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पहाड़ में शांति की पहल

जागरण मेहमान कोना
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Kripa Shankarगोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन अथवा गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) की स्थापना के लिए केंद्र व राज्य की सरकार तथा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते के बावजूद अलग गोरखालैंड राज्य की मांग पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, लेकिन ध्यान देने योग्य है कि वह मांग फिलहाल जबानी ही है। आज यदि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग जीटीए करार के बाद भी अलग गोरखालैंड राज्य की मांग नहीं छोड़ने की बात कर रहे हैं तो सिर्फ राजनीतिक विवशता के कारण और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए। वह जानते हैं कि यदि यह मांग उन्होंने छोड़ने की घोषणा कर दी तो उनका भी वही हश्र होगा जो सुभाष घीसिंग का हुआ। वैसे गुरुंग द्वारा अलग गोरखालैंड राज्य की मांग किए जाने से फिलहाल पहाड़ में किसी अशांति की आशंका नहीं है। जीटीए का चुनाव यदि छह महीने बाद होता है तब भी चुनाव के बाद उसके पांच वर्ष के कार्यकाल तक पहाड़ में शांति कायम रखने की कोशिश खुद जीजेएम की सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी। तब उसके एजेंडे पर जंगी आंदोलन नहीं, 59 विभागों का प्रशासन चलाना होगा।


गौरतलब यह भी है कि त्रिपक्षीय समझौते पर दस्तखत होने के साथ ही साढ़े तीन वषरें से पहाड़ में जारी अशांति की विदाई संभव हुई है। यही नहीं, समझौते पर दस्तखत होने के साथ ही पूरे पर्वतीय अंचल में जिस तरह उत्सव का उल्लास मुखर हो उठा है उससे स्पष्ट है कि शासन पर पहाड़ के लोगों का भरोसा पुन: कायम हुआ है। पहाड़ में आज तनाव नहीं, शांति का माहौल है। राज्य प्रशासन की नई कर्णधार ममता बनर्जी की यह बड़ी उपलब्धि है। कांग्रेस जो काम सात साल में तेलंगाना में नहीं कर पाई, उसे तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ने दो महीने में दार्जिलिंग में कर दिखाया और इसे अखंडता का संदेश देते हुए ही संभव किया। समझौते पर दस्तखत के ठीक बाद विमल गुरुंग व जीजेएम के हजारों समर्थकों के समक्ष ही उन्होंने जोर देकर कहा कि बंगाल का विभाजन नहीं होगा तो इसलिए कि उन्हें पता है कि विवाद के जो मूल कारण थे उन्हें 16 पृष्ठों के जीटीए समझौते में दूर कर लिया गया है। विवाद की सबसे बड़ी वजह गोरखाली-लेपचा भाषा बहुल दार्जिलिंग व उसके आस-पास के अंचल के सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक हितों को सरकारी मान्यता देने में हीला-हवाली रही है। इसीलिए दार्जिलिंग को अलग प्रशासनिक इकाई का दर्जा देने की मांग जब-तब जोर पकड़ती रही है। यह मांग एक शताब्दी से भी ज्यादा पुरानी है। हिलमैंस एसोसिएशन ने 1907 में मिंटो-मोर्ले कमीशन को ज्ञापन देकर दार्जिलिंग को स्वायत्त प्रशासनिक इकाई का दर्जा देने की मांग की थी। आजादी के बाद भी आल इंडिया गोरखा लीग ने अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को जीवित रखा। गोरखा लीग के नेता देवप्रकाश राई दार्जिलिंग के सबसे ताकतवर नेता थे। दार्जिलिंग में विधानसभा की सभी सीटों पर उनके द्वारा मनोनीत लोग ही चुने जाते थे, किंतु 1981 में देव प्रकाश राई के निधन के बाद गोरखा लीग निष्प्रभावी हो गया और राई की खाली जगह को गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष सुभाष घीसिंग ने भरा। घीसिंग ने अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर जंगी आंदोलन चलाया और उसकी परिणति 1988 में दार्जिलिंग पर्वतीय परिषद के गठन के रूप में हुई। घीसिंग अलग गोरखालैंड राज्य की मांग से पीछे हटते हुए दो दशकों तक पर्वतीय परिषद के मुखिया रहे, किंतु पहाड़ का कोई विकास करने में विफल रहे। वह करोड़ों रुपए की आर्थिक गड़बड़ी के आरोपों से भी घिर गए। हालत यहां तक पहुंची कि उनका खुद का ही पहाड़ में प्रवेश करना मुहाल हो गया। उसी दौरान गोरखा जनमुक्ति मोर्चा अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर अस्तित्व में आया और जल्द ही पूरे दार्जिलिंग में उसकी तूती बोलने लगी। विमल गुरुंग उसके सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे। उसी गुरुंग को ममता बनर्जी आज यदि जंगी आंदोलन से विरत रहने के लिए राजी करा सकी हैं तो क्या यह कम बड़ी बात है?


त्रिपक्षीय करार कर ममता ने एक संदेश यह भी दिया है कि छोटी-छोटी सांस्कृतिक अस्मिताओं को मान्यता देने में सरकारों को उदारता दिखानी चाहिए। अलगाववादी आंदोलनों से निपटने के लिए सरकारें जब-जब बल प्रयोग करती हैं तब-तब परिस्थिति और जटिल होती है। निकट अतीत में इसका एक उदाहरण राजीव-लोगोंवाल समझौता है। उसी की नई कड़ी गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन का समझौता है। वैसे इस समझौते को दार्जिलिंग समस्या का अंतिम समाधान कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि स्मरण रखना चाहिए कि समझौता और समाधान एक चीज नहीं हैं। यह भी सही है कि सुलह-समझौता दरअसल समाधान की तरफ बढ़ने वाला एक कदम होता है। इस कदम से यदि अंतिम समाधान की राह प्रशस्त होती है तब भी यह बेहद तात्पर्यपूर्ण है।


दार्जिलिंग के लोगों की बड़ी शिकायत यह रही है कि सरकार इस क्षेत्र से खूब राजस्व उगाहती है, पर यहां के विकास पर खर्च बहुत कम करती है। तितरफा समझौते में जीटीए को सिर्फ भारी बजट ही नहीं दिया गया है, उसे विकास कायरें में अपने हिसाब से खर्च करने की आजादी भी दी गई है। यदि इस धनराशि का दुरुपयोग नहीं हुआ तो निश्चित ही पहाड़ का परिदृश्य बदलेगा। ममता दार्जिलिंग समेत विकास में पिछड़े पूरे उत्तर बंगाल में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए सचेष्ट हैं। जीटीए करार के उपरांत उन्होंने पूरे उत्तर बंगाल के लिए जो पैकेज घोषित किया है, उसका यदि सही-सही क्रियान्वयन हुआ तो उत्तर बंगाल से भेदभाव बरतने और विकास में सौतेला व्यवहार किए जाने से बढ़ती गई क्षेत्रीय असंतुलन की खाई पाटने में निश्चित ही मदद मिलेगी।


लेखक कृपाशंकर चौबे वरिष्ठ पत्रकार हैं


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