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गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने दो मुद्दे उठा दिए हैं। एक, लोकायुक्त की नियुक्ति में हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की प्रमुखता का और दूसरा इस प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका का। एक सांसद होने के नाते मैं एक चुनी हुई सरकार के कार्यक्षेत्र पर अतिक्रमण के खिलाफ अपना विरोध जताता हूं। 1986 में बहुत से राज्यों ने लोकायुक्त कानून बनाए, जो ज्यादातर राज्यों में स्पष्ट हैं और केंद्र के कानून पर ही आधारित हैं।
गुजरात के कानून की धारा 3 (1) कहती है, इस कानून के प्रावधानों के तहत जांच के लिए लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। उसकी नियुक्ति हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जाए और जब यह नियुक्ति ऐसे समय में की जाए जहां राज्य विधानसभा भंग कर दी गई हो या संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगा हो या कोई चुना गया नेता न हो तो विपक्ष द्वारा चुना गया कोई व्यक्ति स्पीकर की जगह निर्देश दे सकता है। कानून की भाषा स्पष्ट है, इसलिए इसकी व्याख्या भी उतनी ही स्पष्ट होनी चाहिए। कानून की यह धारा कहती है कि लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल को करनी है।
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हमारे संवैधानिक ढांचे में राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करता है इसलिए राज्यपाल की जगह मंत्रिपरिषद को मुख्यमंत्री से परामर्श करना होता है। वह मुख्यमंत्री ही है जिसे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विधानसभा में विपक्ष के नेता से चर्चा करनी होती है। इस तरह इस पूरी प्रक्रिया में चार संवैधानिक अथॉरिटी शामिल हैं। मुख्यमंत्री का मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष से परामर्श करना जरूरी है। इसके बाद उसे अपनी सिफारिश राज्यपाल को भेजनी भी जरूरी है, जिसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना जरूरी है। मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता का इस प्रक्रिया में मुख्यमंत्री से परामर्श करना जरूरी है। इस परामर्श की पूरी प्रक्रिया में मुख्यमंत्री सबसे प्रमुख है। राज्यपाल तो चौथा स्तंभ है, जिसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर अपनी मंजूरी देनी ही होती है। शक्तियों का यह संवैधानिक विभाजन संवैधानिक संतुलन बनाए रखने के लिए ही किया गया है। सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या में साफ झलकता है कि मुख्य न्यायाधीश की सलाह प्रमुख हो गई है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला सिर्फ मुख्य न्यायाधीश की प्रमुखता ही नहीं साबित करता, बल्कि मुख्यमंत्री की भूमिका को बदलते हुए मुख्य न्यायाधीश को ही सबसे जरूरी बताता है। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, मुख्य न्यायाधीश के विचार को इसलिए प्रमुखता दी गई क्योंकि वह खुद लोकायुक्त बनने की योग्यता रखते हैं। इसलिए मुख्य न्यायाधीश इस पद के लिए उपयुक्तता को जांचने के लिए सबसे सही व्यक्ति हैं। मुख्यमंत्री का इस सिफारिश को अस्वीकार करना निरर्थक रह गया है। यह साफ है कि कानून की धारा 3 के तहत राज्यपाल ने अपने मंत्रिमंडल की सलाह से ऊपर उठकर काम किया है। भारत की कार्यपालिका और राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा होने के नाते मैं सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पूरी तरह असहमत हूं। कार्यपालिका ने जो कानून बनाया है उसमें मुख्य न्यायाधीश को कहीं भी प्रमुखता नहीं दी गई है। तथ्य यह है कि मुख्य न्यायाधीश के स्वतंत्र संवैधानिक अथॉरिटी होने का यह मतलब नहीं है कि मुख्यमंत्री या विपक्ष के नेता की कोई संवैधानिक भूमिका ही नहीं है, विशेष तौर पर तब जब शक्ति का इस्तेमाल कार्यपालिका के संदर्भ में हो, न कि न्यायिक संदर्भ में।
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ऐसी कोई पूर्व कल्पना नहीं की गई है कि जब सेवानिवृत्त जजों के प्रदर्शन की बात हो तो मुख्य न्यायाधीश ही सबसे अच्छा जज होता है। इसके विपरीत न्यायप्रणाली में जज ही जज को चुनते हैं और जज ही जजों को जज करते हैं। यह भारत में बहुत संतोषजनक नहीं रहा है। बहुत से लोग इसे असफल व्यवस्था मानते हैं। यह उपलब्ध व्यवस्थाओं में सबसे अच्छी भी नहीं है। कार्यपालिका कहती है कि ये संवैधानिक अथॉरिटी परामर्श प्रक्रिया का हिस्सा होनी चाहिए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसके उलट है। इतना ही नहीं मुख्य न्यायाधीश द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता के बिना राज्यपाल को सीधे लिखे खत को ही मंत्रिपरिषद की सलाह के तौर पर स्वीकार करने का मतलब यह नहीं है परामर्श प्रक्रिया में सर्वसम्मति है। इसलिए यहां मंत्रिपरिषद की भूमिका ही निरर्थक हो गई है। मुख्यमंत्री या विपक्ष के नेता के विचार प्रासंगिक नहीं रह गए हैं। वे सेवानिवृत्त जजों पर अपनी राय जाहिर करने के लिए अयोग्य ठहरा दिए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला शक्ति विभाजन में असंतुलन पैदा करता है। इसने लोकायुक्त नियुक्ति की परामर्श प्रक्रिया को अकेले मुख्य न्यायाधीश का अधिकार क्षेत्र बना कर मुख्यमंत्री की भूमिका को खत्म कर दिया है। जब मुख्य न्यायाधीश की चिट्ठी को मंत्रिपरिषद की सलाह का विकल्प मान लिया गया है तो यही तर्क परामर्श प्रक्रिया में विपक्ष के नेता पर भी लागू होता है। इस फैसले का सीधा प्रभाव लोकपाल के गठन पर भी पड़ेगा।
राज्यसभा की प्रवर समिति ने प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष की नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रमुख न्यायाधीश का कोलेजियम बनाने की सिफारिश की है। यदि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सही है तो यही समीकरण लोकपाल पर भी लागू होता है। ऐसे में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष सभी मूकदर्शक बनकर रह जाएंगे। निश्चित रूप से प्रवर समिति का यह इरादा नहीं रहा होगा। संसद को इस प्रावधान पर पुनर्विचार करना चाहिए। अदालतें न्यायिक व्याख्या के जरिये संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका को खत्म कर देंगी। मैं न न्यायिक संस्था को कम आंक रहा हूं और न ही मुझे न्यायपालिका का चुनी हुई सरकार या कार्यपालिका पर अतिक्रमण मंजूर है। न्यायपालिका का काम कानून की व्याख्या करना और मामले सुलझाना है। प्रशासनिक नियुक्तियों के मामले में वे अपने न्यायाधिकार को बढ़ा नहीं सकतीं। गुजरात की राज्यपाल ने असंवैधानिक रुख अपनाया। वह चुनी हुई सरकार के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण करना चाहती थीं। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा है, राज्यपाल ने खुद पत्र में लिखा था कि वह लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए मंत्रिपरिषद की सलाह लेने के लिए बाध्य नहीं हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें गलत कानूनी सलाह दी गई है। इस मामले में मुख्यमंत्री को भी प्रत्येक घटनाक्रम से परिचित कराया जाना चाहिए था। राज्यपाल ने मनमानी करने की ठान ली थी। मंत्रिपरिषद की असहमति ही राज्यपाल के लिए परामर्श बन गई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ही विरोधाभास है। गुजरात में आज ऐसा लोकायुक्त है, जिसकी कभी मंत्रिपरिषद ने सिफारिश ही नहीं की थी। संवैधानिक शॉर्ट कट न तो सुशासन ही दे पाते हैं और न कोई मिसाल ही बन पाते हैं।
लेखक अरुण जेटली राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं
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Tag:गुजरात, सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल, कानून की धारा , मुख्यमंत्री, supreme court, governor,law,gujrat
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