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किचन की ओर वापसी

जागरण मेहमान कोना
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Anjali sinhaदुनिया भर में मंदी के खतरे की गूंज सुनाई दे रही है। अमेरिका इसकी चपेट में आ चुका है। जाहिर है कि हर जगह आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ नुकसान के आकलन तथा समाधान की माथापच्ची में जुटे होंगे। कही मंदी के कारण कामगारों की छंटनी होती है तो अधिकतर क्षेत्रों में मालिकों तथा नियोक्ता को मंदी एक ऐसा अच्छा बहाना भी मिल जाता है जिसके चलते वह अपने पुराने कर्मचारियों को हटाकर उससे कम वेतन तथा सुविधाओं में नए कर्मचारियों की नियुक्ति कर लेता है। इस बार भी मंदी की मार महिलाओं पर अधिक पड़ने की संभावना है। ब्रिटेन से खबर आ रही है कि विभिन्न क्षेत्रों में महिला कर्मचारियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज की जा रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में कटौती के कारण महिलाएं पुन: गृहिणी बनती जा रही हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी रिसर्च के मुताबिक महिलाएं तेजी से बेरोजगार हो रही हैं। बताया गया है कि जून 2010 में महिलाओं में 30 फीसदी बेकारी थी जो जून 2011 में बढ़कर 40 फीसदी हो गई है। गत वर्ष सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की कुल संख्या में एक लाख 43 हजार की कमी आई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि शुरू में छंटनी से पुरुष अधिक प्रभावित थे, लेकिन उसे ठीक करने का प्रयास किया गया तो उसका असर महिलाओं पर पड़ा। वैसे भी देखें तो सिर्फ ब्रिटेन ही नहीं दुनिया भर में रोजगार के क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में गैर-बराबरी की शिकार हैं। तीन साल पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने महिलाओं के लिए वैश्विक स्तर की रोजगार प्रवृत्तियों पर एक रिपोर्ट पेश की थी जिसमें यह हकीकत सामने आई।


रिपोर्ट के मुताबिक यह गैर-बराबरी है कम उत्पादकता वाले काम, तुलनात्मक रूप से कम पारिश्रमिक, असुरक्षित परिवेश, अधिकतर अकुशल काम उनके हिस्से में आत है। यद्यपि घर के बाहर की दुनिया में महिलाओं की उपस्थिति तथा उनका हस्तक्षेप जैसे-जैसे बढ़ा है उसमें पहले की तुलना में स्थितियां सुधरी भी हैं और काफी बड़े बदलाव हम देख सकते हैं। चाहे वह अवसरों की उपलब्धता हो या पहले की तुलना में सुविधाओं की बात हो, लेकिन इसके बावजूद समाज जितनी तेजी से बदल रहा है तथा विकास की जो गति है उसकी तुलना में महिलाओं की स्थिति में सुधार या प्रगति नहीं हो पाई है। कार्यक्षेत्र में बराबरी का मापदंड सिर्फ पिछड़े क्षेत्र व समाज में ही नहीं है, बल्कि विकसित समाज भी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि महिलाओं के लिए गरिमामय काम की कमी है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 10 सालों में कामकाजी महिलाओं की संख्या 20 करोड़ बढ़ी है। इसके बाद भी 2007 तक काम करने वाली महिलाओं की संख्या 120 करोड़ है, जबकि काम करने वाले पुरुष 180 करोड़ हैं।


कार्यक्षेत्र में भेदभावपूर्ण स्थिति के साथ ही अवैतनिक काम का अधिक हिस्सा उन्हीं के जिम्मे होता है, जैसे गृहकार्य अथवा अनुत्पादक कार्य। विशेष तौर पर गरीब इलाके की गरीब महिलाओं के कार्यक्षेत्र में असुरक्षा बढ़ी है। रिपोर्ट में आंकड़ा प्रस्तुत किया गया है कि दुनिया में पुरुषों की बेरोजगारी दर 5.7 प्रतिशत है, जबकि महिलाओं का 6.4 प्रतिशत है। यह भी बताया गया है कि विश्व के श्रम बाजार मे 100 पुरुषों पर 70 कामगार महिलाएं हैं जबकि दक्षिण एशिया में काम कर रही महिलाओं का 59 प्रतिशत श्रम बाजार में है जबकि कामकाजी उम्र के पुरुषों की 82.8 प्रतिशत संख्या श्रम बाजार में हैं। अगर हम ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की ओर लौटें तो पाते हैं कि उन विकसित देशों में तो महिलाएं हमारे जैसे देशों की तुलना में सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में श्रम का हिस्सा अधिक बन पाई हैं।


घर के अंदर की जिम्मेदारी तथा बाहर की वर्जनाएं उन्हें काम से कम रोकती हैं, लेकिन हमारे यहां तो सार्वजनिक दायरे के कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत अभी कम है। ऐसे में जब युवा बेरोजगारों के फौजों का आकलन लगाया जाता है तो मुख्य ध्यान लड़कों पर होता है। वहीं वे पढ़े-लिखे बेरोजगार होने का संताप अधिक झेलते हैं जबकी कुछ लड़कियों के लिए पढ़ने के बाद शादी भी एक विकल्प माना जाता है। यही विकल्प उन्हें सार्वजनिक दायरे की दावेदारी से पीछे भी ढकेल देता है। कमाने के स्रोत उसके पास कम हो जाते हैं या कम वेतन के काम मिलते हैं तथा साथ ही जब कंपनियों में छंटनी का मौका आता है तो सबसे आसानी से इन्हें ही घर भेज दिया जाता है। राजनीतिक अर्थशास्त्र में एक शब्द प्रयुक्त होता है रिजर्व आर्मी ऑफ लेबर अर्थात श्रमिकों की आरक्षित सेना। महिलाओं के संदर्भ में यह शब्द बिल्कुल माकूल बैठता है। न सिर्फ सार्वजनिक दायरे की नौकरी में समस्या आने पर वे घर भेजी जाती है बल्कि निजी दायरे यानी परिवार के अंदर की जरूरतों के कारण भी वे बाहर से बेदखल हो जाती है। अक्सर यह पाया गया है कि यदि पति-पत्नी दोनों नौकरी पेशा हैं और किन्हीं कारणवश चाहे बच्चे की परवरिश या कैरियर का मामला हो या तबादले की बात हो तो अधिकांश मामलों में महिलाएं ही नौकरी छोड़ देती हैं। निश्चित ही इसके लिए परिवार की परिस्थितियों के साथ ही काफी हद तक अपनी मानसिकता भी जिम्मेदार होती है। सदियों से घर में होने के कारण यह जिम्मेदारी अधिकांशत: महिलाएं ही निभाती आई हैं।


अजिल सिन्हा हैं


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