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एक साल पहले लखनऊ के पुराना किला स्थित दुर्गाभाभी द्वारा स्थापित लखनऊ मॉन्टेसरी के सभागार में बटुकेश्वर दत्त की याद में उनके जन्म शताब्दी वर्ष के प्रारंभ में एक आयोजन हुआ था। फिर देश में कई जगहों पर कुछ लोगों ने अपने स्तर पर ऐसे आयोजन किए, लेकिन बहरी सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। विपक्षी दलों को इसमें वोट बैंक का मसाला नहीं मिला। साल बीत गया। उस क्रांतिकारी की ऐसी बेरूखी हुई, जिसने गोरों की बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए शहीदे-आजम भगत सिंह ने अपना साथी चुना था। सांडर्स हत्याकांड, लाहौर षडयंत्र, दिल्ली असेंबली बम कांड की सुनवाइयों के दौरान जेल में अनवरत आमरण अनशन करने वाला और हर बार अदालत लाते समय भगत सिंह पर पड़ने वाली चोटों को अपने शरीर पर लेने वाले बटुकदा किसी को याद नहीं हैं। क्या यह याद है कि 18 नवंबर 2010 को उस महान सेनानी की जन्म शताब्दी थी। पूरा शताब्दी वर्ष भी गुमनामी में खो गया, ठीक उसी तरह जैसे कि आजाद भारत में यह महान सेनानी जीवित रहते हुए विस्मृत रहा था। बटुकेश्वर दत्त ने 12 साल जेल में काट। सालों तक कालापानी की अमानवीय यातनाएं झेलीं। भगत सिंह की मां उन्हें बेटा मानती थीं। आजाद हिंदुस्तान में जब उन्हें कैंसर ने घेर लिया तो उनके गृह राज्य ने नहीं, पंजाब सरकार ने उनकी देखभाल की।
उनकी अंतिम इच्छा के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार भी पंजाब के फिरोजपुर में हुसैनीवाला में भगत सिंह की समाधि के बगल में ही किया गया। बटुकेश्वर ने 8 अप्रैल 1929 को जब दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह के साथ बम फेंका था तब वह सिर्फ 18 साल के ही थे। उनके साथी चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु आदि वतन के लिए शहीद होते गए। जब भगत सिंह ने फांसी की सजा सुनने के बाद लाहौर सेंट्रल जेल से बटुकेश्वर को भेजे अपने आखिरी खत में लिखा था, तुम्हें आजीवन कारावास मिला है। तुम्हें जीवित रहकर दुनिया को दिखाना है कि क्रांतिकारी अपने आदर्र्शो के लिए सिर्फ शहीद होकर ही नहीं, जीवित रहकर भी दुनिया की हर मुश्किल का जीवटता से सामना कर सकता है। बटुकेश्वर ने भगत सिंह के इस अटल विश्वास को ताजिदंगी कायम रखा। उन्होंने पहले तो जीवटतापूर्वक 10 साल अंडमान की नारकीय जेल में कालापानी की सजा काटी। फिर 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। यह विडंबना ही है कि स्वाधीन भारत में इस महान क्रांतिकारी को असहाय, निर्धनता और गुमनामी की जिंदगी नसीब हुई। आजादी की लड़ाई में हथियार उठाने के कारण उनके सगे भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया था और मृत्युपर्यन्त उनका कोई संपर्क न रहा, लेकिन जिस देश के लिए उन्हानें अपना सब कुछ कुर्बान किया उसने भी उपेक्षा और तिरस्कार के ऐसे दंश उन्हें दिए जो अंग्रेजों की यातनाओं के निर्मम प्रहारों से भी अधिक मर्मभेदी थे। इस क्रांतिवीर को आजादी के बाद पेट भरने के लिए सिगरेट कंपनी के मामूली एजेंट के रूप में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं।
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उन्होंने बिस्कुट, ब्रेड का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट का काम भी किया। किसी ने उन्हें बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बस के परमिट दिए जा रहे हैं। वे अपनी अर्जी ले कर आरटीओ अफसर के पास गए। उनसे पूछा गया आपके पास क्या प्रमाण है कि आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं। इतना सब होने के बाद भी वे बिना किसी शिकायत के खामोशी से अपनों की उपेक्षा सहते रहे। यह सब उस राज्य में हुआ, जो अपनी सभ्यता-संस्कृति और अतीत की बड़ी-बड़ी नजीरें पेश करते नहीं थकता। उस राज्य की राजधानी पटना में बटुकेश्वर को पूछने वाला कोई नहीं है। बटुकेश्वर आगरा और ग्वालियर में भी रहे। उन्हें देवघर में भी नजरबंद रखा गया। आजादी के बाद 18 नवंबर 1947 को जन्मदिवस के दिन ही उनका विवाह अंजलि देवी से हुआ। विवाह के बाद वे स्थायी रूप से पटना में ही बस गए थे। वह भी किराये के मकान में। इस विवरण का उद्देश्य यही है कि वह कई राज्यों से जुड़े रहे, लेकिन किसी भी राज्य सरकार को यह सुध नहीं है कि यह उनका शताब्दी वर्ष है। बटुकेश्वर ने एक डायरी में क्रांतिकारी जीवन के संस्मरण लिखे थे। एक बार कोई महाशय उनसे पुस्तक लेखन के नाम पर वह डायरी ले गए, जो कभी वापस नहीं आई। वह आत्मकथा लिखना चाहते थे, दुर्भाग्यवश उन्हें अपना यह सपना साकार करने का मौका नहीं मिला और महज 55 वर्ष की आयु में ही दुनिया को अलविदा कह गए।
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1963 में उन्होंने भगत सिंह की मां विद्यावती से मिले और जीवन को संपूर्णता में आत्मसात कर लिया। भगतसिंह की मां तो उनकी बीमारी और उन्हें खो देने की कल्पना मात्र से ही व्यथित हो उठी थीं। वह दत्त में भगतसिंह को ही पाती थीं। 1964 में वह अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें 10 अगस्त को पटना के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर वहां उचित उपचार और देखरेख का अभाव था। एक पत्रकार चमनलाल आजाद की प्रखर लेखनी से सत्ता के गलियारों में खलबली मची। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन और गृहमंत्री दरबारासिंह ने पंजाब सरकार की ओर से तुरंत एक हजार रुपये की मदद के साथ दिल्ली में उनका इलाज कराने का प्रस्ताव भेजा। उन्हें दिल्ली लाया गया, मगर 20 जुलाई 1965 की रात बटुकेश्वर इस दुनिया से चले गए। भारतीय क्रांति का एक दैदिप्यवान नक्षत्र हमेशा के लिए अस्त हो गया। बटुकेश्वर की पत्नी का देहावसान 2001 में हुआ। उनकी इकलौती बेटी भारती बागची पटना में ही रहती हैं और एक कॉलेज में प्रोफेसर हैं। उनके परिवार से न तो कोई सियासत में है और न ही सत्ता के गलियारों में उनका कोई दखल है। शायद इसीलिए इस महान सेनानी की यादों को संरक्षित करने और आज की पीढ़ी को उनका अवदान बताने के लिए प्रयास नहीं हुए। उनकी बेटी का कहना है कि सरकार को दिल्ली में उसी असेंबली हाल में भगत सिंह और बटकेश्वर दत्त की एक प्रतिमा साथ-साथ लगानी चाहिए और डाक टिकट जारी कर दिल्ली में क्रांतिकारियों की स्मृति में एक स्मारक बनवाना चाहिए।
लेखक पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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