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गंगा की गैया

जागरण मेहमान कोना
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हाल में उत्तर प्रदेश में एक अनूठे अभियान-मेरी गंगा, मेरी डॉल्फिन, के तहत इस राज्य की सीमा में बहने वाली गंगा और उसकी सहायक नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिनों की संख्या का आकलन किया गया। व‌र्ल्ड वाइड फंड, इंडिया और 18 गैरसरकारी संस्थाओं की मदद से चलाए गए इस तीन दिवसीय अभियान का उत्साहवर्धक नतीजा निकला। गणना के बाद पता चला कि गंगा में डॉल्फिनों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2005 में गंगा और उसकी सहायक नदियों में कुल 600 डॉल्फिनें थीं, जिनकी संख्या अब बढ़कर 671 हो गई है। उत्तर प्रदेश में गंगा की डॉल्फिनों को स्थानीय भाषा में सूंस कहा जाता है। इस लेकर उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में यह वाक्य भी प्रचलित है- सूंस गंगा की गैया है, गंगा मेरी मैया है। इस पंक्ति से ही स्पष्ट है कि गंगा में पाए जाने वाले इस अंधे जीव की आबादी की बढ़त का कितना महत्व है। विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि जिस तरह जंगल के जीवन के लिए टाइगर महत्वपूर्ण है, उसी तरह भारत के राष्ट्रीय जलीय जीव डॉल्फिन की उपस्थिति नदियों की सेहत का संकेतक है। नदियों के गहरे और साफ पानी में पाए जाने वाली डॉल्फिन गंगा के अलावा ब्रह्मपुत्र में भी पाई जाती है।


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पिछली बार इनकी गणना वर्ष 2005 में हुई थी, जब गंगा और ब्रह्मपुत्र दोनों में मिलाकर 800 से कम डॉल्फिन बची थीं। पहले डॉल्फिनें यमुना में भी पाई जाती थीं, लेकिन अब दिल्ली और इटावा के बीच एक भी डॉल्फिन नदी में नहीं है। इटावा के बाद जब यमुना में दूसरी नदियों का पानी मिलता है, तब वहां कुछ डॉल्फिनें दिखने लगती हैं। यमुना, चंबल या गंगा समेत उसकी सहायक नदियों में जहां कहीं भी डॉल्फिनों का दिखना बंद हुआ है, वहां इसकी वजह सिर्फ यही है कि उस नदी में जैविक रूप से जीवन नहीं बचा है। व‌र्ल्ड वाइड फंड के विशेषज्ञों के अनुसार पिछले अरसे में विभिन्न नदियों में डॉल्फिनों की संख्या में गिरावट का जो प्रमुख कारण हैं, उनमें नदियों में जलस्तर घटना, रासायनिक प्रदूषण और शिकार के नए-नए तरीके इजाद होना है। गंगा के किनारे हुए तेज शहरीकरण और रासायनिक कचरा उगलने वाली फैक्टि्रयों की बढ़ती संख्या ने नदी का प्रदूषण घातक स्तर तक पहुंचा दिया। चूंकि डॉल्फिनें नदियों के जीवन का संकेत हैं, लिहाजा इनके इस महत्व को समझते हुए भारत सरकार ने वर्ष 2010 में इसे वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत लुप्तप्राय मानते हुए रष्ट्रीय जलीय जीव घोषित कर दिया था। नब्बे के दशक में चीन, कोरिया और जापान में यौनवर्धक दवाओं में डॉल्फिन की चर्बी और तेल आदि का इस्तेमाल बढ़ने लगा था।


एक डॉल्फिन से औसतन चार-पांच किलो तक चर्बी मिल जाती है। भारत में इसकी औसत कीमत ढाई से तीन हजार रुपये प्रति किलोग्राम होती है, चीन में जिसकी कीमत 30 हजार प्रति किलोग्राम से भी ज्यादा हो जाती है। शिकारी इसी मुनाफे के लालच में गंगा, चंबल और ब्रह्मपुत्र की डॉल्फिनों का अवैध ढंग से शिकार करते रहे हैं। चूंकि अपने देश में जलीय जलजीवों की सुरक्षा का प्राय: कोई इंतजाम नहीं है और यह काम स्थानीय लोगों की निगरानी पर ही छोड़ा गया है, लिहाजा अवैध शिकार के कारण डॉल्फिनों की संख्या पहले तो काफी तेजी से गिरी और फिर रासायनिक कचरे के कारण उनका समूचा जीवन ही दांव पर लग गया। संकट अकेले डॉल्फिन पर नहीं है, इन नदियों में स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले मगरमच्छ, घडि़याल और विभिन्न प्रजाति कछुओं पर भी बढ़ते प्रदूषण की गाज गिरी है। बल्कि अब तो इस प्रदूषण का दुष्प्रभाव मनुष्यों पर भी दिखने लगा है। नैशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम (एनसीआरपी) ने पिछले दिनों जो अध्ययन किया है, उसके अनुसार गंगा के मैदानी इलाकों में गॉल ब्लैडर कैंसर की बीमारी खतरनाक रूप ले चुकी है। निश्चय ही डॉल्फिन को बचाने की कोशिशों का मकसद गंगा, उसके जलजीवों और अंतत: इसके किनारे रहने वाले लाखो-करोड़ों मनुष्यों का जीवन बचाना है।


लेखक अभिषेक कुमार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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