Menu
blogid : 5736 postid : 6316

सब्सिडी का औचित्‍य

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

लकड़ी चाहे कितनी ही मजबूत क्यों न हो, अगर उसमें घुन लग जाए तो अच्छी भली मजबूत लकड़ी भी खोखली हो जाती है। भारतीय लोकतंत्र के लिए सब्सिडी भी किसी घुन की तरह ही है। ऊपर से सब्सिडी भले हानिकारक न दिख रही हो, लेकिन वास्तविकता यही है कि यह लोकतंत्र को खोखला कर रही है। सब्सिडी को जिस तबके के लिए फायदेमंद बताया जाता है, यह उस तबके का भला नहीं करती। यह तो बिचौलियों के लिए मलाई जैसी होती है। सब्सिडी जन कल्याण का छलावा भर है।


Read:क्यों खो रहे हैं आपा नीतीश कुमार ?


भारत में लोगों को लगता है कि यहां जो सब्सिडी की व्यवस्था लागू है, वह गरीबों की हितैषी है, जबकि हकीकत यह है कि सरकार जितना सब्सिडी देती है, उससे ज्यादा राशि गरीबों और किसानों से महंगाई और भ्रष्टाचार के बहाने ले लेती है। जनता को मिलने वाला आर्थिक कल्याण या तो शून्य या फिर नकारात्मक साबित होता है। भारत में सब्सिडी के बहाने प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार का पोषण हो रहा है। सब्सिडी के जरिये एक तरफ सरकारी संसाधनों को अनुत्पादक बनाया जाता है तो दूसरी तरफ जनता के उत्पादक संसाधन को टैक्स के रूप में वसूल कर इसकी भरपाई की जाती है। यह कौन-सी नीति है। सब्सिडी के खतरे किसानों को उर्वरक, बिजली, कृषि ऋण जैसी लागतों पर सब्सिडी दी जाती है।


मगर समुचित मूल्य नीति के अभाव में खेती-किसानी के सभी उत्पादों को अवमूल्यित कर किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी दो प्रतिशत नकारात्मक हो जाती है। सबको मालूम है कि उर्वरक सब्सिडी का पिछले साठ सालों से उर्वरक कंपनियां फायदा उठा रही हैं। अगर हम बात करें निर्यात पर दी जाने वाली सब्सिडी की तो सब्सिडी के दायरे में आने वाले निर्यातित सामान विदेश भेजने के बजाय घरेलू बाजार में भेज दिए जाते हैं। सरकार कहती है कि वह पेट्रोलियम उत्पादों पर 45 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है, लेकिन इसका चार गुना पैसा वह टैक्स के रूप में जनता से वसूल लेती है। उसी तरह पेट्रोल उपभोक्ताओं को डीजल और एलपीजी का घाटा वहन करना पड़ता है।


केरोसिन पर सरकार सब्सिडी देती है, लेकिन वह ग्रामीण बाजार के अलावा शहरों में या तो डीजल में मिलाया जाता है या खाना पकाने के लिए ब्लैक में बेचा जाता है। अगर सरकार सभी तरह की सब्सिडी खत्म कर दे और इन पर लगाए जाने वाले करों को युक्तिसंगत बनाकर इन पर लागू टैक्स मूल्य के बजाय भार आधारित कर दे तो इससे उपभोक्ता को एक नियत और स्थिर मूल्यों पर पेट्रो उत्पाद प्रदान किए जा सकते हैं। सब्सिडी के इतर सरकारों द्वारा चुनाव के वक्त स्फीतिकारी आर्थिक घोषणाओं के जरिये अर्थव्यवस्था का कैसे नुकसान पहुंचाया जाता है, इसकी सबसे बड़ी बानगी 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली, जब संप्रग सरकार ने 70 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी, 40 हजार करोड़ रुपये लागत वाली अनुत्पादक मनरेगा और एक लाख करोड़ के भार वाले छठे वेतन आयोग की अनुशंसा की।


इस तरह की लोक लुभावनी घोषणाओं से संप्रग दोबारा सत्ता में तो आ गया, लेकिन देश का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत से बढ़कर 6.5 प्रतिशत हो गया। इसका नतीजा सबके सामने है। मुद्रास्फीति बीस प्रतिशत तक गई। खाद्यस्फीति तीस प्रतिशत तक गई और महंगाई का दावानल लगातार तीन सालों से देश की 120 करोड़ जनता को झुलसा रहा है। इसके विपरीत 2004 का लोकसभा चुनाव देखिए, राजग ने बिना किसी लुभावनी स्कीम के साथ मैदान में उतरा और वह चुनाव हार गया। राजग ने इन चुनावों में कोई लोक-लुभावन घोषणा नहीं की थी। टैक्स का बोझ कम हो आज मनरेगा के जरिये गांवों में पैसे की लूट हो रही है, पर देश के 10 करोड़ बूढ़ों को महज 200 रुपये मासिक पेंशन देकर टरका दिया जाता है। वह भी हर छह महीने बाद मिलती है। आखिर यह कौन-सा आर्थिक लोकतंत्र है। अगर देश में किसानों को कुछ न दिया जाए, उन्हें केवल उनके उत्पादों का लागत मूल्य दे दिया जाए तो उनकी बहुत बड़ी सेवा होगी। उन्हें उर्वरक, बीज-पानी देकर भ्रष्टाचार का कुनबा तैयार करने की कोई जरूरत नहीं है।


वैसे भी खाद्य सब्सिडी के जरिये सरकार कृषि को तबाह कर रही है। पीडीएस प्रणाली के जरिये एक तरफ सरकार टैक्स के रूप में मिले जनता के पैसे को सब्सिडी पर बहा रही है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार का नया भस्मासुर पोषा जा रहा है। उत्तर प्रदेश और अरुणाचल में लाखों करोड़ रुपये के खाद्यान्न घोटाले इसी नीति के नतीजे हैं। सरकार गरीबों को सस्ता राशन देने को तैयार है, लेकिन उनकी क्रयशक्ति बढ़ाने को तैयार नहीं है। उपभोग हमेशा उपभोक्ता की मनमर्जी के मुताबिक होना चाहिए। हम यह पैसा ग्रामीण पूंजीगत व सामाजिक आधारभूत सुविधाओं पर खर्च करें तो यह बिना सब्सिडी के एक उत्पादक अर्थव्यवस्था का सूत्रपात करेगा। सरकार सभी तरह की सब्सिडी बंद करे। सभी अनुत्पादक रोजगार योजना बंद करे। सामाजिक और पूंजीगत संरचना पर निवेश बढ़ाए। सामाजिक सुरक्षा की योजना को व्यापक करे।


करों को युक्तिसंगत बनाए। कृषि को लाभकारी पेशा घोषित करे। सभी कृषि उत्पादों का न्यूनतम और अधिकतम मूल्य घोषित करे। देश के सभी मजदूरों को महंगाई सूचकांक से जोड़े और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को आपदा संकट व देश के दूरदराज तथा आदिवासी इलाकों के लिए सुरक्षित रखे। सभी सरकारी खर्चो का इकोनॉमिक व सोशल ऑडिट करे। ये सारे कदम तभी सुनिश्चित होंगे, जब हम लोकलुभावन अर्थवस्था के बजाय इसे बुनियादी रूप से मजबूत बनाएंगे। यही कदम आम आदमी की आर्थिक खुशहाली को सुनिश्चित करेंगे और इन कदमों से भ्रष्टाचार पर बहुत बड़ी नकेल पड़ेगी। हमें यह मान लेना होगा कि वर्ग आधारित भावुक राजनीति भारतीय लोकतंत्र का हमेशा नुकसान करेगी। उसी तरह से वोट कैचिंग लुभावनी आर्थिक घोषणाएं जनता पर महंगाई भ्रष्टाचार का वार करेंगी। ये चीजें अल्पकाल में भोलीभाली जनता को तो आनंद देती हैं, लेकिन दीर्घकाल में रुलाने का काम करती है। यदि हम देश का लंबे समय तक बेहतर राजनीतिक आर्थिक स्वास्थ्य चाहते हैं तो हमें सब्सिडी के घुन से देश को बचाना होगा। यथास्थितिवादियों को यह बात नागवार लगेगी, लेकिन परिवर्तनशील विचारधारा की संतुष्टि के लिए यह जरूरी है कि इसे अमली जामा पहनाया जाए।नहीं तो मौजूदा स्थितियां हमारे लिए शासन को सुशासन के बजाय कुशासन में बदलेंगी। किसान गरीब होंगे और गरीब हाशिये पर चले जाएंगे। ऐसे में शासक वर्ग लोकतंत्र की उपस्थित में भी निरंकुश बना रहेगा।

लेखक मनोहर मनोज स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read:अब तो भाजपा एक स्वर में बोले नहीं तो……


Tag:India,Subsidy,Petroleum,LPG,Diesel,Kerosene,Pension,PDS,सब्सिडी,भ्रष्टाचार,सरकार,एलपीजी, केरोसिन, अर्थव्यवस्था

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh