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गेहूं के भंडारण की समस्या से निपटने के जो सुझाव सामने आ रहे हैं उनकी सार्थकता जांच रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला
इस वर्ष गेहूं की रिकॉर्ड फसल होने से भंडारण की समस्या खड़ी हो गई है। पिछले वर्ष खाद्य निगम के गोदाम में 3000 टन गेहूं बरसात में नष्ट हो गया था। इस वर्ष इससे अधिक नुकसान की आशंका है। सरकार का प्रयास है कि देश की खाद्यान्न भंडारण क्षमता बढ़ाई जाए। यह विचार सही दिशा में है, परंतु इससे समस्या का समाधान होने की संभावना कम ही है। इसका कारण यह है कि सिंचाई एवं रासायनिक खाद केइस्तेमाल से उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की संभावना है। फैक्ट्री के बढ़ते उत्पादन को गोदाम की क्षमता बढ़ाकर रखे रहने से समस्या बढ़ती है। ब्याज का खर्च बढ़ता है। माल की गुणवत्ता घटती है। फैक्ट्री घाटे में जाती है। माल न बिके तो उत्पादन में कटौती की जाती है। इसी प्रकार जरूरत भर के बफर स्टाक का ही भंडारण करना चाहिए। गेहूं के अधिक उत्पादन से दूसरी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। जिन स्थानों पर किन्हीं कारणों से सरकारी खरीद नहीं हो पा रही है, वहां के किसानों को आढ़तियों से कम दाम मिल रहे हैं। सरकार पर फर्टिलाइलर, डीजल और बिजली सब्सिडी का बोझ बढ़ रहा है।
भूमिगत पानी का अति दोहन हो रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1989 तथा 1999 के बीच डार्क ब्लॉकों की संख्या 253 से बढ़कर 428 हो गई थी। डार्क ब्लॉक उन्हें कहा जाता है जिनमें भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिरता है। रासायनिक खाद के अति उपयोग से भूमि की दीर्घकालीन उत्पादकता गिर रही है। भूमि में आर्गनिक तत्वों की मात्रा कम हो रही है जैसे सड़ी हुई पत्तियों इत्यादि की। भूमि की उर्वरकता बनाए रखने वाले कीटाणुओं के लिए आर्गनिक तत्व आवश्यक होते हैं। सिंचाई में बिजली के अधिक उपयोग से बिजली बोडरें और राज्य सरकारों की वित्तीय हालत खस्ता होती जा रही है। पानी निकालने में डीजल का अधिक प्रयोग होने से आयातित तेल पर देश निर्भर होता जा रहा है और हमारी आर्थिक स्वतंत्रता भी खतरे में है। खाद्यान्न, बिजली और खाद सब्सिडी पर अधिक खर्च होने से सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो रही है। ये सब दुष्प्रभाव सहज ही स्वीकार होते यदि खाद्यान्न की कमी होती, परंतु खाद्यान्न के अनावश्यक अधिक उत्पादन के लिए इन दुष्प्रभावों को वहन करना अनुचित है। गेहूं के विशाल भंडारण के निस्तारण का सुझाव दिया जा रहा है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत लाभार्थियों का कोटा बढ़ा दिया जाए। यह हल सफल नहीं होगा। जितना खाद्यान्न सार्वजनिक वितरण प्रणाली से वितरित किया जाएगा उतनी ही मांग बाजार में कम हो जाएगी, जैसे गृहिणी को जितनी सब्जी खेत से मिल जाती है, उतनी ही बाजार से खरीद घट जाती है।
गेहूं की कुल खपत में वृद्धि नहीं होगी। दूसरा सुझाव है कि मांस की खपत को बढ़ाया जाए। यह सर्वथा अनुचित है। सीधे खाने से एक किलो अनाज से 24,150 कैलोरी ऊर्जा उत्पन्न होती है। उसी अन्न को पशुओं को खिलाकर बने मांस को खाने से केवल 1,140 कैलोरी ऊर्जा उत्पन्न होती है। यानी शाकाहार की तुलना में मांसाहार में भूमि और पानी का लगभग दस गुना उपयोग होता है। मांस की खपत समाज के ऊपरी वर्ग द्वारा ज्यादा होती है। आम आदमी और अमीर के बीच खाई बढ़ती है। तीसरा सुझाव है कि अधिक उत्पादन का निर्यात कर दिया जाए। यह सुझाव भी घातक है। इस सुझाव को अपनाने से देश के अमीरों केस्थान पर विदेशी अमीरों द्वारा खपत की जाएगी। पर्यावरण की क्षति पूर्ववत बनी रहती है। निर्यात का अर्थ हुआ कि भारत सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी का लाभ विदेशी क्रेता को मिलेगा। भारत सरकार द्वारा सब्सिडी देने के लिए टैक्स वसूला जाता है। यानी निर्यात के माध्यम से भारत सरकार अपने नागरिकों पर टैक्स लगाकर विदेशी नागरिकों की खपत पर सब्सिडी दे रही है। चौथा सुझाव है कि नगद फसलों का उत्पादन बढ़ाया जाए, जैसे गन्ना, मेंथा, गुलाब अथवा रेशम का। ऐसा करने में भारत सरकार पर सब्सिडी का बोझ नहीं घटता है। इन फसलों के उत्पादन में उपयोग हुए डीजल, बिजली तथा खाद पर सब्सिडी जारी रहेगी।
भूमिगत जल तथा भूमि की उर्वरकता के Oास की समस्याएं भी बनी रहेंगी। अंतर मात्र इतना होगा कि लाभ में भारतीय किसानों का हिस्सा कुछ अधिक होगा, जिसका स्वागत है, परंतु सब्सिडी और पर्यावरण का यहां हल नहीं है। पांचवां सुझाव है कि गेहूं के स्थान पर बायोडीजल का उत्पादन बढ़ाया जाए। भारत सरकार द्वारा बायोडीजल को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। तेल कंपनियों को कहा गया है कि वे डीजल में कुछ प्रतिशत बायोडीजल अनिवार्य रूप से मिलाएं। इस सुझाव में भी असमानता और पर्यावरण की समस्या पूर्ववत बनी रहती है। उत्पादित बायोडीजल का भी प्रयोग मुख्यत: अमीरों द्वारा ही किया जाता है। उपरोक्त सुझावों से तीन प्रमुख समस्याओं का हल नहीं होता है। एक, उत्पादित माल की अमीरों द्वारा खपत बढ़ती है जिससे असमानता में वृद्धि होती है। दो, भूमिगत जल और भूमि की उत्पादकता का Oास हो रहा है। तीन, भारत सरकार पर बिजली, डीजल और फर्टिलाइजर पर दी जा रही सब्सिडी का बोझ बना रहता है। सरकार के विचाराधीन इन पांच सुझावों के स्थान पर खाद्यान्न का उत्पादन घटाना चाहिए और गरीबों व धरती को राहत देनी चाहिए। सुझाव इस प्रकार है। डीजल, बिजली और खाद पर दी जा रही सब्सिडी को समाप्त कर दिया जाए। सब्सिडी से बची रकम को सभी परिवारों को नगद वितरित कर दिया जाए।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी पूर्णतया समाप्त कर दिया जाए। ऐसा करने से खाद्यान्न की उत्पादन लागत बहुत बढ़ेगी। इस बढ़े हुए दाम पर खाद्यान्न खरीदा जाए। ऐसा करने से किसानों पर तनिक भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा, बल्कि उन्हें लाभ ही होगा। सब्सिडी की जो मात्रा कंपनियों के अकुशल उत्पादन, खाद्य निगम के भ्रष्टाचार एवं प्रशासन में खप रही है वह बच जाएगी। वर्तमान में गेहूं की लागत 10 रुपये प्रति किलो और बिक्री 12 रुपये प्रति किलो के लगभग है। सब्सिडी समाप्त करने के बाद लागत लगभग 20 रुपये प्रति किलो हो जाएगी, परंतु खरीद का दाम 25 रुपये कर दिया जाए तो किसान को लाभ ही होगा। विशेष यह कि डीजल, बिजली और खाद महंगे होने के कारण इनका उपयोग कम होगा। आम आदमी को खाद्यान्न महंगे खरीदने पड़ेंगे, परंतु उससे अधिक रकम सब्सिडी के नगद वितरण से मिल जाएगी। इस व्यवस्था का मुख्य दुष्प्रभाव अमीरों पर होगा। उनके द्वारा ही मांस तथा बायोडीजल की खपत अधिक की जाती है।
लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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