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देश के ओर-छोर तक फैले जो हजारों लोग ‘मैं अन्ना हजारे हूं’ शब्दांकित गांधी टोपियां लगाए घूम रहे हैं, वे क्या जानते हैं अन्ना कौन हैं? अन्ना मराठी हैं या गुजराती? ब्राह्मण हैं या ठाकुर? उनकी मातृभाषा क्या है? और जिस रालेगांव सिद्धि के वह रहने वाले हैं वह कहां का गांव है? इस गांव का अन्ना ने कायाकल्प कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि शायद लोग यह सब जानने के बहुत इच्छुक भी नहीं हैं। अन्ना बस अन्ना हैं जो साफ-सफाई, जल संवर्द्धन, अच्छी खेतीबाड़ी और दारू व व्यसन मुक्ति के लिए लंबी लड़ाई लड़ते आए और अब भ्रष्टाचार विरोधी भारत के प्रतीक बन गए हैं।
बस, यहीं से बात शुरू होती है और यहीं पर खत्म हो जाती है। यह लड़ाई अन्ना की नहीं है। यह लड़ाई अन्ना के साथ जुड़ी किसी एक नागरिक जमात की भी नहीं है। वास्तव में यह लड़ाई उस भारत माता की है जिसकी विनम्र संतान के नाते महात्मा गांधी ने अनशन और सत्याग्रह के हथियारों से न केवल स्वतंत्रता संग्राम लड़ा बल्कि भारतीयों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाने तथा नवीन व्यवस्था की स्थापना के लिए हिंद स्वराज की अभिकल्पना भी की। केवल अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना ही स्वतंत्रता संग्राम का एकमात्र उद्देश्य नहीं था। भारतीय जीवनमूल्यों के अनुसार शासन और समाज व्यवस्था ही रामराज्य होगा, ऐसी मान्यता न केवल महात्मा गांधी की थी बल्कि भारत को सुजलाम, सुफलाम देखने की आकांक्षा रखने वाले सभी स्वतंत्रता सेनानी दृष्टाओं की भी थी। इनमें श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद, डा. हेडगेवार, सुभाषचंद्र बोस तथा दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता प्रमुख रहे हैं।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष उस भारतीय जीवनपद्धति और शासन प्रणाली के प्रचलन के लिए जमीन तैयार करने का पहला कदम है जिसके बिना भारत अपनी श्रेष्ठतम नियति प्राप्त नहीं कर सकता। इनमें भारतीय पारिवारिक जीवनमूल्य, प्रकृति के प्रति श्रद्धा और सम्मान, प्राकृतिक संसाधनों के शोषण के बजाए मात्र आवश्यकतानुसार संतुलित दोहन, यंत्राधारित जीवन में मनुष्य के श्रम और पारस्परिक स्नेहिल संबंधों के आधार पर आत्मीय समाज की कल्पना, प्रजा-वत्सल शासन तथा नागरिक अधिकारों के साथ कर्तव्यों का भी समावेश ऐसे कुछ बिंदु रहे हैं जिन्होंने भारत के नवोदय के लिए नवीन युग के विचारक राजनेताओं को आंदोलित किया। परंतु आजादी के बाद पंडित नेहरू के मायावी समाजवादी भ्रमजाल में भारत भारतीयता से दूर उस ‘इंडिया’ की ओर बढ़ता गया, जहां पहले कोटा-परमिट राज ने छोटे-से-छोटे कार्यालय से लेकर ऊंचे-से-ऊंचे पदवीधारी तक भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप में स्थापित किया और बाद में राजनीति में धन के महत्व को स्वीकार्यता प्रदान की। जीवन-पद्धति और राजनीतिक शुचिता के बारे में गांधी, लोहिया और दीनदयाल के विचार महज पाठ्य पुस्तकों में ही दबे रह गए और जीवन की सुख-शांति और विकास का मंत्र विस्मृत हो गया।
आजीविका कमाने का अर्थ है परिवार, संस्था का विखंडन। जिसे देश का अन्नदाता कहा जाता है, उस किसान की वर्तमान राज-व्यवस्था में न प्रतिष्ठा है न शासकीय नीति उसकी सुख-समृद्धि के लिए केंद्रित की जाती है। शहर का विकास भी मुख्यत: धनी वर्ग केंद्रित रहता है जिस कारण गरीबी और अमीरी में लगातार खाई बढ़ती गई तथा मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग बेहद कठिनाइयों में किसी तरह गुजरबसर कर रहा है। देश और समाज को आधार प्रदान करने वाले मूल व्यवसाय न केवल तिरस्कृत हुए बल्कि उनमें सबसे बड़ा किसानों का वर्ग आज आत्महत्याओं के कारण अधिक जाना जाता है। शहरी और देहाती गरीबी थमने में नहीं आ रही है। 40 प्रतिशत से अधिक भारत सिर्फ 20 रुपये प्रतिदिन की आय में जानवरों से बदतर जीवन बिताने पर मजबूर है।
वर्तमान व्यवस्था में न केवल गांव और शहरों से जलाशय गायब हो रहे हैं और साफ पानी 12 रुपये लीटर के हिसाब से प्लास्टिक की बोतलों में बिक रहा है बल्कि भ्रष्टाचार का संस्थागत स्वरूप हो जाने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में न विद्यालयों में अध्यापक जाते हैं न छोटे चिकित्सालयों तथा ग्रामीण प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में डॉक्टर, नर्से या सहायक हाजिरी लगाते हैं। जनता के रोजमर्रा के कामकाज से जुड़े हर दफ्तर में चाहे वह बिजली का हो, पानी का, टेलीफोन का या नगर निगम का, आम आदमी परेशान होकर लाचार सा ही घूमता रहता है। अभी का समाचार है देश के शीर्षस्थ चिकित्सा संस्थान एम्स में एक गरीब हृदय रोगी के इलाज के लिए दस हजार रुपये की रिश्वत मांगी गई और वह बेचारा रिश्वत न दे पाने के कारण एक साल से अपने रोग को लिए हुए एम्स के चक्कर लगा रहा है।
भ्रष्टाचार सबसे पहले गरीब और विकास की मुख्यधारा से अछूते सामान्य वर्ग पर आघात करता है। बड़े लोग और धनी वर्ग इससे उतने प्रभावित नहीं होते जितना आम आदमी होता है। भ्रष्टाचार के कारण युवा न अच्छे विद्यालयों में प्रवेश पा सकता है और न ही अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिए सरकारी योजनाओं का अपनी मेधा के बल पर लाभ उठा पाता है। हर जगह पैसा देकर काम करवाने का चलन है। इसका सबसे ज्यादा असर जिस वर्ग पर हुआ है वही पिछले अनेक वर्षो से हताशा, कुंठा और बेबसी में क्रोध से मुट्ठियां बंद कर सही अवसर की तलाश कर रहा था।
बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने उस दबे-घुटे आक्रोश को प्रकट होने का अवसर दिया तो लोग सड़कों पर उतर आए। यह एक ऐसा भारतीय आंदोलन है जिसने जेपी और अयोध्या आंदोलन की तरह जात-पात, भाषा-प्रांत, जाति और मजहब के तमाम भेद समाप्त कर दिए हैं। इस आंदोलन में शामिल व्यक्ति जाति नहीं तिरंगे का साझीदार है। दुख की बात है कि कुछ तत्वों द्वारा इस आंदोलन पर मुस्लिम विरोधी या दलित प्रतिनिधि-हीनता के स्तरहीन आरोप लगाए गए। प्रश्न उठता है कि क्या भ्रष्टाचार आम भारतीय नागरिक को प्रभावित नहीं करता? क्या यह दानवाकार विकृति जाति या मजहब देखकर प्रहार करती है? यह संतोष का विषय है कि किसी ने भी इस प्रकार के आरोपों को महत्व नहीं दिया तथा यह आंदोलन अन्ना से परे एक भारतीय व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में परिणत होते दिख रहा है। अन्ना शतायु हों और उनके जीवन में ही हम उनके स्वप्न साकार होते देखें, यही कामना है।
लेखक तरुण विजय राज्यसभा के सदस्य हैं
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