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हे राम! महंगाई की मार अब हमारी पीठ और पेट की सीमा तोड़कर नसों में समाने लगी है। महंगाई अब तात्कालिक चिंता नहीं, स्थायी परिस्थिति बन गई है। हमने बहुत आश्वासन सुनें, बहुत उम्मीदें पालीं। सोनिया से लेकर मनमोहन सिंह तक से। हमें किस किसने क्या-क्या उम्मीदें नहीं बंधाई थीं? मोंटेक सिंह और प्रणब दा की तो बात ही छोड़ दीजिए। लेकिन हे राम! कोई असर नहीं पड़ा। महंगाई सुरसा के बदन की तरह हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जा रही है। महंगाई अब हमारी थाली ही नहीं खाली कर रही है, महंगाई अब हमारे सपने भी खाने लगी और सच तो यह है कि अभी हाल में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की निदेशक क्रिस्टीना लोगार्ड ने कहा है कि अगर महंगाई पर बहुत जल्द काबू न पाया गया तो यह दुनिया को गर्त में डुबो देगी। मगर आप उन कलियुगी अर्थशास्ति्रायों को क्या कहेंगे, जो अब भी गाहे बगाहे यह कहने से बाज नहीं आते कि महंगाई हमारी विकास दर की परिचायक हैं। हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स का कहना था कि अगर किसी झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच लगने लगता है। यह बात हमारे यहां महंगाई के मामले में बिल्कुल सही प्रतीत होती है।
महंगाई जिस तरह से तमाम आश्वासनों, वायदों और दावों के बीच बढ़ती जा रही है, एक बार बढ़ी तो पीछे मुड़ने का नाम नहीं ले रही। महंगाई पहले भी परेशान करती थी, मगर पहले वह बरसाती हवाओं की तरह आती थी। कुछ तंग किया, परेशान किया और फिर एक दिन चुपके से अपने जाने की तैयारी कर लेती थी। लेकिन पिछले तीन सालों से अजब खेल हो गया है। सरकारी आंकड़े, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भले आंकड़ों की जुगाली करके यह साबित करने की कोशिश करें की आय के मुकाबले या पिछले सालों के मुकाबले महंगाई ज्यादा नहीं बढ़ी, मगर आम आदमी का व्यावहारिक कड़वा अनुभव यह है कि महंगाई लगातार न सिर्फ बनी हुई है, बल्कि लगातार इसका ग्राफ ऊपर बढ़ता ही जा रहा है, जिससे अंदाजा लगता है कि पिछले तीन सालों से कैसे आम आदमी का जीवन कठिन से कठिनतर होता गया है। अगर मोटा मोटी, वह भी सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भी पिछले तीन सालों में जो आय बढ़ी है, वह महज 12 से 14 फीसदी औसतन ही बढ़ी है। वह भी निश्चित रूप से संगठित कामगारों की, जबकि इसी बीच महंगाई की दर में औसतन 77 फीसदी का और कुछ मामलों में तो 150 फीसदी तक का इजाफा हुआ है। हे राम! हम तो मानते थे कि सिर्फ रावण के ही 10 शीश और 20 भुजाएं थीं, लेकिन अगर गौर से देखें तो महंगाई का रावण उस दशानन से भी कहीं ज्यादा बड़ा और विस्तारित दिख रहा है।
महंगाई के इस रावण की तो सही मायनों में 100 भुजाएं हैं और 50 सिर। दरअसल, अगर हम पिछले तीन सालों में 100 उन चुनिंदा चीजों की सूची बनाएं, जिनका अधिकतर लोगों से पाला पड़ता है तो हमें साफ पता चलेगा कि किस तरह इन तमाम चीजों में पिछले तीन सालों के भीतर 150 फीसदी तक मूल्य बढ़ोतरी हुई है। आपको यकीन न आए तो बहुत आम और रोजमर्रा की जरूरतों वाली चीजों से शुरू करते हैं। तीन साल पहले एक लीटर दूध 20 से 22 रुपये के बीच में मिलता था। आज दूध 38 से 40 रुपये तक पहुंच गया है और सुनने में आ रहा है कि बहुत ही जल्द एक और बढ़ोतरी होने वाली है। हे प्रभु! आपको क्या बताएं अब तो यह भी नहीं याद कि पिछले तीन सालों में दूध के कितनी बार दाम बढ़े हैं। लेकिन जितनी बार भी बढ़े हैं, पिछले तीन सालों में सौ फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हो चुकी है। क्या तीन सालों में 18 से 20 फीसदी आय 100 फीसदी बढ़े दूध का मुकाबला कर सकती है? पेट्रो पदार्थ ढोने वाले वाहनों के पीछे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा होता है कि अति ज्वलनशील। लेकिन लगता है कि यह महज अपने गुण में ही ज्वलनशील नहीं है, बल्कि अपनी मूल्य बढ़ोतरी में उससे भी दो कदम आगे बढ़ गए हैं।
पेट्रोल तीन साल पहले 34-35 रुपये लीटर से आज बढ़कर 70 रुपये पहुंच गया है और 214 रुपये के आसपास से रसोई का गैस सिलेंडर बढ़कर इन सालों में करीब चार सौ रुपये पहुंच गया है और प्रभु इसके बाद भी अत्याचारी रावण सेना आम लोगों के सिर पर तलवार लटकाए है कि जल्द ही सिलेंडर का दाम 600 रुपये होने वाला है। प्रभु, भला ऐसी महंगाई से आम आदमी इस दशानन का मुकाबला करे तो कैसे करे? पिछले तीन सालों में जिन चीजों में 100 फीसदी से ज्यादा की मूल्य वृद्धि हुई है, उनमें 99.99 फीसदी ऐसी चीजें हैं जिनसे देश के हर गरीब-गुरबा से लेकर अमीर-उमरा तक का रोज का नाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि ये सब रोजमर्रा की खाने पीने की ही चीजें हैं। पिछले तीन सालों में गेहूं के आटे में 80 से 90 फीसदी तक, सब्जी में 125 से 200 फीसदी तक, दाल में 75 से 80 फीसदी तक, खाद्य तेलों में 60 से 70 फीसदी तक और फॉस्ट फूड में 150 से 200 फीसदी तक का इजाफा हुआ है। कुल मिलाकर औसतन पिछले तीन सालों में खाने पीने की चीजों में 150 फीसदी तक का सम्मलित इजाफा हुआ है। यह महज जेब से पैसा जाने की ही बात नहीं है प्रभु। असल बात यह है कि पिछले तीन सालों से महंगाई ने जो अपना तांडव नृत्य कर रखा है, उससे हिंदुस्तान में एक नए किस्म का सामाजिक ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है। पिछले तीन सालों में भले तकनीकी तौर पर सरकार न माने, लेकिन व्यावहारिक हकीकत यह है कि 15 से 20 फीसदी के बीच लोग सामान्य से बीपीएल सीमा में प्रवेश कर गए हैं। मतलब यह कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जो गरीबी रेखा और गरीबी रेखा से परे की बिल्कुल संधिकाल में खड़ा था और उम्मीद यह जताई जा रही थी कि आने वाले सालों में वह मध्यवर्ग के नजदीक पहुंच जाएगी, उसके सपनों का गर्भपात हो गया है।
भले अभी सरकारी आंकड़ों में दर्ज न हो, लेकिन पिछले तीन सालों में 18 से 20 फीसदी लोग एक नए बीपीएल वर्ग में शामिल हुए हैं, जो बाहर से दिखने में टिपटॉप लगते हैं। घर है, कई के पास गाड़ी है और उनका एक मध्यवर्गीय समाज का रुतबा भी है। लेकिन इस सबके बीच आर्थिक हैसियत यह है कि उन्हें अपने नियमित खानपान में कटौती करनी पड़ रही है। बच्चों के दूध से लेकर घर में हर हफ्ते आने वाले चिकन तक में पिछले तीन सालों में काफी बड़ी कटौती देखने को मिली है। जो शाकाहारी लोग पहले हफ्ते में एक दिन पनीर की सब्जी खाया करते थे, अब यह क्रम पखवाड़े के अंतराल में चला गया है। हे प्रभु! भले हमारी सरकार आंकड़ों की जुगाली करे और यह बताने की कोशिश करे कि ऐसा नहीं हुआ, लेकिन हकीकत यही है कि पिछले तीन सालों में तमाम आंकड़े अर्थहीन हो गए हैं। जो अंाकड़े इन सालों में उभरकर सामने आए हैं और काफी खतरनाक ढंग से हम पर शिकंजा कसा है, वे ये हैं कि पिछले तीन सालों में साढ़े चार लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की अतिरिक्त निकासी भारत के मध्य, निम्न मध्य और आम लोगों की जेब से हो गई है और इतनी बड़ी रकम का उन्हें कोई फायदा नहीं मिला। मतलब यह कि अगर तीन साल पहले की बात होती तो साढ़े चार लाख करोड़ रुपये की यह भारी-भरकम राशि भारत के 80 फीसदी से ज्यादा लोगों की जेब में एक अतिरिक्त पर्चेजिंग पॉवर के रूप में मौजूद होती या यों समझ लीजिए कि गुजरे तीन सालों में उसने जो कुछ उपभोग किया है, उसके इतर इतने रुपयों का उपभोग और कर सकती थी। लेकिन यह सारी सुविधा, ये सारा हो सकने वाला फायदा महंगाई खा गई। महंगाई को कुछ लोगों ने प्रभु सही ही डायन कहा है। अब हमें कतई नहीं लगता कि मनमोहन सेना में ऐसा कोई योद्धा है, जो इस खतरनाक डायन को मार सके। हे राम! पिछले तीन साल हम पर महंगाई का यह दशानन लगातार जुल्म ढा रहा है। पहले तो वह थोड़ा-बहुत लिहाज करता था, लेकिन अब तो जरा भी लिहाज नहीं करता और खुलेआम कहता है कि मुझसे तुम कोई नहीं बचोगे। हे प्रभु, हम आम हिंदुस्तानियों की कोई नहीं सुनेगा आपके सिवाय। इसलिए इस विजय दशमी को आइए और कलियुग के इस दशानन का अंत कीजिए। नहीं तो हमारा अंत हो जाएगा।
लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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