो सकते। इंदिरा गांधी अक्सर अमेरिकी नेताओं को उनकी औकात बताती रहीं, लेकिन आज देश के नेताओं में वैसा माद्दा नहीं दिख रहा है। नतीजा, अमेरिकी नीति यहां सिर चढ़कर बोल रही है। अमेरिका है कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसी शख्सियत से भी बदतमीजी करने से बाज नहीं आता। वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध में इंदिरा गांधी के नेतृत्व ने देश को जीत दिलाई और उनकी कूटनीति की बदौलत ही बांग्लादेश बना। अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर उनकी पकड़ इतनी जबर्दस्त थी कि उस युद्ध के मामले में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को भी मुंह की खानी पड़ी थी।
भारत-पाक युद्ध में इंदिरा गांधी के सही समय पर लिए गए फैसले के कारण जंग में हस्तक्षेप करने के अमेरिका के मंसूबों पर पानी फिर गया। तब अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े के पहुंचने से पहले बांग्लादेश को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया। इससे अमेरिकी सामरिक नीति को भारत से झटका लगा। बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध के दौरान बेहद धैर्य से काम लिया। उन्होंने इस मामले में पहले अंतरराष्ट्रीय जनमत को यह बताया कि भारत के लिए यह युद्ध क्यों जरूरी था। लाखों बांग्लादेशी शरणार्थियों को करीब एक वर्ष तक देश में पनाह देना भी कोई आसान काम नहीं था। इसके तहत इंदिरा ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएं कीं। पश्चिमी देशों को भारत की स्थिति से अवगत कराया। यूरोप ही नहीं, अमेरिका में भी उदारवादी चिंतकों और नागरिकों का एक वर्ग इससे संतुष्ट हुआ। तब के पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बड़े पैमाने पर हाहाकार मचा था और मानवाधिकार हनन हो रहा था।
इंदिरा गांधी की यह कूटनीति सफल रही कि अमेरिका में मीडिया के एक बड़े वर्ग ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की नीतियों का विरोध कर बांग्लादेश के बारे में भारत की नीतियों का समर्थन किया। भारत-पाक युद्ध में इंदिरा ने अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े को हस्तक्षेप का मौका ही नहीं दिया। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि 1971 का युद्ध भारत-पाकिस्तान के बीच नहीं, बल्कि अमेरिका-भारत के बीच था। यह युद्ध तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच मानसिक स्तर पर लड़ा गया। दो वर्ष पूर्व अमेरिकी सरकार द्वारा सार्वजनिक किए गए कुछ दस्तावेजों में स्पष्ट है कि 1971 के भारत-पाक युद्ध में भारतीय सेना की बहादुरी व इंदिरा गांधी की दृढ़ता ने भारत को डराने-धमकाने के अमेरिकी मंसूबों पर पानी फेर दिया था। निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर को भारत से सख्त चिढ़ थी। जब युद्ध से पहले इंदिरा गांधी अपना पक्ष रखने अमेरिका गई और अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलीं तो अगले दिन निक्सन से बात करते हुए किसिंजर ने कहा था, भारतीय शातिर होते हैं, वे युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। तब निक्सन और किसिंजर ने गुप्त रूप से चीन को तैयार करने की कोशिश की। लेकिन इंदिरा गांधी ने उसी समय रूस से सामरिक संधि कर निक्सन को स्तब्ध कर दिया।
अमेरिका ने अंत तक पाकिस्तान को इस धोखे में रखा कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो चीन भी भारतीय सीमा पर मोर्चा खोल देगा और भारत दो लड़ाइयां एक साथ नहीं लड़ पाएगा, जबकि चीन ने अंतत: भारतीय सीमा पर कोई भी नई लड़ाई करने से मना कर दिया। यही नहीं, जब युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा भारत को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में भेजे गए अपने युद्धक जलपोतों के बेड़े का भी भारत ने परवाह नहीं किया। इसी तरह विदेश नीति के क्षेत्र में मौजूद दुविधा को इंदिरा गांधी ने खुलेआम सोवियत संघ से नजदीकी बनाकर दूर किया और 1971 के बाद से दुनिया भारत को राजनय के एक मजबूत खिलाड़ी के रूप में देखने को मजबूर हुई। अंतरिक्ष विज्ञान, एटॉमिक साइंस और कंप्यूटर साइंस में भारत की आज जैसी स्थिति की कल्पना इंदिरा के बगैर की संभव नहीं थी। हर राजनेता की तरह इंदिरा गांधी की भी अपनी कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को यूटोपिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर उतारने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है।
इस आलेख के लेखक राजीव रंजन तिवारी हैं
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