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क्लिंटन का कूटनीतिक मिशन

जागरण मेहमान कोना
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Uday Bhaskarअमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की भारत-बांग्लादेश यात्रा के महत्व पर प्रकाश डाल रहे हैं सी. उदयभाष्कर क्लिंटन का कूटनीतिक मिशन अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन को चीन की यात्रा के बाद बांग्लादेश और भारत का महत्वपूर्ण दौरा करना है। क्लिंटन ढाका में एक दिन बिताने के बाद सात मई सोमवार को दिल्ली पहुंचने से पहले रविवार की रात कोलकाता में बिताएंगी। दिल्ली में उनकी विदेश मंत्री एसएम कृष्णा के साथ मुलाकात होगी। इस बात की संभावना जताई जा रही है कि क्लिंटन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात करेंगी, क्योंकि अमेरिका अपने प्रभाव का इस्तेमाल भारत और बांग्लादेश के बीच संबंधों को सुधारने के लिए करना चाहता है, खासकर तीस्ता नदी जल बंटवारे के विवादास्पद मुद्दे पर। संभवत: यह एक ऐसा मामला है जो विदेशी शक्तियों के हाथ की पुरानी कहानियों की फिर से याद दिला दे, लेकिन क्लिंटन का कोलकाता में रुकना इस बात का संकेत है कि वर्तमान समय में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंध काफी बेहतर स्थिति में हैं और साथ ही यह भी कि देश की नई राजनीतिक संस्कृति विदेश नीति पर किस तरह असर डाल रही है। अब यह स्पष्ट है कि अमेरिका अपने दूसरे कई समर्थक देशों के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में मजबूत कूटनीतिक और व्यावसायिक उपस्थिति बना चुका है।

 

नई दिल्ली के अलावा विदेशी राजनयिक भी इस बात से भलीभांति अवगत हैं कि भारत में नीतिगत निर्णयों के मामले में क्षेत्रीय दलों की पहले की तुलना में कहीं अधिक बड़ी भूमिका है। हालांकि पूर्व में जब कोई बड़ा राजनयिक भारत यात्रा पर आता था तो वह परंपरा के तौर पर विपक्षी दल के नेता अथवा राजधानी में दूसरे राजनीतिक प्रतिनिधियों से मुलाकात करता था, लेकिन ऐसा बहुत कम होता था कि विदेशी प्रतिनिधिमंडल राज्यों की राजधानियों में जाते रहे हों। इस मामले में अमेरिका और सिंगापुर जैसे कुछ छोटे देशों का रुख अलग है। राज्यों के संबंध में वाशिंगटन ने अपनी विशेष नीति बना रखी है। क्लिंटन की जुलाई 2011 में चेन्नई यात्रा को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता जब वह मुख्यमंत्री जयललिता से मिलने गई थीं। कोई भी यह अंदाज लगा सकता कि क्लिंटन के तमिलनाडु दौरे में बातचीत के एजेंडे में श्रीलंका भी शामिल रहा होगा। उस दौरे में क्लिंटन ने इस क्षेत्र को लेकर अमेरिकी विश्लेषण के बारे में महत्वपूर्ण भाषण दिया था। यहां यह निष्कर्ष निकालना बहुत तार्किक होगा कि कुछ वैसा ही पैटर्न उनकी कोलकाता यात्रा में भी झलकता है। कोलकाता के इस दौरे में अमेरिकी कंपनियों के लिए निवेश के अवसर भी खुल सकते हैं। इसके अलावा भारत के मुख्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ अमेरिका के वरिष्ठ मंत्रियों की नियमित मुलाकात एक नई बात है और निकट भविष्य में भी इसके बने रहने की संभावना है।

 

क्लिंटन का यह दौरा उनकी चीन की यात्रा की पृष्ठभूमि में हो रहा है, जबकि इसके ठीक पहले एक मई को राष्ट्रपति ओबामा ने आपरेशन ओसामा का एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर काबुल की चौंकाने वाली यात्रा की। इस समय अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों की तैयारी चल रही है और माना जा रहा है कि इन यात्राओं का राजनीतिक लक्ष्य घरेलू चुनाव हैं। यही कारण था कि राष्ट्रपति ओबामा का काबुल भाषण घरेलू लोगों और विदेशी राजनयिकों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया। इस भाषण में कुछ उद्देश्य और अपेक्षाएं स्पष्ट रूप से भारत के लिए प्रासंगिक हैं। इनका संबंध 2014 के बाद पाकिस्तान की उस भूमिका से है जो वह निभा सकता है अथवा उसे अनिवार्य रूप से निभाना चाहिए। स्पष्ट है कि ओबामा की काबुल यात्रा और क्लिंटन की ढाका यात्रा के बीच जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज है वह है दक्षिण एशिया के संदर्भ में व्यापक परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी नीतियों में छिपे इरादे को भलीभांति समझना। उम्मीद है कि ये इरादे क्लिंटन की यात्रा के दिल्ली चरण के बाद कहीं अधिक स्पष्ट रूप से सामने आ सकेंगे। सामरिक दृष्टि से एक त्रिकोण की भूमिका महत्वपूर्ण है, जो चीन, अमेरिका और भारत से संबंधित है। क्षेत्रीय दक्षिण एशियाई समीकरण में म्यांमार और अफगानिस्तान, दोनों महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। भौगोलिक संरचना ही नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र की सुरक्षा यानी आंतरिक स्थिरता इन बड़ी शक्तियों द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों से प्रभावित होगी।

 

भारत-पाकिस्तान-अफगानिस्तान,म्यांमार-बांग्लादेश-भारत,मालदीव-श्रीलंका-भारत त्रिकोण और इन देशों के अमेरिका और चीन के साथ संबंधों के आधार पर बहुत कुछ तय होगा। इस स्पेक्ट्रम में कई विरोधाभासी चीजें हैं। इनसे निपटने के लिए घरेलू राजनीतिक बाध्यताओं के बीच उचित संतुलन की आवश्यकता होगी। भारत के लिहाज से बांग्लादेश में दृढ़, सहिष्णु और सक्रिय राजनीतिक संस्कृति को मजबूती मिलना बेहद महत्वपूर्ण है। संप्रग-2 सरकार से ढाका-नई दिल्ली के रिश्तों में गुणात्मक सुधार की आशा रखने वाले उत्साही विश्लेषक खासे निराश नजर आ रहे हैं। नई दिल्ली बांग्लादेश के साथ रिश्तों के मामले में कोलकाता को सही तरह समझा नहीं पा रही है। भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान, तीनों ही देश कठिन आंतरिक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से घिरे हैं। संस्थागत कमजोरी और विश्वसनीयता गहन परीक्षा के दायरे में है। अमेरिका को अतीत की तुलना में कहीं अधिक रचनात्मक और समग्र क्षेत्रीय नीति का परिचय देना होगा। जाहिर है कि क्लिंटन की यात्रा का एजेंडा उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है जितना कि नजर आता है।

 

 लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

 

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