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समर्पण की खतरनाक मुद्रा

जागरण मेहमान कोना
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Prakash Singhवर्ष 2011 में भारत सरकार को नक्सल विरोधी अभियान में उल्लेखनीय सफलता मिली थी, यद्यपि उसका समुचित प्रचार नहीं हुआ। नक्सल प्रभावित जनपदों की संख्या 223 से घटकर 182 हो गई है। इसके अलावा हिंसा की घटनाओं की संख्या में भी महत्वपूर्ण गिरावट हुई-2010 में 2213 के विरुद्ध 2011 में केवल 1745 घटनाएं हुई। नक्सल हिंसा में मारे जाने वालों की संख्या 2010 में 1005 के विरुद्ध 2011 में केवल 606 रही। 2010 में 285 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे, 2011 में यह संख्या घटकर 142 हो गई थी। रेलवे पर 2010 में 54 हमले हुए थे, जबकि 2011 में इस प्रकार की केवल 31 घटनाएं हुई। नक्सल नेतृत्व को भी भारी क्षति हुई थी। पोलित ब्यूरो के 16 सदस्यों में दो (आजाद और किशन) मारे गए, जबकि सात अन्य सदस्य पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए। केंद्रीय समिति के भी 39 सदस्यों में पांच मारे गए और 13 गिरफ्तार हुए। शीर्ष नेतृत्व के इतने सदस्यों का मारा जाना या गिरफ्तार होना नक्सलियों के लिए बहुत बड़ा धक्का था। 2012 के मार्च महीने में सुरक्षा बलों ने एक ऐसा काम भी किया जो अभी तक कभी नहीं हुआ था। छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ क्षेत्र में, जिसका क्षेत्रफल लगभग 4000 वर्ग किमी है, सीआरपीएफ के दस्तों ने पहली बार अभियान चलाया।


नक्सलवाद का नासूर


उल्लेखनीय है कि अबूझमाड़ क्षेत्र को नक्सली अपना मुक्त क्षेत्र कहते थे। इस क्षेत्र का राज्य सरकार के पास कोई आधिकारिक नक्शा भी नहीं है। संपूर्ण क्षेत्र में सरकार का न तो कोई दफ्तर है, न पुलिस का कोई थाना है। जनजातियां वहां भगवान के भरोसे रहती हैं। सुरक्षा बलों के वहां जाने से नक्सली घबराकर उस क्षेत्र से भाग गए। कुल मिलाकर नक्सल विरोधी अभियान अच्छी तरह चल रहा था। इस बीच ओडिशा में जो घटनाक्रम हुआ उससे नक्सलियों के हौसले बुलंद हुए। 14 मार्च को इटली के दो नागरिकों का कंधमाल जनपद में अपहरण हुआ और उसके दस दिन बाद 24 मार्च को बीजू जनता दल के विधायक झिन्न हिक्का का कोरापुट जनपद से अपहरण हुआ। ओडिशा सरकार ने पहले दिन से ही कमजोरी दिखाई। नक्सलियों से सौदेबाजी होने लगी। अंततोगत्वा इटली के दोनों नागरिक छोड़ दिए गए।


विधायक भी 26 अप्रैल को इस शर्त पर छोड़ दिए गए कि वह विधानसभा से इस्तीफा दे देंगे। ओडिशा की घटनाओं से सरकार ने कोई सबक सीखा हो या न सीखा हो, परंतु नक्सलियों ने अवश्य सीख लिया। उन्होंने यह देखा कि अपनी मांगों को मनवाने का, अपने सहयोगियों को जेल से छुड़वाने का और उनके विरुद्ध अभियोगों को खत्म कराने का सबसे आसान उपाय किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का अपहरण करना है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए न तो अदालत जाने की जरूरत है, न जेल तोड़ने की कोई आवश्यकता है और न ही सुरक्षा बलों से कोई टक्कर लेने की। राज्य सरकार में लड़ने का दमखम नहीं है और वह बड़ी आसानी से झुक जाती है। इसी सबक को सीखते हुए नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का 21 अप्रैल को अपहरण किया। कलेक्टर को छोड़ने के लिए मांग है कि आठ कुख्यात नक्सली रिहा किए जाएं और नक्सल विरोधी अभियान बंद किया जाए। संतोष का विषय है कि छत्तीसगढ़ सरकार सुनियोजित ढंग से स्थिति का सामना कर रही है। अपहरण से जब कोई गंभीर स्थिति बनती है तो उससे निपटने के लिए क्या नीति अपनाई जानी चाहिए, इसे केंद्र सरकार ने अभी तक परिभाषित नहीं किया। 1989 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री की पुत्री रुबैया सईद का कश्मीर में अपहरण हुआ था। स्थिति से निपटने के बजाय तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने घुटने टेकते हुए चार कुख्यात आतंकवादियों को रिहा कर दिया था। फलस्वरूप घाटी में स्थिति और बिगड़ गई।


नक्सलियों के प्रति नजरिया बदलें


दस वर्ष बाद 1999 में जब इंडियन एयरलाइंस का जहाज हाईजैक हुआ, तब बाजपेयी की सरकार ने एक शर्मनाक समझौता करते हुए कुख्यात आतंकवादियों को रिहा कर दिया। उनमें एक मौलाना मसूद अजहर था, जिसने बाद में जैश-ए-मोहम्मद संगठन खड़ा किया और कश्मीर में कहर ढाया। बड़े खेद की बात है कि इतनी बड़ी-बड़ी घटनाओं के होने के बावजूद भी केंद्र सरकार ने इस विषय पर कोई नीति-निर्देश नहीं दिए हैं। आश्चर्य है कि एनएसजी का प्रयोग अपहृत व्यक्तियों को बचाने के लिए अभी तक क्यों नहीं किया गया? दुर्भाग्य से इसका आजकल केवल वीवीआइपी सुरक्षा में दुरुपयोग हो रहा है।


राज्य के अभिसूचना विभाग और केंद्र के इंटेलीजेंस ब्यूरो के पास कुछ तो खबर होगी कि आखिर कलेक्टर साहब को कहां रखा गया है? कुछ लोग यह कह सकते हैं कि ऐसी कार्रवाई में कलेक्टर की जान जा सकती है। हर आपरेशन में खतरा तो होता ही है। जिन सरकारों में दम है वे खतरा उठाती हैं। जब अमेरिका के सील कमांडो एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मारने गए थे तो राष्ट्रपति ओबामा और उनके सभी उच्च अधिकारी चिंतित थे कि अभियान सफल होगा या नहीं? अगर सरकार पहले दिन से ही लेट जाए तो विद्रोही या आतंकवादी संगठन सदैव लाभ उठाएंगे और हावी होते जाएंगे। आज आवश्यकता है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार और भारत सरकार तय कर लें कि नक्सलियों के आगे नहीं झुकना है। नक्सलियों को चेतावनी दे दी जाए कि यदि कलेक्टर को कोई क्षति होती है तो उसके लिए नक्सली पूरी तरह से जिम्मेदार होंगे। कलेक्टर की जान कीमती है और उन्हें सुरक्षित बचाने का हरसंभव प्रयास होना चाहिए, परंतु इस प्रयास में राज्य की सुरक्षा, पुलिस और अर्धसैनिक बलों का मनोबल और देश की प्रतिष्ठा को दांव पर नहीं लगाया जा सकता।


आंतरिक सुरक्षा के विशेषज्ञ हैं


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