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भारतीय क्रिकेट जगत में मंसूर अली खान पटौदी के योगदान को रेखांकित कर रहे है स्वप्न दासगुप्ता
मंसूर अली खान या पटौदी के नवाब का सौभाग्य है कि उन्होंने छठे और सातवें दशक में क्रिकेट खेला। अगर वह आज के माहौल में खेलते तो संभवत: हम उन्हे क्लब के कुछ गेम और संभवत: रणजी मैच ही खेलते हुए देख पाते। वह भारतीय टेस्ट टीम में शायद जगह नहीं बना पाते। यह आकलन बेहद तीखा और अनुचित लग सकता है, किंतु अब जो भयावह हालात है उनमें ऐसे व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं है जिसने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा में स्टाइल और रणनीतिक चतुराई को मिलाकर एक कुशल व सफल कप्तानी का दायित्व निभाया। टाइगर पटौदी उस समय चमके जब क्रिकेट प्रतिस्पर्धी तो होने लगा था, किंतु फिर भी था भ्रदजनों का ही खेल। उस युग में जब भद्रजन और खिलाड़ी के बीच भेद बस लॉर्ड्स के मैदान पर अलग-अलग चेंजिंग रूम तक सीमित था और यह रवैये के बड़े सवाल तक नहीं पहुंचा था, तब पटौदी ने विशुद्ध शाही अंदाज में क्रिकेट मैच को महज हार-जीत के सवाल से ऊपर उठाने का साहस दिखाया। संभवत: उन्हे ऐसा करना ही था। उन दिनों क्रिकेट के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड थे। दुर्भाग्य से दक्षिण अफ्रीका खुद को जख्मी करके क्रिकेट जगत से बाहर हो गया था। वेस्टइंडीज इस खेल को जोशीला बनाने में अपना योगदान दे रहा था। और भारत? उसे तो जैसे हारने की आदत पड़ चुकी थी।
भारत में टेस्ट मैचों के दौरान खचाखच भरे स्टेडियमों में दर्शक घरेलू टीम के जीतने की उम्मीद ही नहीं पालते थे। अगर जीत मिल जाए तो उनकी किस्मत! वे तो बस कुछ खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन से ही संतुष्ट हो जाते थे। एवर्टन वीक्स का गेंद को मैदान के बाहर भेजना, रोहन कनहाई का ट्रेडमार्क हुक शॉट, कोलिन काउड्रे की कलात्मक बल्लेबाजी और रे लिंडवाल और एनल डेविडसन की धारदार गेंदबाजी देखने के लिए ही भारतीय दर्शक मैदान में पहुंचते थे। उत्साही भारतीयों के लिए मैच का फैसला कोई मायने नहीं रखता था। करीब-करीब हर बार ही भारतीय टीम दूसरी सर्वश्रेष्ठ टीम के रूप में सामने आती थी। पहली नजर में यह चमत्कार ही लगता है कि दशकों तक विपरीत परिणामों के बावजूद भारतीय क्रिकेट जिंदा बच सका। उदाहरण के लिए 1970 के दशक के बाद भारतीय हॉकी की दुर्दशा शुरू होते ही दर्शकों और प्रायोजकों ने इससे किनारा करना शुरू कर दिया?था। क्रिकेट की लोकप्रियता इस तथ्य पर टिकी थी कि यह एक टीम गेम होने के साथ-साथ व्यक्तिगत खेल भी है। इसके अलावा, यह उस लोकाचार की उपज था, जो तमाम साम्राज्यविरोधी आग्रहों के बावजूद उस भूमि की संस्कृति के प्रति हमारे अंतर्मन में आदरभाव से विकसित हुआ था, जिसने कभी हम पर शासन किया था। कोई चार दशक पहले तक क्रिकेट का खेल उस क्रिकेट से सर्वथा भिन्न था, जो इसके आर्थिक केंद्र लॉर्ड्स से बदलकर मुंबई होने के बाद से समृद्ध हुआ है। यह अधिकारियों का खेल था, न कि कर्मचारियों या फिर प्रायोजकों का।
टाइगर पटौदी भारतीयों की छवि में बसे आदर्श क्रिकेटर के ढांचे में फिट बैठते थे। 1961-62 में टेस्ट पदार्पण के समय ही वह विंचेस्टर, ऑक्सफोर्ड और ससेक्स जैसी आदर्श टीमों में साथ खेल चुके थे। वह हमारे पीटर मे, हमारे टेड डेक्सटर थे। वह हमारे अंग्रेज थे। रणजीत सिंह और उनके भतीजे दलीप के बाद से हमने ऐसी शख्सियत नहीं देखी थी। नवाब पटौदी सीनियर संभवत: एक आदर्श हो सकते थे, किंतु दुर्भाग्य से उनका क्रिकेट कैरियर बहुत छोटा रहा। टाइगर उसी परंपरा के वाहक थे। परिस्थितियों के कारण पटौदी की ख्याति और बढ़ गई। चार्ली ग्रिफिथ की गेंद से गंभीर रूप से घायल नारी कांट्रेक्टर का कैरियर असमय खत्म होने पर उनके उत्तराधिकारी का स्थान लेने के लिए पाली उमरीगर, विजय मांजरेकर और चंदू बोर्डे जैसे खिलाड़ी उपलब्ध थे। 1962 के वेस्टइंडीज दौरे पर क्रिकेट बोर्ड ने पटौदी को उपकप्तान बना दिया। इस पद पर उनकी तैनाती उन्हे अनुभव दिलाने के लिए की गई थी ताकि वह भविष्य में टीम की कमान संभाल सकें। तब किसी ने अनुमान नहीं लगाया था कि कांट्रेक्टर प्रतिस्पर्धी क्रिकेट से हमेशा के लिए बाहर हो जाएंगे और महज 21 साल की उम्र में दस टेस्ट मैच खेलने वाले पटौदी क्रिकेट टीम के कप्तान बन जाएंगे। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि पटौदी समय से पहले महज नेतृत्व क्षमता के कारण कप्तान बन गए, बल्कि यह है कि उन्होंने निराश नहीं किया। एक आंख के नुकसान के बावजूद वह उन गिने-चुने भारतीय बल्लेबाजों में से है, जो तेज गेंदबाजी को सहजता से खेलने में सक्षम थे। वह एक ऐसी टीम में गजब के क्षेत्ररक्षक थे, जिसमें खिलाड़ी गेंद के पीछे भागने में यकीन नहीं रखते थे। इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने उपलब्ध संसाधनों के सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल करने की कला में महारत हासिल कर ली थी।
यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जब अधिकांश टीमों में तेज और स्पिन गेंदबाजी का संयोजन रहता है, जबकि भारतीय टीम में स्पिन और केवल स्पिन ही मिलती थी। और जैसाकि प्रसन्ना, चंद्रशेखर, बेदी और वेंकटराघवन स्वीकार करेगे कि कोई भी कप्तान स्पिनरों का टाइगर से बेहतर इस्तेमाल करना नहीं जानता था। वह स्पिनरों के आदर्श कप्तान थे, जो धौनी साफ तौर पर नहीं है। वह कप्तानी की कला जानते थे। जिस जमाने में उन्होंने भारतीय क्रिकेट टीम का नेतृत्व किया वह अलग युग था। टाइगर पटौदी की खेल की समझ और स्टाइल, दोनों बिल्कुल अंग्रेजी थे, जो आज के तिकड़मी और भड़काऊ भारत में फिट नहीं बैठते। टाइगर के साथ ही भारत ने केवल एक महान क्रिकेटर ही नहीं खो दिया, बल्कि भद्र खेल के रूप में क्रिकेट के अवसान को भी महसूस किया।
लेखक दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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