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राष्ट्रीय दलों को सबक

जागरण मेहमान कोना
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पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस और भाजपा को आत्मचिंतन की सलाह दे रहे हैं संजय कुमार


पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे जहां कांग्रेस के लिए एक बड़ी विफलता और उसकी करारी हार को दर्शाते हैं वहीं दूसरी ओर उत्तार प्रदेश में भाजपा की वर्तमान स्थिति कोई शुभ संकेत नहीं। इन पांच राज्यों में केवल मणिपुर ही है जहां कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला और वह वहां लगातार तीसरी बार सरकार बनाने जा रही है, लेकिन वास्तविकता यही है कि वहां भी जनता में सरकार के कामकाज से नाराजगी थी, लेकिन कोई मजबूत विकल्प न होने के कारण जनता ने कांग्रेस को चुना। जहां तक गोवा की बात है तो पिछली बार कांग्रेस ने एनसीपी और महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, लेकिन आम जनता सरकार के कामकाज से खुश नहीं थी, जिसे समझते हुए भाजपा ने महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा और बहुमत पाने में सफल रही, लेकिन सबसे प्रमुख तो उत्तार प्रदेश, पंजाब और उत्ताराखंड राज्य थे, जहां कांग्रेस का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा। इसमें खासकर उत्तार प्रदेश की बात करें तो कांग्रेस अपने तमाम प्रयासों के बावजूद 2007 के बुरे दौर से बाहर निकल पाने में नाकाम रही और लगभग वैसा ही हाल भाजपा का भी है। यहां दोनों ही राष्ट्रीय दल हाशिये पर हैं और क्षेत्रीय दल सपा व बसपा पहले और दूसरे दर्जे पर कायम हैं।


जहां तक उत्तार प्रदेश में तमिलनाडु जैसी स्थिति बनने की बात है तो मैं नहीं मानता कि हम फिलहाल अभी इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। हमें एक या दो और चुनाव नतीजों का इंतजार करना चाहिए। उत्तार प्रदेश चुनाव से कांग्रेस को काफी उम्मीदें थीं और राहुल का करिश्मा चलने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन यह धूल-धूसरित हुआ और साबित हुआ कि अब मतदाता पहले जैसा नहीं रहा। इन चुनावों की सबसे खास बात यह रही कि उत्ताराखंड को छोड़कर मतदाताओं ने किसी एक ही दल को चुना और उसे पूर्ण बहुमत से विजयी बनाया। इसका अर्थ यही है कि अब मतदाता अपने मत को व्यर्थ नहीं होने देना चाहता और वह हवा के रुख देखकर रणनीतिक और परिणामपरक वोटिंग करता है। उत्तार प्रदेश में शुरू में कांग्रेस के पक्ष में हवा बनी थी, लेकिन दूसरे चरण की वोटिंग के बाद जब जनता को महसूस हुआ कि कांग्रेस सत्ता में नहीं आने जा रही है तो उसने कांग्रेस से किनारा कर लिया और सपा के पक्ष में वोटिंग की। अब हार के लिए तमाम कारण गिनाए जा रहे हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह वही जनता है जो लोकसभा चुनावों में अलग तरह से वोटिंग करती है और विधानसभा चुनावों में अलग आधार पर।


अभी यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि उत्तार प्रदेश में पहचान की राजनीति का खात्मा हो रहा है और लोग जाति व धर्म से ऊपर उठ रहे हैं। जहां समाजवादी पार्टी के पास मुस्लिम और यादव वोट बैंक हैं वहीं बसपा के पक्ष में दलित वोट बैंक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उत्तार प्रदेश में 10-11 प्रतिशत यादव हैं तो तकरीबन 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें सभी सपा के पक्ष में हों, ऐसा नहीं है, लेकिन बावजूद इसके करीब 25-26 प्रतिशत वोट बैंक तो सपा के लिए बनता ही है। इसी तरह दलित वोट बैंक भी करीब 22 प्रतिशत बैठता है, जो कि कुल मतदाताओं का पांचवां हिस्सा है। यानी प्रत्येक चार-पांच मतदाता में एक मतदाता दलित है। स्वाभाविक है कि चुनाव के वक्त हवा का रुख और कुछ दूसरे समीकरण चुनाव परिणामों को निर्णायक दिशा दे देते हैं। अब यही फैक्टर लोकसभा चुनावों के दौरान बदल जाते हैं, जो कि कांग्रेस के लिए भविष्य में उम्मीद का काम करते हैं। सत्तार के दशक में कांग्रेस का वोट बैंक दलित, उच्च वर्ग और मुसलमान हुआ करता था और आज भी लोकसभा चुनाव के दौरान यह समीकरण कांग्रेस को लाभ पहुंचाते हैं। लोकसभा चुनावों में मतदाता वोटिंग करते समय राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखता है। यही कारण है कि दलित और मुस्लिमों का जो हुजूम विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा के प्रति अधिक उदार रहता है उसका एक हिस्सा लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के प्रति उदार हो जाता है। इसलिए ताजा चुनाव परिणामों को 2014 के लोकसभा चुनावों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। इस वर्ष गुजरात, छत्ताीसगढ़, मध्य प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं और इनके परिणाम देखकर ही कोई मत बनाया जा सकता है।


जहां क्षेत्रीय दलों के उभार की बात है तो पिछले 15 वर्षो में ये लगातार मजबूत हुए हैं और महत्वपूर्ण भूमिका में रहे हैं। आगे भी इसके जारी रहने की संभावना है। 2004 और 2009 लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों के पास कुल 30 प्रतिशत मतों का हिस्सा रहा है, जबकि दोनों ही राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा अपने मताधार को बढ़ा पाने में विफल रहे। भाजपा तो 20-22 प्रतिशत के मताधार पर स्थिर हो गई है, इसलिए उसे इस पर विशेष विचार करने की आवश्यकता है। फिलहाल किसी तीसरी शक्ति के उभार की संभावना नहीं दिख रही है, लेकिन यदि वर्तमान चुनाव परिणामों से ही भाजपा 2014 के लोकसभा सफर को आसान मानना शुरू कर देगी तो उसके लिए मुश्किल अवश्य होगी। केंद्र सरकार पर भी इस चुनाव का कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है और न ही उसके कामकाम अथवा निर्णय लेने की गति में कोई अवरोध आने वाला, क्योंकि उसका तालमेल सपा से बना रहेगा। हां, इतना अवश्य है कि संप्रग के घटक दल अब कांग्रेस पर अधिक दबाव बनाने और अपनी बात मनवाने की स्थिति में होंगे, जबकि कांग्रेस के नेताओं का मनोबल गिरा हुआ होगा। जहां तक राहुल गांधी की बात है तो जब तक पार्टी के अंदर से कोई बात नहीं उठती तब तक उनके लिए कोई दिक्कत नहीं, फिर उनका करिश्मा चले या न चले। कांग्रेस को एकजुट रखने और उसे ऊपर उठाने के लिए गांधी परिवार के सदस्य का होना आवश्यक है।


बिहार और उत्तार प्रदेश में राहुल गांधी का करिश्मा न चलने के बावजूद वह भविष्य में स्टार बने रहेंगे और उनके पक्ष में यह कहा जा सकता है कि यह वही राहुल गांधी हैं जिन्होंने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को उत्तार प्रदेश में गर्त से बाहर निकाला था। इस बार उत्तार प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के तमाम कारणों में एक प्रमुख कारण मुख्यमंत्री के लिए उनके उम्मीदवार का नाम घोषित न होना था, जबकि सपा की तरफ से मुलायम सिंह और अखिलेश का नाम सामने था। कुल मिलाकर ताजा चुनाव परिणामों पर दोनों ही राष्ट्रीय दलों को चिंतन करने की आवश्यकता है।


लेखक संजय कुमार चुनाव विश्लेषक हैं


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