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कभी बिहार, कभी पश्चिम बंगाल से बच्चों की मौत की खबरें आ रही हैं। कोलकाता समेत पश्चिम बंगाल के बर्दवान, बीरभूम जिले में समुचित इलाज न मिल पाने से पिछले एक महीने में सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई। जांच में पता चला कि यहां के जिला अस्पताल में गंभीर अवस्था में लाए गए शिशुओं के इलाज के लिए अत्याधुनिक मशीनें, तकनीकी संसाधन नहीं थे। विशेषज्ञ डॉक्टर भी नहीं थे। ताज्जुब की बात यह है कि ऐसी घटनाएं कभी हमें उद्वेलित नहीं करतीं। गरीबों का दर्द कभी हमारी संवेदनशीलता को नहीं झकझोरता। आजादी के 64 साल बाद भी हम देश के हर जिले में अत्याधुनिक सुविधाओं वाला एक सरकारी अस्पताल भी नहीं खड़ा कर पाए, यह विडंबना है। लाचार गरीब बेबसी और आर्थिक तंगी से बेवक्त मौत को मजबूर है। आइसीयू या पीबीयू की कौन कहे, एक बेड पर दो से तीन शिशुओं का इलाज हो रहा है। इलाज के नाम पर बस ग्लूकोज और मुफ्त का बेड। बाकी सब इंतजाम बाहर यानी हर जिला अस्पताल के बाहर एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड और अत्याधुनिक जांचों की दुकानों से। कमोबेश देश के हर पिछड़े जिले की यही कहानी है।
अस्पताल के अंदर धूल खाती जांच मशीनें मरीजों की बेबसी को मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। गांवों-कस्बों तक प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों का संजाल तो फैल गया, मगर वहां न डॉक्टर है, न समुचित स्टाफ। बिजली, पानी और साफ-सफाई जैसी जरूरी सुविधाओं को भी ये अस्पताल मोहताज हैं। केंद्र हो या राज्य सरकार लाचारगी, जताती हैं कि उसके पास इतना बजट और संसाधन नहीं है कि इन अस्पतालों को मल्टी-स्पेशियलिटी बनाया जा सके। तरस आता है ऐसे तर्को पर, राष्ट्रमंडल खेल, एफ-वन रेस पर पैसे बहाने के लिए हम तिजोरियां खोल देते हैं, मगर मासूम बच्चों की चीखें हमारी अंतरात्मा को नहीं झकझोरतीं। एक सीएचसी में छह से सात विशेषज्ञ डॉक्टरों और नौ नर्सो की दरकार है, मगर नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के हालिया आंकड़े बताते हैं कि इनमें से 95 फीसदी इन मानकों को पूरा नहींकरते। राज्य सरकारों का रोना है कि उनके पास धन नहीं है। मगर हकीकत यह भी है कि लोकलुभावन राजनीति ने ऐसे राज्यों का बेड़ा गर्क कर दिया है। खासकर बीमारू राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि का। जिन्होंने केंद्र के सामने कटोरा फैलाने के सिवा संसाधन जुटाने के लिए कुछ नहींकिया।
केंद्र से वित्तीय मदद पर टिके राज्यों में ही स्वास्थ्य सुविधाएं बदतर स्थिति में हैं। वोट बैंक को ही अपना ध्येय मान चुकी इन सरकारों ने पंचायत-निकाय, जिला या मंडल स्तर पर कभी राजस्व बढ़ाने की कोशिश नहीं की। तो ये दुर्दिन तो आने ही थे। स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च भी सकल घरेलू उत्पाद के दो फीसदी से भी कम है। निजी क्षेत्र से तो हेल्थ सेक्टर में बूम आया है, मगर वह गरीब के किस काम का। गरीब के पास निजी अस्पतालों में इलाज का पैसा होता तो उनके बच्चे भुखमरी, कुपोषण और जापानी इंसेफलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारियों का शिकार न बनते। केंद्र और राज्य एनआरएचएम के जरिये जो पैसा खर्च कर रहे हैं, उसमें भ्रष्टाचार और अनियमिताएं भी हमारे सामने हैं। सरकारों ने कभी प्रदर्शन आधारित मदद या लक्ष्य आधारित अनुदान की बात सोची ही नहीं। इससे योग्य चिकित्सकों और अस्पताल प्रबंधनों को उत्कृष्टता हासिल करने में मदद मिलती।
दरअसल, अस्पताल प्रबंधन को नौकरशाही के चंगुल में जकड़ रखा गया है। जिला स्तर पर अस्पताल प्रबंधन संसाधन कैसे जुटाएं, पीएचसी या सीएचसी के तौर पर अपनी शाखाओं को उन्नत कैसे बनाया जाए, यह कभी सोचा ही नहीं गया। उन्हें अपने विवेक को इस्तेमाल करने की आजादी नहींहै। इसके उलट बगैर व्यावहारिकता और आवश्यकता के गैर जरूरी मदों पर बेतहाशा धन बहाया जाता है। इसकी एक बानगी देखिए। एनआरएचएम के तहत यूपी में सैकड़ों एंबुलेंस खरीद ली गई, लेकिन कई सालों तक ड्राइवरों की भर्ती न होने से ये खड़ी-खड़ी सड़ रही हैं। सरकार चाहे तो मनरेगा मजदूरों, बीपीएल कार्ड धारकों को बीमा योजना का फायदा पहुंचा सकती है। रिक्शाचालकों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और देश के अन्य वंचित वर्ग तक भी सरकारी मशीनरी को खुद पहुंचना होगा। इसके लिए स्वयंसेवी संस्थाओं, सिविल डिफेंस, एनसीसी और गैर सरकारी संगठनों की मदद ली जा सकती है। जैसा कि हमने पोलियो उन्मूलन के लिए किया है। केंद्र सरकार को भी मदद देने की महज औपचारिकता पूरी करने के बजाय अनुदान की निगरानी, ऑडिट की समुचित व्यवस्था भी करनी होगी।
इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं
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