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दिल्ली पर हिंदी और अंग्रेजी में बहुत किताबें छप चुकी हैं। इनमें से सिर्फ दो मैंने पढ़ी हैं, लेकिन दिल्ली की ट्रेजेडी के बारे में जानने के लिए किताबें पढ़ना जरूरी नहीं है। इसे हम अपनी आंखों से देख सकते हैं। जो यहां लंबे समय से रह रहे हैं या रह चुके हैं, उनकी जुबानी सुन सकते हैं। यह तो सभी का मानना है कि दिल्ली जो एक शहर था, अब रहने लायक नहीं रह गया है। एक जमाने में दिल्ली की अपनी खुशबू थी। अपना रंग-रूप था। जीवन की लय मंद थी, पर लोग खुश थे। बसों में आमतौर पर बैठने के लिए जगह मिल जाती थी। सड़कें आज की तुलना में तंग थीं, फिर भी आने-जाने और टहलने में मुश्किल नहीं होती थी। इतनी गाडि़यां नहीं थीं। फिर भी मिलना-जुलना बहुत ज्यादा होता था। तहजीब भले ही छीज रही हो, पर तमीज नष्ट नहीं हुई थी। लोग दिल्ली का निवासी होने पर गौरव का अनुभव करते थे। श्रीकांत वर्मा की तर्ज पर कहा जा सकता है कि अब लखनऊ, लखनऊ नहीं रहा। शिमला, शिमला नहीं रहा और दिल्ली भी दिल्ली नहीं रही। एक मायने में कोई भी शहर ज्यादा दिनों तक वह रह ही नहीं सकता, जो वह कभी था। परिवर्तन इतिहास का अकाट्य नियम है। लेकिन पिछली दो-तीन पीढि़यों ने दिल्ली में जो परिवर्तन देखा है, उसके मूल में इतिहास का कोई नियम नहीं, बल्कि आधुनिक विकास की विडंबना है।
भारत सात लाख गांवों का वह देश नहीं रह सकता था, जो वह महात्मा गांधी के समय में था। गांधी जी उस भारत को बचाना भी नहीं चाहते थे। उनकी नजर एक नए भारत पर थी, जिसके गांव अशिक्षा, गंदगी, गरीबी और तानाशाही से मुक्त होंगे। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को भारत के गांवों से घृणा थी, क्योंकि वहां के दकियानूस और अंधविश्वासी माहौल में दलितों के साथ न्याय नहीं हो सकता था। पं. जवाहरलाल नेहरू तो गांवों को जानते तक नहीं थे। उनका मिजाज शहरी था और वे भारत का भविष्य बड़े कारखानों, बड़े बांधों और बड़े शहरों में देखते थे। आज कहा जा सकता है कि गांधी और अंबेडकर दोनों हारे और जवाहरलाल नेहरू जीते। इस जीत का ही एक नतीजा है वर्तमान दिल्ली, जो अपने विकास का ऐसा शिकार बन चुकी है कि वह अपनी ही नजरों में पराई हो गई है। अगर वर्तमान इतिहास पर रोता है तो इतिहास भी वर्तमान पर आंसू बहा सकता है। दिल्ली के बारे में सबसे खौफनाक खबर 1984 में आई थी, जब वह पागल हो गई थी और सिखों का कत्लेआम कर रही थी। दिल्ली इतिहास के विभिन्न पड़ावों पर ऐसे खूनी दिन कई बार देख चुकी है, लेकिन जब से उसे सामंती युग के बर्बर हमलों से रिहाई मिली, उसने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसी खूंरेजी फिर देखने को मिलेगी। बड़ी उम्मीदें शायद टूटने के ही लिए होती हैं। दिल्ली के बारे में दूसरी खौफनाक खबर यह मिली कि यह बलात्कार के मामले में भारत के अन्य सभी शहरों से बहुत आगे है। फिर यह अपराध नगरी बनने की ओर मुखातिब हुई।
भ्रष्टाचार के मुकदमों में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद वीआइपियों की संख्या को देखते हुए इस अभागे शहर को भ्रष्टाचार की राष्ट्रीय राजधानी भी कहा जा सकता है। अब टाइम पत्रिका के हवाले से जो खौफनाक खबर आई है, वह यह है कि अगले पंद्रह वर्षो में दिल्ली पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर बन जाएगी। जिसके भीतर भी थोड़ी संवेदना बची हुई है, इस खबर से उसके रोंगटे खड़े हो जाने चाहिए। चूंकि मैं भी दिल्ली में रहता हूं और उम्मीद करता हूं कि अगले पंद्रह वर्षो तक जीवित रहूंगा, मैं तो डर से कांप रहा हूं। मेट्रो रेल ने आवागमन की समस्या को थोड़ा कम तीखा बना दिया है, लेकिन कारों की बढ़ती हुई आबादी ने दिल्ली शहर की सुंदरता की हत्या कर दी है। अगर आपके पास अपनी गाड़ी नहीं है तो आप किसी भी जगह निश्चित समय पर पहुंच नहीं सकते। कई बार तो गाड़ी होना भी मदद नहीं करता। नागरिक सेवाएं लगभग एक दशक से दम तोड़ रही हैं। सबसे बुरा हाल शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का है। सरकारी अस्पतालों में रोगियों का मेला लगा रहता है। स्कूलों-कॉलेजों में दाखिला नहीं मिलता। घरों के किराए इस कदर बढ़ गए हैं कि किसी साफ-सुथरे इलाके में रहने के लिए महीने में 25 हजार रुपये से ज्यादा कमाना जरूरी हो गया है। दिल्ली विकास प्राधिकरण के फ्लैटों में पानी का अपना हिस्सा पाने के लिए सुबह पांच बजे उठना जरूरी है। जब अभी यह हालत है तो सोचिए कि वर्ष 2025 में दिल्ली में रहने वालों की हालत क्या होगी, जब इस शहर की जनसंख्या 6 करोड़ 41 लाख हो जाएगी।
फिलहाल दिल्ली में करीब एक करोड़ अस्सी लाख लोग रहते हैं। कई लाख लोग आस-पड़ोस के शहरों से रोज दिल्ली आना-जाना करते हैं और यहां की जनसेवाओं का लाभ उठाते हैं। वर्ष 1901 में इस शहर में सिर्फ चार लाख लोग रहते थे। इस तरह सौ साल में उनकी संख्या में एक करोड़ 76 लाख का इजाफा हो गया। दिल्ली में पूरे देश की राजनीतिक सत्ता संकेंद्रित है। फिर भी यह देखने वाला कोई नहीं है कि यह ऐतिहासिक शहर एक भीड़ में क्यों तब्दील हो रहा है। दिल्ली की बढ़ती हुई आबादी को लेकर लगभग हर साल चेतावनी जारी होती है। कई बार तो खुद सरकार ही चेतावनी जारी करती है। पर कहीं कुछ होता दिखाई नहीं देता।
टाइम पत्रिका की मौजूदा चेतावनी भी बेकार जाएगी, क्योंकि सत्ता के शिखरों पर बैठे हुए लोग जानते हैं कि उनके ही पापों की सजा दिल्ली को मिल रही है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली के लोग ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। सच्चाई ठीक उलटी है। दिल्ली राज्य में जन्म दर देश के दूसरे राज्यों की तुलना में कम ही है। बेशक मृत्यु दर भी कम है, लेकिन दिल्ली की आबादी बढ़ते जाने का सबसे बड़ा कारण अन्य राज्यों से लोगों का भागते हुए यहां आना है। इनमें सफलता के अगले पायदान पर चढ़कर आने वाले भी हैं, पर अगर एक सफल आदमी बाहर से दिल्ली आता है तो पांच विफल आदमी अवसर की तलाश में भागे आते हैं। कुछ पढ़ने के लिए, कुछ रिक्शा खींचने के लिए, कुछ कुलीगीरी करने के लिए, कुछ ऑटो-रिक्शा चलाने के लिए, कुछ मीडिया में समाने के लिए, कुछ छोटी-मोटी दुकानदारी के लिए, कुछ चौकीदारी के लिए और कुछ..। अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो अपने आसपास की दुनिया को देखकर बेहतर अनुमान लगा सकते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, सत्ता के शिखर पर बैठे हुए लोगों ने बरसों पहले, बल्कि आजादी के तुरंत बाद ही यह तय कर लिया था कि हमें पूरे देश का विकास नहीं करना है, रोजगार के अवसरों को राष्ट्र भर में नहीं फैलाना है, खेती को मरने के लिए छोड़ देना है, छोटे-छोटे कारखानों का जाल न फैलाकर सिर्फ कुछ औद्योगिक केंद्र बनाने हैं और सारी सुविधाओं को कुछ बड़े शहरों में केंद्रित कर देना है। अब गांवों और कस्बों की बेरोजगार आबादी जाए तो कहां जाए? पहले वह कोलकाता भागती थी, फिर मुंबई भागने लगी, अब दिल्ली की ओर चली आ रही है। चूंकि देश में लोकतंत्र है, इसलिए इस भगदड़ को कोई रोक नहीं सकता। टाइम ने सिर्फ आंकड़े दिए हैं। काश, वह यह भी बताता कि उत्तर भारत में विकास का सूखा है, इसीलिए दिल्ली अगले पंद्रह सालों में एक बहुत बड़ा स्लम बन जाएगी।
लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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