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सामान्य तौर पर उपचुनाव के परिणाम आम चुनाव के दिशा संकेत नहीं होते। फिर भी कोई-कोई उपचुनाव बड़े बदलाव की ओर इशारा करते हैं। 1962 के आम चुनाव के बाद अमरोहा और फर्रुखाबाद के उपचुनाव में आचार्य कृपलानी और डॉ. राम मनोहर लोहिया जीतकर संसद पहुंचे। उन चुनावों ने आजादी के बाद की राजनीति में जबरदस्त बदलाव की शुरुआत कर दी। पहली बार पं. नेहरू की सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव आया और सभी विपक्षी दलों में बदलाव की तड़प पैदा हुई। डॉ. लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद का नारा देकर समयबद्ध न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर प्रतिपक्षी पार्टियों को इकट्ठा करने में सफलता पाई, जिससे उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब आदि राज्यों में कांग्रेस की सत्ता चली गई। इसी तरह 1974 में जबलपुर के उपचुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता सेठ गोविंद दास के खिलाफ शरद यादव को देश के सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने जनता उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ा दिया और कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। जयप्रकाश के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति का बिगुल फूंका जा चुका था। 1971 के चुनाव में बुरी तरह परास्त विपक्षी दलों में नए उत्साह का संचार हुआ और जेपी को सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को साथ लाने में सफलता मिली, जिसके कारण 1977 में पहला राजनीतिक परिवर्तन हुआ।
1988 में वीपी सिंह इलाहाबाद के उप चुनाव में सभी प्रमुख पतिपक्षी दलों के साझा उम्मीदवार थे। देश में पहली बार मुस्लिम लीग और भाजपा एक मंच पर थे। उस अकेले चुनाव ने देश की राजनीतिक हवा बदल दी और 1989 में केंद्र में बड़ा बदलाव हुआ। वीपी सिंह सरकार का सहयोग कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा ने सत्ता से बाहर रह कर किया। इतिहास के उदाहरणों का यह अर्थ नहीं कि अब पुन: इतिहास अपने को शीघ्र ही दोहराने वाला है, लेकिन न केवल हिसार, बल्कि चार अन्य राज्यों में हुए उपचुनावों के परिणाम भी संप्रग के लिए चौंका देने वाले हैं। 1977 के बदलाव में भी आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र कांग्रेस के पीछे चट्टान की तरह अडिग थे, किंतु हाल में आंध्र प्रदेश के एक संसदीय उपचुनाव में कांग्रेस की जमानत चली गई और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने एक दूसरा उपचुनाव जीत लिया। महाराष्ट्र में खड़गवासला विधानसभा सीट उस बारामती लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है जो शरद पवार का गढ़ है। खड़गवासला में मिली हार को पचा पाना कांग्रेस गठबंधन के लिए मुश्किल है।
हिसार के उपचुनाव के संदर्भ में कांग्रेस कह सकती है कि गत चुनाव में भी वह तीसरे नंबर पर थी, लेकिन अभी तो राज्य में कांग्रेस की शक्तिशाली सरकार है। उस राज्य में कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त होना एक चेतावनी भरा संकेत है। जैसे 1967, 1977, 1989 के राजनीतिक परिवर्तनों की पृष्ठभूमि में राजनीतिक भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा था वैसे ही लगता है कि 2014 में भी महापरिवर्तन की राह भ्रष्टाचार के ही गर्भ से निकलेगी। उस दौर के अगुआ डॉ. लोहिया, जेपी, और वीपी सिंह थे। इस दौर की अगुआई क्या अन्ना हजारे और उनकी टीम करेगी? 1974 के दौर में जेपी और उनके आंदोलन को फासिस्टवादी आंदोलन की संज्ञा दी गई थी, क्योंकि उस लड़ाई में आरएसएस और भाजपा की साझेदारी थी। जेपी को गुस्से में कहना पड़ा कि यदि आरएसएस फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं। इतिहास से सबक न लेने वाले कांग्रेसी इस बार भी अन्ना और उनकी टीम पर आरएसएस का सहयोग लेने का आरोप लगाने लगे है। संघ से बहुत लोगों के वैचारिक मतभेद हैं, लेकिन अपनी विफलताओं का इलजाम भी संघ के मत्थे मढ़ने की गलती कांग्रेस के नेता कब तक दोहराते रहेंगे? जब कोई आंदोलन जन आंदोलन का रूप लेता है तो उसमें समाज के सभी हिस्सों की साझेदारी बढ़ जाती है। अन्ना हजारे संघ के साथ के आरोप से अपना पिंड क्यों छुड़ा रहे है? जेपी, लोहिया, वीपी सिंह आदि ने अपने बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्या भाजपा का साथ नहीं लिया था?
हिसार के चुनाव में पिछली बार भजन लाल जैसे कद्दावर नेता लगभग 6900 मतों से जीते थे। इस उपचुनाव में उनके पुत्र कुलदीप बिश्नोई साढ़े छह हजार मतों से जीते। यदि भाजपा का साथ नहीं होता तो चुनाव परिणाम अजय चौटाला के पक्ष में जाता। भाजपा और अन्ना हजारे चाहे जो दलील दें, लेकिन अजय चौटाला को प्राप्त मतों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। हिसार में जाट मतदाताओं की भारी संख्या है और गत चुनाव में भी इनेलो ने भजनलाल के दांत खट्टे कर दिए थे। भजनलाल हमेशा हरियाणा में गैर जाट मतों का प्रतिनिधित्व करते रहे। इस चुनाव में भी कुछ इसी रूप में मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो गया। एक अन्य तथ्य की ओर विश्लेषकों का ध्यान नहीं है और वह है बाबा रामदेव का कांग्रेस विरोधी अभियान। बाबा के आंदोलन में जान गंवाने बाली राजबाला हरियाणा के ही जाट परिवार की महिला थी। बाबा स्वयं हरियाणा वासी हैं और उनके आंदोलन में मार खाने वाले सैकड़ों परिवार हिसार के थे। रामदेव ने राजबाला की शहादत को लेकर हिसार के मतदाताओं से जो मार्मिक अपील की थी वह व्यर्थ नहीं थी। कांग्रेस ने अनेक साधुओं को चुनौती देकर अपनी पराजय का इंतजाम कर लिया है।
कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाली संप्रग सरकार ने जिस तरह अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों को गठबंधन धर्म के नाम पर देश लूटने की खुली छूट दे दी और जिसके परिणामस्वरूप संवैधानिक संस्थाओं को आगे आकर सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोलनी पड़ी उससे मनमोहन सरकार की बदनामी काफी बढ़ी। अकेले प्रधानमंत्री की ईमानदारी की चर्चा पृष्ठभूमि में चली गई और देश की सबसे बड़ी अदालत को टिप्पणी करनी पड़ी कि प्रधानमंत्री के पत्र पर सरकार ने ध्यान दिया होता तो राजकोष की ऐसी लूट नहीं हुई होती। इसका अर्थ है कि भ्रष्टाचार रोकने में प्रधानमंत्री लाचार हैं। इस आरोप का समाधान इस नेतृत्व के रहते संभव नहीं लगता। देश में महंगाई आसमान छू रही है। महंगाई और भ्रष्टाचार की समस्याओं को समाप्त करने की प्रधानमंत्री लगातार तिथि घोषित करते हैं। उनके पास एक निश्चित नारा है कि भ्रष्टाचार और महंगाई दूर करने के लिए जादू की कोई छड़ी नहीं है। यह वाक्य उनकी लाचार हालत का सबूत है। कांग्रेस और उसके सिपहसालार हिसार की करारी हार पर गंभीर मंथन करें और आगे का रास्ता दो वर्ष में पूरा करने का संकल्प लें अन्यथा सहयोगियों के साथ कांग्रेस की नाव डूब जानी है। उसके बचने का कोई रास्ता नहीं है।
लेखक मोहन सिंह राज्यसभा सदस्य हैं
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