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डरी हुई सरकार का अलोकतांत्रिक कदम

जागरण मेहमान कोना
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Awdesh kumarअन्ना एवं उनके साथियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई पर आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं। अनशन करने की अनुमति न मिलने के बावजूद आप यदि अड़े हुए हैं और आपकी घोषणा है कि हर हाल में आंदोलन करेंगे तो फिर कानून और व्यवस्था के नाम पर पुलिस के पास आपको रोकने के लिए ऐसी कार्रवाई करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। अन्ना हजारे और उनके साथी लगातार लोगों से दिल्ली में जयप्रकाश पार्क पहुंचने का आह्वान कर रहे थे, किंतु ऐसी नौबत तभी आती है जब सरकार किसी को अपने संवैधानिक अधिकारों के तहत अपना विरोध प्रकट करने से रोकने का मन बना लेती है। वहां कितनी संख्या में भीड़ जुटती इसका अनुमान लगाना कठिन है, पर केंद्र के मंत्रियों एवं कांग्रेस के नेताओं के तेवर और अंतत: पुलिस के कदमों से साफ है कि वे अंदर से भयभीत हो गए थे। हालांकि आंदोलनकारियों के लिए गिरफ्तारी एवं रिहाई सामान्य घटनाएं हैं, लेकिन यहां संदर्भ थोड़ा भिन्न है। जब सरकार का नैतिक बल नष्ट हो जाता है और आभा धुल जाती है तो वह सामान्य जनांदोलन का सामना करने से भी कतराती है और लोकतांत्रिक परंपराओं को परे रखकर ताकत का सहारा लेती है।


अन्ना एवं उनके साथियों के खिलाफ कार्रवाई सरकार की इसी अवस्था की परिणति है। यदि 13 अगस्त से 16 अगस्त तक के घटनाक्रमों पर नजर डाली जाए तो पहले गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि किसी को विरोध प्रकट करने का अधिकार तो है, लेकिन पुलिस को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कदम उठाने तथा सरकार को हस्तक्षेप करने का भी अधिकार है। अनशन के लिए जगह देने न देने का निर्णय दिल्ली पुलिस करेगी। यह सीधे-सीधे दिल्ली पुलिस को दिया गया संदेश था। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने पार्टी मुख्यालय से अन्ना हजारे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। उनके बारे में सूचना अधिकार के तहत जानकारी मांगने संबंधी आवेदन पर सेना द्वारा लिखे गए पत्र का जवाब नहीं दिए जाने को गैर-लोकतांत्रिक एवं अपारदर्शी चरित्र का उदाहरण बताया। इसके बाद सरकार के दो प्रमुख मंत्रियों अंबिका सोनी एवं कपिल सिब्बल ने सरकारी प्रेस एवं सुविधाओं का इनके खिलाफ प्रचार में उपयोग किया। अंतत: 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि लोकपाल पर मतभेद की बात वह संसदीय समिति, राजनीतिक दलों एवं प्रेस तक अपनी बात पहुंचाएं, लेकिन इसके लिए अनशन या आंदोलन नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर दिल्ली पुलिस ने 22 शर्ते रखीं जिनमें से अन्ना के साथियों ने छह को मानने से इंकार कर दिया।


इसके बाद दिल्ली पुलिस ने साफ कर दिया कि वह अनशन के लिए जयप्रकाश पार्क की अनुमति नहीं देने जा रही है। इस पूरे घटनाक्रम के बाद भी यदि सरकार की मंशा पर किसी को कोई संदेह रह गया हो तो उसके लिए कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। इस क्रम में 16 अगस्त को जो कुछ हुआ वह सरकार की मंशा के अनुरूप है। दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करती है, इसलिए उसकी कार्रवाई वस्तुत: केंद्र सरकार की कार्रवाई है। जिस तरह गृहमंत्री ने पुलिस की शर्तो का समर्थन किया और शर्ते न मानने के आधार पर कार्रवाई को उचित ठहराया उसके बाद कुछ कहने की वैसे भी आवश्यकता नहीं रह जाती है। एक ओर चिदंबरम यह कहते हैं कि हम दुखी मन से यह सूचित कर रहे हैं कि ऐसी कार्रवाई हुई और दूसरी ओर वह शर्ते न मानने के लिए अन्ना एवं उनके साथियों पर आरोप भी लगा रहे हैं। साथ ही स्वामी रामदेव प्रकरण की तरह इस अभियान के पीछे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शक्ति होने का आरोप लगाया जा रहा है। बहरहाल, इस कार्रवाई की जन प्रतिक्रियाओं एवं राजनीतिक परिणामों पर इस समय कोई अंतिम मत व्यक्त करना उचित नहीं होगा। इन पर मतभेद की पूरी गुंजाइश है, किंतु दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने वाले देश में ऐसा होना क्या हमारे लिए शर्म का विषय नहीं है? प्रश्न यह है कि शांति भंग होने या कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने की आशंका किस तरह उत्पन्न हो गई थी। खैर, अब तो कार्रवाई हो चुकी है और यह स्पष्ट है कि इसका समाधानपरक उत्तर दे पाना सरकार के लिए संभव नहीं है। कांग्रेस पार्टी ने जिस प्रकार अन्ना हजारे की छवि धूमिल करने का अभियान चलाया, उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए उससे देश भर में वे लोग भी आक्रोशित हुए जो अन्ना एवं उनके साथियों के जनलोकपाल एवं उनके लिए किए जा रहे आंदोलन के समर्थक नहीं हैं। अन्ना एवं उनके साथी जनलोकपाल के नाम पर ऐसी मांगें कर रहे हैं जिसमें संसद ही नहीं पूरे राजनीतिक प्रतिष्ठान की उपेक्षा है। यह वर्तमान संसदीय प्रणाली एवं न्यायिक व्यवस्था को सही मानते हुए भी उसका एक प्रकार से अपमान है।


वस्तुत: इनकी मांग एक जिद ही है कि कानून बनाने की भूमिका संसद न निभाए और उन्होंने जो जनलोकपाल नामक मसौदा बनाया है सरकार उस पर ही मुहर लगा दे। जाहिर है सभी राजनीतिक दलों को इस पर आपत्ति होनी चाहिए, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों से दबी सरकार के रणनीतिकारों में अब इतना आत्मविश्वास ही नहीं है कि वे सभी राजनीतिक दलों को इस पर एकत्रित कर सकें। अन्ना के साथियों के अंदर भी मतभेद है पर सरकार इसका भी लाभ नहीं उठा पा रही। यही नहीं अन्ना एवं उनके साथियों का अभियान केवल जनलोकपाल को कानून के रूप में स्वीकृति दिलाने के लिए है संपूर्ण भ्रश्टाचार के विरुद्ध नहीं। इसे भी कांग्रेस एवं सरकार जनता तक पहुंचाने में विफल है। वस्तुत: एक डरी हुई सरकार एवं दल से आप संतुलन रखते हुए विवेकपूर्ण कदम उठाने की उम्मीद भी नहीं कर सकते। इसलिए सरकार के स्तर पर अनिश्चय एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है। एक दिन अन्ना के खिलाफ आग उगलना और दूसरे दिन चुप हो जाना और अंत-अंत तक यह फैसला नहीं कर पाना कि अन्ना एवं उनके साथियों के साथ करना क्या है। उन्हें हिरासत में लेना है, पकड़ना है या दिल्ली से कहीं दूर ले जाकर छोड़ आना है। सरकार अभी तक यही निर्णय नहीं कर पा रही है। स्वामी रामदेव के आंदोलन के दौरान भी सरकार का रवैया कुछ इसी तरह असमंजस की स्थिति में था और अंतिम समय में घबराहट में आकर सरकार ने क्रूर दमनात्मक कार्रवाई का सहारा लिया।


सरकार एवं कांग्रेस इस बात पर एकमत दिख रही है कि किसी भी तरह रामदेव प्रकरण की पुनरावृत्ति न होने पाए। यानी अगर लोग जमा हो गए तो फिर उनको हटाने के लिए उसी प्रकार की कार्रवाई करनी होगी इसलिए बेहतर है कि अनशन की शुरुआत ही न होने दी जाए ताकि ऐसी कोई नौबत ही न बने। वास्तव में यह विचार ही लोकतंत्र विरोधी है। जब सोच यह हो कि किसी भी तरह आंदोलन नहीं होने देना है तब तो फैसले के लिए केवल इतना रह जाता है कि आखिर कदम क्या उठाना है? दिल्ली पुलिस ने जो शतेरर्् रखीं वे दरअसल सरकार की शर्ते थीं। धरना, प्रदर्शन, अनशन आदि के लिए लोग जब भी पुलिस के पास जाते हैं तो इस तरह की शर्ते होती हैं, लेकिन इन पर गहराई से विचार किए बिना हम हस्ताक्षर कर देते हैं। सामान्य स्थितियों में पुलिस इन शर्तो के उल्लंघन पर कार्रवाई नहीं करती, लेकिन पुलिस ने स्वामी रामदेव के खिलाफ कार्रवाई का आधार ही यह बनाया कि उन्होंने अपने द्वारा स्वीकृत शर्तो का पालन नहीं किया। संख्या सीमित करने से लेकर गाडि़यों की संख्या निश्चित करने और अनशन तीन दिनों तक सीमित करने व रात में नौ बजे के बाद लाउडस्पीकर नहीं बजाने आदि शर्ते पुलिस लगा रही थी। इन बातों का लक्ष्य एक ही था कि किसी तरह अनशन न हो सके। अंत में प्रधानमंत्री ने भी लाल किले से सरकार की मंशा प्रकट कर दी। सरकार की मन:स्थिति को देखते हुए निष्कर्ष यही निकलता है कि आने वाले अगले कुछ दिनों में फिलहाल कोई सकारात्मक मोड़ नहीं दिखने वाला। सरकार को अन्ना हजारे एवं उनके साथियों का इस बात के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए कि इस प्रकरण के कारण कुछ समय के लिए राष्ट्रमंडल खेलों पर कैग की रिपोर्ट एवं दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के त्यागपत्र की मांग नेपथ्य में चली गई है।


लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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