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गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं डॉ. हरबंश दीक्षित
राज्यपाल का पद एक बार फिर विवादों में है। इस बार गुजरात की राज्यपाल की नीयत पर उंगली उठाई जा रही है। घटना की पृष्ठभूमि में गुजरात के लोकायुक्त की नियुक्ति में किया जाने वाला मनमानापन है। गत माह राज्यपाल ने अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस मामले में उन्होंने गुजरात के मुख्यमत्री या मत्रिमंडल से कोई सलाह नहीं ली। राज्यपाल का तर्क है कि उन्होंने गुजरात लोकायुक्त अधिनियम 1986 के अनुसार काम किया है। उनका कहना है कि गुजरात लोकायुक्त अधिनयम की धारा-3 में लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा किए जाने की व्यवस्था है और यह भी कि ऐसा करते समय गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा विधानसभा के विपक्ष के नेता से परामर्श किए जाने की बाध्यता है। उसमें मुख्यमत्री का नाम नहीं लिखा हुआ है इसलिए मुख्यमत्री से परामर्श करना उनके लिए जरूरी नहीं था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि भारतीय सविधान के अंतर्गत क्या राज्यपाल मुख्यमत्री के परामर्श के बिना इस तरह की नियुक्तियां कर सकता है? यदि हां, तो यह विवेकाधिकार किस सीमा तक है? यही सवाल मोदी से उपवास का हिसाब मांगने पर भी उठता है।
सविधान सभा में आशका व्यक्त की गई थी कि केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकार होने पर केंद्र राज्यपालों के माध्यम से राज्य के कामकाज में दखलदाजी कर सकता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 30 दिसंबर, 1948 को सविधान सभा में कहा था कि राष्ट्रपति की तरह ही राज्यों में राज्यपाल केवल सवैधानिक तथा प्रतीकात्मक प्रधान होगा। ससदीय व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्राध्यक्ष के पास सीमित विशेषाधिकार ऐसे होते हैं जिनका इस्तेमाल वे अपने विवेक के अनुसार कर सकते हैं। अंबेडकर के इस स्पष्टीकरण के बाद जब उनसे एक बार पुन: राज्यों में राज्यपालों के विवेकाधिकार के बारे में पूछा गया तो उनका उत्तर था कि राज्यपालों की स्थिति और उनके विवेकाधिकार वही होंगे जो राष्ट्रपति के हैं। उनका स्पष्ट मत था कि राज्यपाल को राज्य मत्रिमंडल के परामर्श से ही काम करना होगा।
राज्यपाल और राज्य मत्रिपरिषद के अंतर्संबंधों की व्याख्या सविधान के अनुच्छेद-163 में की गई है। उसमें तीन महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। पहला यह कि राज्यपाल की सलाह के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी और कुछ मामले ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें उसे अपने विवेक के अनुसार काम करने का अधिकार होगा। दूसरा यह कि उन मामलों को तय करने का अधिकार राज्यपाल के पास होगा कि कहा पर उसे मत्रिपरिषद की सलाह माननी है और कब अपने विवेक के अनुसार काम करना है। तीसरा प्रावधान यह कि मत्रियों द्वारा राज्यपाल को दी गई सलाह के संबंध में जांच करने का अधिकार न्यायालय को नहीं होगा। गुजरात की राज्यपाल अनुच्छेद-163 का अर्थ अपने तरीके से निकाल रही हैं जो सविधान निर्माताओं की मशा के अनुकूल नहीं है। उनकी मान्यता है कि चूंकि अनुच्छेद-163 उन्हें न केवल विवेकाधिकार देता है बल्कि अपने विवेकाधिकार को परिभाषित करने का अधिकार भी देता है और इसीलिए राज्य के हित को देखते हुए उन्होंने लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी।
गुजरात की राज्यपाल ऐसी अकेली शख्यिसत नहीं है जिन्होंने अनुच्छेद-163 का अपने मन मुताबिक अर्थ निकाला हो। कभी जनता का समर्थन खो देने के नाम पर और कभी विधानसभा के बहुमत का समर्थन नहीं होने के बहाने राज्यपालों ने राज्य शासन के साथ सैकड़ों बार खिलवाड़ किया है। एक बार तो नौबत ऐसी आ गई थी कि केंद्र सरकार के इशारे पर राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रकरणों की बाढ़ आ गई थी। इसकी शुरुआत 1952 में ही हो गई थी, जब तत्कालीन मद्रास राज्य के राज्यपाल श्रीप्रकाश ने स्पष्ट बहुमत नहीं होने के बावजूद चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का निमत्रण दिया। सन 1959 में केरल में ईएमएस नबूदरीपाद के नेतृत्व वाली सरकार को गैरकानूनी तरीके से बर्खास्त कर दिया गया। शुरू में अदालतें इस तरह के दुरुपयोगों में हस्तक्षेप करने से बचती रहीं किंतु जब पानी नाक से ऊपर पहुंच गया तो न्यायालय को दखलदाजी करनी पड़ी। कम से कम चार मामले ऐसे आए जिनमें न्यायालय ने राज्यपाल के आचरण पर गंभीर टिप्पणी की। सन 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रमेश भंडारी ने मत्रिमंडल को बर्खास्त करके दूसरे मत्रिमंडल को शपथ दिला दी। जगदंबिका पाल बनाम भारत सघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़ा कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर मुख्यमत्री पद के दावेदारों के समर्थकों की सख्या का पता लगाया जाए। सन 2005 में झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल ने सविधान की अपेक्षाओं के प्रतिकूल आचरण किया और राज्य सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की। अनिल कुमार झा बनाम भारत सघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा के अध्यक्ष को निर्देश दिया कि वह सदन में शक्ति परीक्षण कराएं। सदन में मतदान से यह साबित हो गया कि राज्यपाल गलत थे।
एसआर बोम्बई बनाम भारत सघ मामले में राज्यपाल के अधिकार और उसकी मर्यादा से जुड़े विषयों पर व्यापक दिशानिर्देश किए गए। मशा यह थी राज्यपाल अपने को तानाशाह न समझे बल्कि सविधानिक मर्यादा के अनुरूप आचरण करे। इसके बाद रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सघ (2006) में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया कि कोई राज्यपाल बहुमत के दावे को इस आधार पर नकार नहीं सकता कि उसकी व्यक्तिगत राय या अनुमान के मुताबिक बहुमत हासिल करने के लिए अनैतिक या गैरकानूनी साधनों का इस्तेमाल किया गया। गुजरात के मामले में एक बार फिर इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है।
लेखक डॉ. हरबंश दीक्षित विधि मामलों के विशेषज्ञ हैं
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