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एक और कूटनीतिक विफलता

जागरण मेहमान कोना
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Brahma chellaneyतीस्ता जल बंटवारे के मुद्दे पर भारत को खुद ही अपने ऊपर दबाव बनाते देख रहे हैं ब्रह्मा चेलानी


भारत में कमजोर केंद्र सरकार के चलते सत्ता राज्यों की ओर हस्तांतरित होते देख अमेरिका की विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अमेरिकी हित साधने के लिए भारत यात्रा का पहला पड़ाव कोलकाता में डाला। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात से पहले हिलेरी क्लिंटन ने भारत को रिटेल व्यवसाय में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे खोलने और तीस्ता नदी के जल बंटवारे पर बांग्लादेश के साथ समझौते का दबाव बनाया। इन मुद्दों का ममता बनर्जी विरोध कर रही हैं। समझा-बुझा कर रास्ते पर लाना भी एक कला है, जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरी तरह विफल रहे हैं। इस कारण वह राजनीतिक दुविधा से ग्रस्त सरकार को एक के बाद एक नए-नए संकटों में फंसाते रहे हैं। परिणामस्वरूप वह महत्वपूर्ण मसलों पर फैसलों को टालते जा रहे हैं और इसका दोष सहयोगी दलों पर मढ़ते रहे हैं। प्रधानमंत्री की इसी प्रवृत्ति के कारण विदेशी नेता सीधे-सीधे प्रमुख मुख्यमंत्रियों से मिलने को बाध्य हुए हैं। पानी के मुद्दे को ही लें। भारतीय संविधान के मुताबिक जल राज्य स्तरीय विषय है। इसके बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ने बांग्लादेश के साथ तीस्ता जल संधि के प्रस्ताव पर पश्चिम बंगाल के हितों की पूरी तरह अनदेखी कर दी।


क्लिंटन का कूटनीतिक मिशन


वास्तव में, पहले तो नई दिल्ली ने इस मुद्दे पर ढाका के साथ तमाम शर्ते तय कर दीं। ये शर्ते बांग्लादेश के पक्ष में थीं और इसके बाद पश्चिम बंगाल से कहा कि इस समझौते में कोई बदलाव नहीं हो सकता। राज्यों के हितों का मान रखना संघवाद का सार है। राज्यों को अपनी बपौती मानने की प्रवृत्ति ने तब से जोर पकड़ा था, जब केंद्र सरकार मजबूत हुआ करती थी। जवाहरलाल नेहरू ने 1960 में सिंधु जल संधि करके जम्मू-कश्मीर और कुछ हद तक पंजाब के हितों पर आघात किया था। इस असाधारण संधि में भारत ने सिंधु जल का 80.52 फीसदी हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया था। आधुनिक विश्व इतिहास में जल बंटवारे की ऐसी मिसाल देखने को नहीं मिलती। असल में भारत द्वारा पाकिस्तान के लिए छोड़े जाने वाले जल की मात्रा एक संधि के तहत अमेरिका द्वारा मैक्सिको के लिए छोड़े गए जल की तुलना में 90 गुना अधिक है। भारत को तीस्ता संधि की नसीहत देने वाली क्लिंटन भूल रही हैं कि अमेरिका ने कोलोरेडो नदी का पानी सात राज्यों में बांट दिया है और मैक्सिको के लिए नाममात्र का हिस्सा ही छोड़ा है। सिंधु संधि उस दौर में की गई जब भारत के अधिकांश हिस्सों में पानी की कमी कोई मुद्दा नहीं था। नेहरू यह अनुमान लगा पाने में विफल रहे कि विकास और आबादी के दबाव में पानी एक बड़े संकट में तब्दील हो सकता है। आज भारत उस पाकिस्तान को पानी देने को मजबूर है, जिसने उसके खिलाफ आतंकवाद की जंग छेड़ रखी है, जबकि जल संसाधन समूह के अनुसार 2010 तक इन नदियों के इलाके में पानी की मांग व आपूर्ति में 52 फीसदी का अंतर है। इस संधि ने जम्मू-कश्मीर को इसके एकमात्र संसाधन पानी से भी वंचित कर दिया।


राज्य की प्रमुख नदियों-चिनाब और झेलम को पाकिस्तान के इस्तेमाल के लिए आरक्षित कर दिया गया है। इस कारण भारतीय राज्य में असंतोष और अलगाव की भावना भर गई है। इसी कारण 2002 में राज्य सरकार को विधेयक पारित करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसमें इस संधि को रद करने का प्रस्ताव है। जम्मू-कश्मीर में बिजली-पानी की कमी और इससे उपजे जनअसंतोष को दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने बगलिहार और किशनगंगा पर पनबिजली परियोजनाएं शुरू कीं, किंतु मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले जाकर पाकिस्तान ने इन परियोजनाओं पर काम को रुकवा दिया। प्रस्तावित तीस्ता संधि से पता चलता है कि भारत ने सिंधु संधि से कोई सबक नहीं सीखा। तीस्ता का उद्गम स्थल सिक्किम है और यह बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र में मिलती है। तीस्ता उत्तरी पश्चिम बंगाल के लिए जीवनरेखा के समान है, इसलिए बंगाल के दीर्घकालीन हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। जीवन के लिए जल अनिवार्य संसाधन है। पानी की किल्लत राजनीतिक के साथ-साथ गंभीर आर्थिक मुद्दा बनती जा रही है। तीस्ता जल संधि में ममता बनर्जी को बाधा के रूप में पेश करके मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी नासमझी से भारत पर दबाव बढ़ा लिया है।


हिलेरी क्लिंटन के रुख से प्रोत्साहित होकर बांग्लादेश के विदेशमंत्री ने चेतावनी दी है कि अगर तीस्ता संधि परवान नहीं चढ़ती तो भारत-बांग्लादेश के बीच हुई संधियों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारत ने हाल ही में उदारतापूर्वक घोषणा की है कि वह बांग्लादेश पर एक अरब डॉलर के ऋण में से 20 करोड़ डॉलर माफ कर रहा है। भारत को बांग्लादेश की उदार मदद जारी रखनी चाहिए, किंतु यह पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर होनी चाहिए। भारत बांग्लादेश के साथ तीस्ता से बड़ी नदी गंगा के जल बंटवारे की संधि में भी पक्षकार है। 1996 में हुई गंगा संधि में बांग्लादेश को सूखे मौसम में न्यूनतम पानी देने का समझौता हुआ था। यह अंतरराष्ट्रीय जल संबंधों में एक नया सिद्धांत है। इस संधि के कारण गंगा का पानी दो देशों में बराबर बंट रहा है। इस संधि के तहत मार्च से मई तक के सूखे मौसम में दोनों देशों को दस-दस दिनों के लिए 35,000 क्यूसेक पानी के बंटवारे पर रजामंदी हुई है। इस संधि के कारण भारत फरक्का बैराज से गंगा की सहायक भगीरथी-हुगली में पानी का स्थानांतरण करने में असमर्थ हो गया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सूखे मौसम में कोलकाता बंदरगाह से गंदा पानी नहीं निकल रहा। इस जटिल जल संधि व्यवस्था में विश्वास बहाली के लिए दोनों पक्षों की निगरानी की व्यवस्था की गई है।


भारत और बांग्लादेश बिना किसी तीसरे पक्ष की भूमिका के तीस्ता संधि पर हस्ताक्षर कर सकते हैं। यह संधि 21वीं सदी की विश्व की पहली जलसंधि होगी। बांग्लादेश तीस्ता नदी का आधा जल चाहता है। विश्व के किसी भी देश में जल बंटवारा संधि में एक देश दूसरे देश को इसके आसपास भी जल देने को राजी नहीं हुआ है। पड़ोसी देशों को पानी देने में भारत की आत्मघाती उदारता का कोई सानी नहीं है, जबकि चीन से आने वाली नदियों के विषय में वह उसे जल बंटवारे की अवधारणा पर ही राजी नहीं कर सका है। पानी के संबंध में भारत के पास अधिक विकल्प नहीं हैं। बांग्लादेश के विपरीत यह पहले ही पानी की जबरदस्त किल्लत झेल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार जहां बांग्लादेश में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्धता 8,252 क्यूबिक मीटर जल है, वहीं भारत में यह आंकड़ा 1560 क्यूबिक मीटर है।


लेखक ब्रह्मा चेलानी सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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