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ऐतिहासिक फैसले के बाद खामोशी क्यों

जागरण मेहमान कोना
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Awdesh Kumarगुजरात दंगों पर पिछले नौ सालों से नरेंद्र मोदी विरोध का झंडा उठाने वालों का सरदारपुरा फैसले पर खामोशी विचलित करने वाली है। यह आजाद भारत के इतिहास में न्यायालय का पहला फैसला है, जिसमें एक साथ दंगों के 31 आरोपियों को सजा मिली है। लेकिन इतनी बड़ी घटना पर गंभीरता और विस्तार से चर्चा नहीं हो रही। सच कहें तो मेहसाणा के विशेष न्यायालय ने सरदारपुरा दंगों के फैसले द्वारा इतिहास बना दिया है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसआइटी) द्वारा जांच किए गए मामले का पहला फैसला है। जाहिर है, यह एसआइटी पर पक्षपात करने के आरोपों का जवाब भी है। इसे यदि हम एसआइटी के दायरे के अन्य मामलों की पूर्वपीठिका मान लें तो हमें आने वाले समय में ऐसे फैसलों की श्रृंखला के लिए तैयार रहना चाहिए। इसी साल 22 फरवरी को गोधरा कांड पर अहमदाबाद की विशेष अदालत फैसला सुना चुकी है और संयोग देखिए कि उसमें भी 31 लोगों को ही सजा मिली। उस समय से यह सवाल उठाया जा रहा था कि गोधरा कांड के दोषियों को तो सजा मिल गई, लेकिन दंगों के दोषी भारी संख्या में स्वतंत्र घूम रहे हैं।


27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के दो डिब्बों में आग लगाकर 59 लोगों को मार डाला गया था। अगर वह जघन्यतम अपराध था तो उसके बाद पूरे गुजरात में जो भयानक दंगा भड़का उसकी कुछ घटनाएं नृशंसता और जघन्यता जैसे शब्दों से भी परे चली गई थी। वीजापुर तालुका का सरदारपुरा कस्बा इन्हीं में से एक था। अदालत के फैसले के अनुसार 28 फरवरी और 1 मार्च की रात्रि एक समूह ने शेख वास नामक गली को घेर लिया, जहां अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते थे। इनमें से कुछ लोग इब्राहीम शेख नामक व्यक्ति के घर में छिप गए, लेकिन भीड़ ने घर पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी। इसमें 33 लोग मारे गए, जिनमें 22 महिलाएं थीं। गुजरात दंगों के दौरान कम से नौ ऐसी घटनाएं हैं, जो हैवानियत की सीमाएं पार कर जाती हैं। जिन 76 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया, उनमें दो मर चुके हैं और एक अवयस्क था, जिसका मामला बाल न्यायालय में चला। बरी किए गए 11 लोगों के खिलाफ न्यायालय ने कोई सबूत नहीं पाया तो 31 को संदेह का लाभ मिला। लेकिन इन्हें 25 हजार का बॉन्ड भरना पड़ा है और ये न्यायालय के आदेश के बिना विदेश नहीं जा सकते यानी अभी इन्हें पूरी तरह बरी नहीं माना जा सकता है। ऐसे फैसले का कम से कम स्वागत तो किया जाना चाहिए। क्या ये इसलिए खामोश हैं, क्योंकि इससे मोदी को लाभ मिल जाएगा? दंगों के सभी मामलों के असली दोषियों को कानून के अनुसार कठोरतम सजा मिलने से आम मनुष्य के नाते पीडि़तों के जख्मों पर मरहम लगेगा और राज्य व्यवस्था के प्रति उनका विश्वास फिर से कायम हो सकेगा।


गोधरा से सरदारपुरा फैसले का असर दोनों पक्षों के मनोविज्ञान पर पड़ेगा। ये फैसले ऐसी उम्मीद के पर्याप्त आधार प्रदान करते हैं कि गुलबर्ग सोसायटी से लेकर नरोड़ा पटिया, बेस्ट बेकरी जैसे प्रमुख नौ मामलों में एसआइटी दोषियों को ऐसे ही सजा दिलवाने में कामयाब होगा। एसआइटी को गोधरा सहित दंगों के नौ प्रमुख मामले सौंपे गए, जिसमें वह जांच पूरी कर रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप चुका है। सरदारपुरा मामला कितनी तेजी से चला, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जून 2009 में इनके खिलाफ आरोप पत्र दायर हुआ जिसके बाद 157 सूचीबद्ध गवाहों में से 112 की गवाही हुई। इन गवाहों में 20 डॉक्टर, 40 दंगा पीडि़त, 17 छानबीन से जुड़े गवाह (इनक्वेस्ट गवाह), 20 पुलिसकर्मी और 15 अन्य शामिल थे। इतने लोगों की गवाही और उनसे जिरह करने में कितना समय लगा होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आरोप पत्र दायर होने के दो साल चार महीने के भीतर फैसला आना भारतीय न्याय प्रणाली के स्वभाव को देखते हुए सामान्य बात नहीं है। इससे यह उम्मीद जगती है कि एसआइटी जितने मामलों की जांच कर रही है, उन सबका फैसला भी हमारे सामने कुछ महीनों के अंदर आ जाएगा। लेकिन हमें सरदारपुरा और गोधरा कांड के फैसले के एक गुणात्मक अंतर को अवश्य ध्यान रखना चाहिए।


सरदारपुरा मामले में जिन 31 लोगों को सजा मिली, उन पर हत्या, हत्या की कोशिश, दंगा, आगजनी आदि का आरोप तो न्यायालय ने स्वीकार किया, लेकिन आपराधिक साजिश को स्वीकार नहीं किया। इसीलिए इन्हें आजीवन कारावास मिला, मृत्युदंड नहीं। इसके विपरीत गोधरा कांड में 11 को मृत्युदंड और 20 को आजीवन कारावास की सजा हुई। न्यायालय ने सरदारपुरा घटना को जघन्य तो करार दिया है, लेकिन इसे गोधरा कांड की प्रतिक्रिया में ही घटित माना है। तमाम जिरह के बाद लोगों को हमले के लिए हथियार आदि दिए जाने को भी उसने तात्कालिक प्रतिक्रिया में किया गया अपराध ही माना है। इसके पीछे पहले से कोई साजिश हो, इसे अदालत द्वारा स्वीकार न करना काफी महत्वपूर्ण है। वास्तव में गुजरात दंगों के संदर्भ में यह बहुत बड़ी बात है। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर आरोप लगाया जाता रहा है कि उसने साजिश के तहत दंगा भड़काया और प्रशासन को पूरी तरह सक्रिय न होने का प्रबंधन भी किया, जिससे संघ परिवार के संगठनों द्वारा एक समुदाय के लोगों को हिंसा का शिकार बनाने की आजादी थी। मोदी पर तो गोधरा रेल दहन का भी आरोप लग रहा था। पहले गोधरा रेल दहन संबंधी फैसले में अदालत ने मोदी की किसी प्रकार की भूमिका को खारिज किया और अब सरदारपुरा दंगा मामले में भी। गोधरा मामले को अदालत ने पूर्व नियोजित साजिश की श्रेणी करार दिया। क्या वर्तमान खामोशी का राज इसी में निहित है? ईमानदारी का तकाजा है कि दोनों मामलों के मौलिक अंतर को स्वीकार कर अपना विचार बनाया जाए। सांप्रदायिक हिंसा चाहे अल्पसंख्यकों द्वारा अंजाम दी जाए या बहुसंख्यकों द्वारा, इसका निरपेक्ष भाव से विरोध होना चाहिए।


दुर्भाग्य से गुजरात मामले में ऐसा नहीं हुआ है। सरदारपुरा फैसले से पहले एसआइटी ने अपनी रिपोर्ट में यह तो स्वीकार किया कि प्रशासन को जिस ढंग से काम करना चाहिए, नहीं किया। एसआइटी की रिपोर्ट के अनुसार वह सक्षमता से अपनी भूमिका निभाकर हिंसा की अनेक घटनाएं रोक सकती थी, लेकिन मोदी ने संप्रदाय विशेष के खिलाफ लोगों को भड़काया, हिंसा में सहयोग दिया, प्रोत्साहित किया, इसके प्रमाण नहीं मिलते। 6 मार्च 2008 को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ के पूर्व प्रमुख आरके राघवन की अध्यक्षता में एसआइटी का गठन किया। एसआइटी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश और उसकी मॉनिटरिंग के तहत जांच की और उस दौरान विरोधियों की ओर से जो भी सवाल उठाए गए, उनका भी समय-समय पर संज्ञान लिया। सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल 2009 को दंगों में मोदी की भूमिका की जांच का आदेश दिया। इसने उस समय के दस्तावेज, भाषणों के टेप आदि की छानबीन की और मोदी से दो बार लंबी पूछताछ की। इसके बाद इसने मोदी को दंगों के आरोप से मुक्त कर दिया। चूंकि एसआइटी सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में काम कर रही है, इसलिए इसकी जांच पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। दुर्भाग्यवश कुछ लोगों ने एसआइटी की भूमिका को ही संदेहास्पद बनाने की कोशिश की और इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गए।


दंगों के बाद गुजरात में किसी भी ईमानदार व्यक्ति या समूह का दो ही उद्देश्य हो सकता है- दोषियों को उपयुक्त सजा दिलवाना और धीरे-धीरे उन सिहरन भरी यादों से समाज को बाहर लाकर आम जीवन में गतिशील करना। पहला उद्देश्य न्यायपालिका द्वारा पूरा हो सकता है और यह हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने सारे सवालों को समाहित कर एसआइटी का गठन किया और वह छानबीन करने से लेकर मुकदमा लड़ने तक की भूमिका निभा रहा है। दूसरे उद्देश्य के लिए सरकार शेष राजनीतिक प्रतिष्ठान और सभी प्रकार के सामाजिक समूहों को संवेदनशील भूमिका निभाने की जरूरत है। इसके विपरीत बार-बार उन घटनाओं की एकपक्षीय और निहित स्वार्थो के आलोक में चर्चा कर जख्मों को कुरेदा जाता है, उन्हें अन्याय का शिकार बताया जाता है और निष्पक्ष न्याय सामने आने पर खामोशी अख्तियार कर ली जाती है। हम तो केवल कामना ही कर सकते हैं कि काश, इस स्थिति का अंत हो जाए।


लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


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