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वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी समेत ब्राजील, चीन तथा रूस के वित्तमंत्रियों ने कहा है कि हम यूरोप के संकट को टालने में मदद करने को तैयार हैं। ग्रीस की अर्थव्यवस्था पिछले लगभग एक वर्ष से संकट में है। पुर्तगाल, स्पेन, आयरलैंड एवं इटली भी कमोबेश संकट की ओर बढ़ रहे हैं। ग्रीस की सरकार ने भारी मात्रा में ऋण लिए हैं। सरकार के पास इन ऋणों का भुगतान करने को रकम नहीं है। जर्मनी समेत यूरोप के प्रमुख देशों ने ग्रीस को सौ अरब डालर का ऋण उपलब्ध कराया है, परंतु संकट थम नहीं रहा है। अत: भारत आदि देशों से सहायता की गुहार की जा रही है।
ग्रीस के संकट का मूल कारण है सरकार की आय कम और व्यय ज्यादा होना। इस घाटे की पूर्ति के लिए दूसरे यूरोपीय देशों ने ऋण दिए थे। उन्होंने साथ में शर्त लगाई थी कि ग्रीस की सरकार अपने घाटे को कम करेगी। सरकारी कर्मियों के वेतन और जनता को मुहैया कराई जाने वाली सुविधाओं में कटौती की जाएगी, परंतु इन कटौतियों के विरोध में ग्रीस की जनता सड़कों पर उतर आई है। सरकारी कर्मचारी, टैक्सी ड्राइवर इत्यादि बार-बार हड़ताल पर जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सरकार का घाटा नियंत्रित होता नहीं दिखता है।
ग्रीस की सरकार की इस असफलता की जड़ें यूरोपीय संघ के मूल ढांचे में है। यूरोपीय संघ ने साझा मुद्रा यूरो को अपनाया है। इस कारण ग्रीस की सरकार के पास मुद्रा को छापकर घाटे को नियंत्रित करने का विकल्प नहीं रह गया है। सरकार के पास केवल टैक्स लगाने तथा खर्च में कटौती के वित्तीय उपाय ही बचे हैं। इन्हें लागू करना कठिन होता है। सरकारी घाटे को मौद्रिक अथवा वित्तीय पॉलिसी-दोनों से ही नियंत्रित किया जा सकता है। मान लीजिए सरकार की आय 100 रुपये तथा खर्च 110 रुपये है। दस रुपये के इस घाटे को पार लगाने का मौद्रिक विकल्प है कि सरकार 10 रुपये के नोट छाप ले। दस रुपये के इन नोटों से बाजार में उपलब्ध माल को खरीद ले। अब जनता के हाथ में 100 रुपये की क्रय शक्ति पूर्ववत रहेगी, परंतु बाजार में केवल 90 रुपये का ही माल बचेगा। इससे सब तरफ महंगाई में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी। महंगाई का यह प्रभाव देश के सभी नागरिकों पर पड़ेगा। किसी विशेष करदाता पर टैक्स नहीं बढ़ाना होगा और न ही किसी विशेष कर्मी के वेतन घटाने होंगे। जैसे सूर्य तालाब से धीरे-धीरे पानी उठा लेता है वैसे ही नोट छापने से जनता की क्रयशक्ति चुपके से कम हो जाती है। भारत में 1991 में मुद्रा का अवमूल्यन इसी प्रकार हुआ था और सरकारी घाटा बिना किसी उपद्रव के नियंत्रण में आ गया था।
वित्तीय पॉलिसी का क्रियान्वयन तुलना में स्पष्ट एवं सीधा होता है। आय को बढ़ाने के लिए किन्हीं विशेष लोगों पर टैक्स लगाना होता है। इससे जनता में असंतोष फैलता है जैसे हाल ही में भारत में पेट्रोल अथवा रसोई गैस के दाम में वृद्धि होने पर जनता सड़क पर उतर आई थी। खर्च घटाने के लिए सरकारी कर्मियों की छंटनी तथा उनके वेतन में कटौती करनी होगी। इसका विरोध सरकारी कर्मी हड़ताल के माध्यम से करते हैं। इसलिए वित्तीय नीति के माध्यम से घाटे को नियंत्रित करना कठिन होता है। यूं समझें कि सूरज की गर्मी बढ़ रही हो तो सभी परेशान होने के बावजूद चुपचाप सहन करते हैं, परंतु पंखा बंद करने से लगने वाली गर्मी का विरोध तत्काल होता है। इसी तरह महंगाई एवं मुद्रा के अवमूल्यन को लोग स्वीकार कर लेते हैं, परंतु टैक्स आरोपित करने अथवा वेतन में कटौती का पुरजोर विरोध करते हैं।
ग्रीस समेत यूरोप के सभी देशों की मौलिक समस्या यह है कि उनके हाथ से घाटा नियंत्रित करने का मौद्रिक पॉलिसी का आसान अस्त्र छीन लिया गया है। उनके हाथ में एकमात्र अस्त्र वित्तीय पॉलिसी का है, जिसे लागू करना कठिन होता है। इस समस्या का समाधान यूरोपीय संघ का विघटन है। तब ग्रीस की अपनी मुद्रा होगी जिसका अवमूल्यन करके ग्रीस समस्या से उबर सकता है। यूरोपीय देश खुला बाजार बनाए रख सकते हैं, जैसा कि फ्री ट्रेड समझौते के अंतर्गत किया जाता है। वे समान मानक बना सकते हैं। वे अपने नागरिकों को दूसरे देश में पलायन का अधिकार दे सकते हैं, परंतु मौद्रिक पॉलिसी पर अपना अधिकार छोड़ देने से सरकार की स्वतंत्रता बहुत कम हो जाती है।
इस पृष्ठभूमि में हमारे वित्त मंत्री द्वारा ग्रीस को मदद करने की पहल पर पुनविर्चार करना चाहिए। पश्चिमी देशों का दबाव है कि भारत आदि देश ग्रीस की मदद करें, जिससे भारत के पारंपरिक बाजार जीवित रहें और निर्यात प्रभावित न हों। यह उसी तरह हुआ कि राजा साहब ग्रामीण लोगों को कहें कि वे जमींदार की मदद करें, जिससे उनके द्वारा उत्पादित दूध सब्जी की खरीद होती रहे। इस बात को राजा साहब छिपा जाते हैं कि जमींदार की मदद करने से ग्रामीण सदा गरीब बने रहेंगे। आज जरूरत पश्चिमी देशों की ऊंची खपत को घटाने की है। विकसित देशों में रहने वाले 25 प्रतिशत लोग वर्तमान में 75 प्रतिशत संसाधनों की खपत कर रहे हैं। इस विसंगति को दूर करने के लिए जरूरी है कि विकसित देशों की खपत में कटौती हो। यह कटौती यूरोप आदि के संकटग्रस्त होने से हो जाएगी। मेरी भावना विकसित देशों के प्रति क्रोध की नहीं है। मैं तो बस यही चाहता हूं कि विकसित देश स्वयं इस समस्या को पहचानें और दूर करें, परंतु उनके द्वारा इस ओर कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। अत: विकासशील देशों को सर्जरी करनी होगी।
भारत द्वारा ग्रीस की सरकार की ओर से जारी बांड को खरीदना इसलिए भी उचित नहीं है कि इसमें भारी घाटा होने की पूरी संभावनाएं हैं। ग्रीस सरकार के दीवालिया होने पर ये रद्दी कागज के टुकड़े मात्र रह जाएंगे। अत: ग्रीस, यूरोप एवं अमेरिका को मदद करने के स्थान पर भारत को ब्राजील, चीन तथा रूस के साथ मिलकर इन देशों के कद को छोटा करने का प्रयास करना चाहिए। वित्त मंत्री ने साथ-साथ निराशा जताई है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं द्वारा विकासशील देशों को दी जाने वाली मदद कम है तथा इन सेवाओं में विकासशील देशों की भागीदारी भी कम है। वित्तमंत्री को समझना चाहिए कि मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं में सुधार भिक्षा मांगने से नहीं होगा। पश्चिमी देशों के संकटग्रस्त होने से इन संस्थाओं का दबाव स्वत: समाप्त हो जाएगा। तब ही नए वैश्विक ढांचे का निर्माण संभव होगा।
लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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