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काल्पनिक तख्तापलट के वास्तविक नुकसान

जागरण मेहमान कोना
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Balendu dadhichअगर केंद्र सरकार और सेना के बीच आपसी अविश्वास का मौजूदा माहौल न होता तो एक अंग्रेजी अखबार की खबर ने इस किस्म की सनसनी नहीं फैलाई होती और न ही टेलीविजन चैनलों पर किस्म-किस्म की ब्रेकिंग न्यूज बटोरी गई होतीं। लेकिन पारंपरिक रूप से खबरों से दूर रहने वाली हमारी सेना पिछले कुछ महीनों से अखबारों के पन्नों और टेलीविजन चैनलों की बहसों का विषय बनी हुई है। भले ही रक्षामंत्री एके एंटनी ने बार-बार बयान दिया है कि तीनों सेना प्रमुखों में सरकार की पूरी आस्था है, लेकिन सरकार और सेना के बीच अविश्वास की रेखा कुछ इस तरह खिंची हुई है कि आपसी तनाव और संदेह दूर होने का नाम नहीं ले रहे। शायद 30 मई को जनरल वीके सिंह के रिटायरमेंट के बाद हालात कुछ बदलें। बहरहाल, सेना और सरकार के बीच परोक्ष टकराव की स्कि्रप्ट में कुछ और पात्र भी कूद पड़े हैं। एक हमारे राजनीतिक दल, जिन्होंने इस नाजुक मुद्दे पर चुप्पी साधने की बजाए इस या उस पक्ष को उकसाने वाली बातें कहीं। दूसरे मीडिया, जिसने न सिर्फ जनरल की चिट्ठी के विवाद को खूब उभारा, बल्कि देश की सुरक्षा पर असर डालने वाली उनकी चिट्ठी के अंशों को भी जमकर प्रचारित किया। फिर एक अंग्रेजी अखबार ने देश में सैन्य तख्तापलट की आशंका की ओर इशारा करके उस अदृश्य सीमा रेखा को भी पार कर लिया है, जो मीडिया को नैतिकता के सुपरिभाषित दायरे में रहने के लिए प्रेरित करती है।


सेना प्रमुख की नीयत पर सवाल क्यों


सोलह और सत्रह जनवरी के बीच की रात आगरा में स्थित 50 पैरा ब्रिगेड की टुकड़ी और हिसार की मैकेनाइज्ड इनफैन्ट्री टुकड़ी ने एक अहम सेनाभ्यास में हिस्सा लिया था। बताया जाता है कि इसका मकसद यह जांचना था कि अगर कभी भारत में उसी किस्म के हालात बन जाएं जैसे हाल ही में बांग्लादेश में सैनिकों की नाकाम बगावत के दौरान बने या फिर मालदीव में देखने को मिले तो हम उनसे निपटने में कितने सक्षम हैं। सेना और रक्षा मंत्रालय के मुताबिक, यह एक रूटीन अभ्यास था, जिसके लिए सेना को अलग से सरकार को सूचित करने की जरूरत नहीं थी। इस योजना के तहत सैन्य टुकडि़यां दिल्ली की तरफ रवाना हुई थीं और रास्ते में उन्हें कोहरे तथा ट्रैफिक की समस्या का भी सामना करना पड़ा। इसलिए कहा जाता है कि आगरा से दिल्ली के करीब तीन घंटे के सफर में उन्हें साढ़े चार घंटे तक का वक्त लग गया। कुछ दिन बाद एक मशहूर वेबसाइट पर इसके बारे में खबर भी प्रकाशित हुई, जिसमें सैन्य टुकडि़यों के मूवमेंट का ब्यौरा दिया गया। जाहिर था, सेना के स्तर पर यह एक रोजमर्रा की घटना थी। लेकिन इस हफ्ते एक अंग्रेजी अखबार ने इस खबर को एक दूसरे ही अंदाज में पेश किया। अखबार ने लिखा कि सैन्य टुकडि़यों का यह मूवमेंट असामान्य था और इसकी जानकारी मिलने पर केंद्र सरकार अवाक रह गई थी।


अखबार ने साफ-साफ शब्दों में सैन्य तख्तापलट की कोशिश का जिक्र नहीं किया था, लेकिन जिस अंदाज में इसे पहले पन्ने पर फैलाकर प्रकाशित किया गया और केंद्र सरकार के आशंकित होने का ब्यौरा दिया गया, वह साफ इशारा करता था कि अखबार की नजर में इस लोकतांत्रिक देश की मर्यादित सेना पड़ोसी देशों से प्रेरणा लेकर कोई बड़ा दुस्साहस करने जा रही थी। अखबार ने अपने तर्को को मजबूत बनाने के लिए इस बात का भी जिक्र किया कि उस समय रक्षा मंत्रालय और जनरल वीके सिंह के बीच टकराव अपने चरम पर था और उसी दिन जनरल सिंह ने अपनी आयु के विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। खबर का परोक्ष संदेश यह था कि सेना में जनरल सिंह के हिमायती अफसर सिविलियन नेतृत्व के खिलाफ बगावत पर उतारू थे। सेना का आचरण असंदिग्ध अगर सचमुच ऐसा हुआ होता तो वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की बुनियाद पर निर्णायक आघात होता, लेकिन भारत के राजनीतिक, सैनिक, संवैधानिक, न्यायिक, संसदीय, गुप्तचर और प्रशासनिक तंत्र कुछ इस तरह स्थापित किए गए हैं कि यहां सैन्य बगावत की आशंका न्यूनतम है। सिर्फ सेना ही क्यों, देश के अन्य शक्तिशाली तंत्रों को भी मनमाने ढंग से आचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है। यह एक बेहद संतुलित व्यवस्था है, जिसे संतुलित बनाए रखने में सबकी अपनी-अपनी भूमिका तो है, लेकिन कोई भी एक पक्ष उसे धुरी से डिगाने की स्थिति में नहीं है। हमारी सेना लोकतंत्र के प्रति अपनी अगाध आस्था और मर्यादित आचरण के लिए विख्यात है। देश के इतिहास में सैन्य विद्रोह या सुपरिभाषित आचरण से विचलन की कोई मिसाल नहीं मिलती।


बवाल नहीं, मंथन की जरूरत


सौभाग्य से सेना के मंसूबों को लेकर पैदा हुआ ताजा विवाद भी अब अपने तार्किक समापन की ओर है। थल सेनाध्यक्ष द्वारा एक साप्ताहिक पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू के अंश सामने आने के बाद सैन्य तंत्र के आचरण पर संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई है। जनरल वीके सिंह ने उस इंटरव्यू में, जो अंग्रेजी अखबार के तथाकथित रहस्योद्घाटन के बीस दिन पहले ही प्रकाशित हो गया था, मीडिया के आचरण तथा उत्तरदायित्वहीनता को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए थे। उन्होंने कहा था कि मीडिया सिर्फ सनसनीखेज खबरों की तलाश में लगा रहता है और अगर किसी पत्रकार को कहीं से कोई मजेदार खबर मिलती है तो उसे पहले पन्ने पर बड़े-बड़े शीर्षक में छाप दिया जाता है, बिना इस बात की पुष्टि किए कि उसमें कितनी सच्चाई है। जनरल सिंह ने कहा था कि हाल ही में हुए सेनाभ्यास के बारे में भी कल को कोई पत्रकार लिख सकता है कि यह सेनाभ्यास नहीं था, बल्कि कुछ और था। गैरजिम्मेदार मीडिया यों भी अगर सेना को तख्तापलट करना ही होता तो उसे आगरा और हिसार से टुकडि़यां दिल्ली भेजने की जरूरत नहीं थी।


खुद दिल्ली में ही एक लाख से ज्यादा सशस्त्र सैन्य बल मौजूद है। ऊपर से पंद्रह जनवरी को सेना दिवस की परेड और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड के सिलसिले में देश के कई इलाकों से अतिरिक्त सशस्त्र सैन्य टुकडि़यां दिल्ली आई हुई थीं। अगर सैन्य नेतृत्व को कुछ असामान्य करना होता तो उसे आगरा और हिसार पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं थी। दूसरे, सैन्य विद्रोह को ध्यान में रखते हुए अगर इन शहरों से टुकडि़यों को आना भी था तो वे सड़क मार्ग से क्यों आएंगी, जिसमें कई घंटे का समय लगना था और रास्ते में तमाम तरह की रुकावटें भी आ सकती थीं? हेलीकॉप्टरों के जरिये सीधे राजपथ पर सैनिक उतारे जा सकते थे। तीसरे, आगरा और हिसार से आने वाली दो टुकडि़यां दिल्ली में मौजूद सैन्य बल को परास्त करने की स्थिति में नहीं हैं और अगर दोनों के बीच तालमेल नहीं है तो ऐसा कोई भी मिशन सफल हो ही नहीं सकता। चौथे, दोनों टुकडि़यों को जब लौटने के लिए कहा गया तो वे तुरंत अनुशासित ढंग से लौट भी गई। अब इस बात का जवाब अंग्रेजी अखबार को देना है कि उसने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से इतने संवेदनशील मुद्दे को इस तरह पेश करने की जरूरत क्यों समझी? उसकी खबर तो बेबुनियाद साबित हुई, लेकिन वह जो नुकसान कर सकती थी, कर चुकी है।


मीडिया का काम खबर देना है, खबर बनाना नहीं। आरोप लगाए जा रहे हैं कि एक मशहूर वेबसाइट की खबर पढ़ने के बाद ही किसी को जनरल सिंह तथा सरकार के बीच चल रहे टकराव की रोशनी में इसे सनसनीखेज रूप देने का विचार आया होगा। खबर की योजना बनाने वाले शख्स को शायद ही इस बात का अंदाजा हो कि उसने न सिर्फ सच्चाई को, न सिर्फ पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों को, बल्कि हमारे लोकतंत्रिक ढांचे को भी नुकसान पहुंचाया है। सारे प्रकरण से किसे लाभ हुआ? किसी को नहीं। लेकिन नुकसान सबका हुआ। केंद्र सरकार का, सेना का, रक्षामंत्री का, सेनाध्यक्ष का और मीडिया का भी। यहां तक कि खुद संबंधित अखबार को भी। जिस मीडिया के पास इतनी बड़ी ताकत है, जिसके कहे पर लोग इस कदर भरोसा करते हैं, उसे इस तरह भटकने और उत्तरदायित्वहीन हो जाने की आजादी नहीं है। आज लोग बेवजह सेना को शक की नजर से देख रहे हैं। आज एक आम सैनिक बेवजह सरकार को संदेह की नजर से देख रहा है। जिस अविश्वास को घटाने का प्रयास हम सबको करना था, दुर्भाग्य से मीडिया ने उसे बढ़ाने का काम किया है। और यही मीडिया कहता है कि उस पर कोई नियम बाहर से थोपा नहीं जाना चाहिए, वह अपनी आचरण संहिता खुद बना सकता है।


लेखक बालेंदु शर्मा दाधीच स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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