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हिंदी पट्टी वालों ने हिंदी को क्या दिया

जागरण मेहमान कोना
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भाषा किसी संस्कृति की उन्नति और उसके समाज का आईना होती है। जब कोई समाज उन्नति करता है तो उसकी भाषा और संस्कृति की स्वत: उन्नति होती है। मगर हिंदी समाज के मामले में इसका उल्टा ही देखने को मिलता है। कहने को तो देश का हिंदी समाज भौगोलिक विस्तार में 60 फीसदी के आसपास है और देश के 60 फीसदी से ज्यादा बड़े शहर भी हिंदी समाज का ही हिस्सा हैं। देश में सबसे ज्यादा महानगर हिंदी पट्टी में ही हैं। अगर देश के बेहतरीन शिक्षण संस्थानों की बात करें तो उसमें भी हिंदी समाज के पास 60 फीसदी से भी ज्यादा शिक्षण संस्थान हैं। दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुड़गांव, बनारस, लखनऊ, पटना, इंदौर, भोपाल, जयपुर, शिमला, धनबाद, रांची, रायपुर, देहरादून जैसे तमाम शहर शिक्षण संस्थानों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों के अलावा राजनीति के भी गढ़ हैं। अगर यह सच है कि देश में 70 फीसदी से ज्यादा गरीबी, अशिक्षा का डेरा इस हिंदी पट्टी में है तो यह भी न भूलें कि देश में जितने लखपति हैं उनमें से आधे से ज्यादा इसी हिंदी समाज में हैं। देश में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय भी राजधनी दिल्ली के लोगों की है जो कि हिंदी समाज का सबसे बड़ा शहर है और देखा जाए तो मुंबई भी तकनीकी रूप से भले मराठी प्रदेश का शहर है, लेकिन वहां सारा कारोबार हिंदी का ही है। वहां का कामकाजी समाज हिंदी ही बोलता है।


अगर बात राजनीति की करें तो यह कहने की जरूरत शायद ही हो कि हिंदी समाज का दबदबा देश की समूची राजनीति में है और यह दबदबा कोई आज से नहीं है, बल्कि वर्ष 1857 से ही है। आजादी का पहला संगठित प्रयास भी यहीं से हुआ। परंतु जिस देश में 40 करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी बोलते हों और 88 करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी समझते हों उसी हिंदी भाषा के लिए हर साल 14 सितंबर को एक सालाना कार्यक्रम मनाना पड़े यह कितनी हैरानी की बात है। हिंदी के लगभग सभी कार्यक्रमों में हिंदी की दैन्यता का ही रोना रोया जाता है। हास्यस्पद यह है कि इन तमाम कार्यक्रमों में हिंदी की दरिद्रता के लिए सरकार को, नौकरशाही को कोसा जाता है। हिंदी समाज के प्रकाशक हमेशा रोते मिलेंगे कि हिंदी में पठन-पाठन की कोई संस्कृति ही नहीं है। हालांकि, सच यही है कि हिंदी में हर साल दो करोड़ से ज्यादा किताबें बिकती हैं। अगर पूरी दुनिया के अंग्रेजी अखबारों से हिंदी अखबारों की अकेले मुठभेड़ करा दी जाए तो यह उनसे बहुत पीछे नहीं है।


भारत में पांच हजार से ज्यादा छोटे- बड़े दैनिक, साप्ताहिक और अन्य सामग्रियां हैं। 1500 से ज्यादा पत्रिकाएं हैं, 132 से ज्यादा हिंदी चैनल हैं और 200 से ज्यादा चैनलों में हिंदी के कार्यक्रम मौजूद रहते हैं। बावजूद इसके यदि हिंदी दरिद्र भाषा है तो इसकी वजह क्या है? हिंदी गुलामों की, सिर्फ कामगारों की भाषा क्यों है? यह नौकरशाहों, शासकों और संपन्न लोगों की भाषा क्यों नहीं है? ऐसा नहीं है कि ये सवाल पहले कभी नहीं पूछे गए। सच यही है कि हम पिछले 60-64 सालों से कर्मकांड की तरह यही सवाल दोहरा रहे हैं और जवाब होता है कि यह सब शासक वर्ग की साजिश है। यह अंग्रेजों का रचा गया ऐसा मानसिक ढांचा है जिसको हम तोड़ नहीं पा रहे हैं। कहने-सुनने में यह आरोप बड़े मजबूत और जज्बाती लगते हैं इसीलिए आप 14 सितंबर के तमाम कार्यक्रमों को देखें तो हिंदी को लेकर सिर्फ शासन-प्रशासन को कोसने के अलावा वहां कोई और चर्चा नहीं होती। क्या वाकई हिंदी की दरिद्रता के लिए महज शासन और प्रशासन ही जिम्मेदार हैं? अब वक्त आ गया है जबकि हम एक ही तरीके से सोचने की जगह कुछ नए ढंग से भी विचार करें। सोचने का नया ढंग हमें मजबूर करता है इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कि हिंदी भाषा की मौजूदा दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण खुद हिंदी समाज और उसका पाखंड है।


दुनिया में जब भी कोई भाषा शिखर पर पहुंचती है तो उसे सरकार नहीं ले जाती, बल्कि वह समाज ले जाता है जो उस भाषा को बोलता है। सात करोड़ कोरियनों की भाषा, 13 करोड़ जापानियों की भाषा और 120 करोड़ से ज्यादा चीनियों की भाषा मंदारिन दुनिया में सम्मान का हक तभी हासिल कर पाई, जब इन समाजों ने अपनी भाषा के लिए दिलोजान से और लगन-लगाव से काम किया व उन्हें अपनी सत्ता तथा प्रतिष्ठा से जोड़ा। अब जरा हिंदी समाज का सच देखिए। हिंदी में पढ़कर डिग्री हासिल करने वाले हर साल 15 लाख से ज्यादा ग्रेजुएट निकलते हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि हमारे पास एक भी मानक इनसाइक्लोपीडिया नहीं है। यह सरकार की विफलता नहीं है, बल्कि हिंदी समाज की विफलता है।


लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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