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आजाद आवाज से सत्ता का डर

जागरण मेहमान कोना
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केंद्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने हाल ही में एक सम्मेलन में कहा कि इंटरनेट की आजादी पर किसी प्रकार का अंकुश लगाना ठीक नहीं है। वाकई में सरकारें अगर ऐसा सोचती हैं तो यह बेहतर होते लोकतंत्र की निशानी है। मगर अफसोस कि यह इतना आसान नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक, दुनिया में इस समय इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या तकरीबन 2 अरब 27 करोड़ तक पहुंच चुकी है। इसकी प्रसार संख्या में लगातार इजाफा ही हो रहा है। इसमें 44 फीसद तो अकेले एशिया में ही हैं।


दुनिया भर में संपर्क के सिलसिले को बढ़ाने का काम इंटरनेट ने काफी आसान कर दिया है। ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान ने एक तरफ जहां दुनिया की सरहदों को सीमित कर दिया है, वहीं इस तरह की आजादी ने खतरों को ग्लोबल भी कर दिया है। हाल के दिनों में इंटरनेट पर जारी इस्लाम विरोधी फिल्म को लेकर दुनिया भर में हुए हिंसक प्रदर्शन में जन-धन की हानि ने इस आजादी पर सवालिया निशान लगा दिया है। आतंकियों ने तो अपना नेटवर्क फैलाने के लिए इसका काफी दुरुपयोग किया है। इसके अलावा इंटरनेट में काफी मात्रा में अश्लील सामग्री भी परोसी जा रही है, जो सामाजिक खतरों को सहज ही दावत दे रही है। दुनिया के लिए खतरनाक विचारों का भी तेजी से प्रसार हो रहा है। अब ऐसे खतरों को रोकना सरकारों के सामने चुनौती है।

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इंटरनेट की आजादी पर रोक लगाने की मांगें तब उठने लगी थीं, जब इंटरनेट की वजह से ही एशिया और अफ्रीका के कई देशों में क्रांति तेजी से फैल रही थी। तानाशाह सरकारों ने लोकतंत्र की बहाली की मांग करने वाली आवाजों को दबाने के लिए इंटरनेट पर सेंसरशिप लगाए। अपनी मशहूर रचना सोशल कांट्रैक्ट में फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था, व्यक्ति आजाद पैदा हुआ है, मगर बेडि़यों में जकड़ा हुआ है। सामंती जीवन के आदी हो चुके यूरोपीय समाज के लिए यह अभिव्यक्ति बेहद नई चीज थी। इसने समूचे यूरोप को झकझोर कर रख दिया। पुरातनपंथी विचारधाराओं के खिलाफ इसने लोगों को नए सिरे से सोचने को विवश कर दिया। हर जगह इस खुली और ताजी हवा में सांस लेने की छटपटाहट थी। यह बेचैनी आज से तकरीबन दो सौ साल पहले तब दिखाई दी, जब सुदूर अटलांटिक महासागर में ब्रिटिश राज के खिलाफ विरोध का ज्वार उठ रहा था। हिंदुस्तान में ब्रिटिश हुकूमत अपने पांव पसारते हुए हुगली नदी के तट पर जून की दोपहरी में प्लासी की लड़ाई (1757) का नाटक खेल रही थी।


अटलांटिक में ब्रिटेन के अमेरिकी उपनिवेश स्वतंत्रता और संप्रभुता को हासिल करने के लिए बोस्टन में 16 दिसंबर, 1773 को गुलामी की प्रतीक चाय की हजारों पेटियों को समंदर के हवाले कर दिया। विश्व इतिहास में यह घटना बोस्टन टी पार्टी के नाम से मशहूर हुई। कर न देने के नारे के साथ ये आवाजें दरअसल लोकतंत्र को हासिल करने के लिए राजतंत्र और सामंती शासन के खिलाफ एक प्रकार से बिगुल थीं, जिसने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया। सामंतवाद के पतन और पुनर्जागरण के बाद यूरोप की तकदीर अब लोकतांत्रिक प्रणाली के हवाले हो रही थी। कमोबेश पूरी दुनिया में यह हवा बह चली थी, जो शायद इंसान के राजनीतिक भविष्य का चरम लक्ष्य थीं। जिन्हें बगैर स्वतंत्रता और समानता के हासिल नहीं किया जा सकता था। यह अभिव्यक्ति या आजाद आवाजें इसी स्वतंत्रता में निहित थी। भारतीय संविधान भी मौलिक अधिकारों को मानते हुए अनुच्छेद 19(1) क के तहत नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।


इसी में प्रेस और इंटरनेट की आजादी भी शामिल है। हालांकि संविधान में ऐसी आजादी पर देश की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, लोक व्यवस्था, सदाचार और न्यायालय अवमानना जैसे कुछ हितों को ध्यान में रखते हुए रोक लगाने की बात भी कही गई है। इंटरनेट की आजादी पर 37 देशों में सर्वेक्षण करने वाली अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस की 2011 की एक रिपोर्ट के अनुसार, महज आठ देशों में ही इंटरनेट की आजादी है। जबकि 18 देशों में आंशिक तौर पर इसे स्वतंत्रता मिली है। 11 मुल्क ऐसे हैं, जहां इंटरेनट के इस्तेमाल पर पूरी तरह से पाबंदी है। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, मानवाधिकार हनन और आर्थिक बदहाली के बीच गुम होती आजाद अभिव्यक्ति की ये आवाजें आज पनाह मांग रही हैं। सरकारों के तानाशाही रवैये ने लोकतंत्र को मजबूती देने वाली इन आवाजों को बड़ी बेरहमी से कुचल डाला। शायद इसीलिए एक बार यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, लोकतंत्र सरकारों के विविध आकर्षक रूपों और विकारों से मिलकर बना है, जो समानता और असमानता का बंटवारा करते हैं। दो हजार साल पहले कही गई प्लेटो की यह उक्ति आज कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो चली है।


दुनिया भर में लोकतंत्र का जो रूप हमें देखने को मिल रहा है, वह वंचित समूहों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिला पाने में अक्षम साबित हो रहा है। अमीरी-गरीबी के बीच दुनिया के सबसे गहरे गर्त मेरियाना ट्रेंच जैसी खाई निर्मित हो चुकी है, जिसकी शायद ही कभी भरपाई हो सके। लोकतंत्र की दरख्त पर गरीबी और बेरोजगारी की अमरबेल खूब इतरा रही है। जितनी तेजी से बदल रही है दुनिया, शायद उतनी तेजी से लोकतंत्र की जडें़ गहराई तक नहीं पहुंच पा रही हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत और सबसे विकसित लोकतंत्र का दंभ भरने वाले अमेरिका इसके साक्षात उदाहरण हैं। लोकंतत्र को बुलंद करने वाली आवाजों को खतरनाक तरीके से दबाया जा रहा है। हालांकि मीडिया, सूचना का अधिकार कानूनों ने ऐसी आवाजों को मुखर करने में काफी अहम भूमिका निभाई। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी मानना है कि इंटरनेट की आजादी से लोकतंत्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों तक पहुंचा जा सकता है। लाल सागर से भूमध्य सागर तक उठे अरब आंदोलनों के ज्वार से लीबिया, मिस्त्र और यमन में तो सत्ता परिवर्तन भी हो गया, मगर सीरिया में अब भी इस बदलाव के लिए लड़ाई जारी है। हालांकि यह बहस का विषय है कि इन आंदोलनों और क्रांतियों की तार्किक परिणति कितनी सही है।


हाल के दिनों में सबसे विरोधाभासी नजरिया उन लोकतांत्रिक सरकारों का रहा है, जो सोशल नेटवर्किग साइटों ट्विटर, फेसबुक, गूगल पर अंकुश लगाने की बातें करती हैं। जबकि अभिव्यक्ति की ये मुखर आवाजें कभी विकिलीक्स के रूप में उभरीं तो कभी इंटरनेट की आजादी के लिए संघर्ष करने वाली हैकरों की संस्था एनॉनिमस के तौर पर। शायद इसीलिए हिंदी के मशहूर साहित्यकार धूमिल ने कहा था, हमारे यहां लोकतंत्र एक तमाशा है, जिसकी जान मदारी की भाषा है। जब तक अधिकारों को बुलंद करने वाली आवाजें कायम रहेंगी, लोकतंत्र की सांसें सुचारू ढंग से चलती रहेंगी। क्योंकि ये आवाजें हैं आम इंसान की, जो अनसुनी नहीं की जा सकती हैं।


लेखक दिनेश मिश्र.

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