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आखिरकार 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की लपट गृहमंत्री पी चिदंबरम तक पहुंच ही गई। एक अरसे से विपक्षी दलों द्वारा यह मांग भी की जा रही थी कि स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में चिदंबरम की भूमिका की भी जांच हो, लेकिन सरकार और उसके नुमाइंदों द्वारा डुगडुगी पीटी जा रही थी कि स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में चिदंबरम की कोई भूमिका नहीं रही है। अब जब 25 मार्च 2011 को वित्त मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे गए नोट के उजागर होने के बाद (जिसमें कहा गया है कि अगर चिदंबरम ने स्पेक्ट्रम की बिक्री में रोक लगाई होती तो घोटाले को रोका जा सकता था) से स्पष्ट हो गया है कि पी चिदंबरम न सिर्फ राजा के राजदार रहे हैं, बल्कि स्पेक्ट्रम आवंटन में भी उनकी खूब चली है। गौरतलब है कि जब ए राजा बतौर दूर संचार मंत्री अपनी मनपसंद कंपनियों को कम कीमत पर स्पेक्ट्रम आवंटन कर देश को चूना लगा रहे थे, उस वक्त पी चिदंबरम वित्तमंत्री हुआ करते थे। मामले ने तूल तब पकड़ा, जब सीएजी रिपोर्ट में यह उजागर हुआ कि स्पेक्ट्रम आवंटन की गलत नीति के कारण देशे को एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हुआ है।
विपक्षी दलों ने ए राजा को पद से हटाने की मांग तेज कर दी, लेकिन देखा गया कि सरकार अंत तक ए राजा को दूध का धुला बताती रही। खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह संसद में ए राजा को निर्दोष होने की रट लगाते देखे गए। लेकिन न्यायालय के आगे सरकार का कुतर्क काम नहीं आया और अंतत: ए राजा और फिर कनिमोरी को तिहाड़ जेल जाना ही पड़ा। इसके अलावा कॉरपोरेट हाउस के उन बड़े-बड़े चेहरों को भी तिहाड़ जेल की सैर करनी पड़ी, जिन पर ए राजा की कृपा बरसी थी। आज की तारीख में वे तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि वित्त मंत्रालय के जिस नोट में पी चिदंबरम की भूमिका को लेकर सवाल उठाया गया है, उस आधार पर क्या सरकार को पी चिदंबरम के खिलाफ जांच नहीं करवानी चाहिए? लेकिन देखा जा रहा है कि खुद प्रधानमंत्री तक ने इस नोट को तवज्जो नहीं दिया है, बल्कि वह तो चिदंबरम पर अटूट भरोसा जता रहे हैं। विचित्र लगता है कि जिस आरोप में ए राजा सलाखों के पीछे खड़े हैं, वैसे ही आरोपों का दंश झेल रहे पी चिदंबरम कैबिनेट से चिपके हुए हैं? अब तो ए राजा की इस बात में भी दम दिखाई देने लगा है कि स्पेक्ट्रम आवंटन की जानकारी पी चिदंबरम को थी और उनकी सहमति से ही स्पेक्ट्रम का आवंटन हुआ है, लेकिन सरकार में बैठे लोग ए राजा के बयान को हवा में उड़ा रहे हैं और यह दलील दे रहे हैं कि राजा अपने बचाव में इस तरह की अनर्गल दलीलें दे रहे हैं।
वित्त मंत्रालय के नोट सामने आने के बाद अब डीमके सुप्रीमो करुणानिधि ने भी सरकार पर हमला तेज कर दिया है। वे यह कहते देखे जा रहे हैं कि उनके सांसद निर्दोष हैं और राजा ने जो कुछ भी कहा है, वह सत्य है। लेकिन देखा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी वित्त मंत्रालय के नोट को महत्वहीन करार देते हुए अपने गृहमंत्री के बचाव में उतर आई है। बचाव का तरीका भी उसी तरह है, जैसे दस माह पहले सीएजी की रिपोर्ट को बकवास बताकर ए राजा का बचाव किया जा रहा था। सरकार के वकील पीपी राव द्वारा भी अदालत को उसकी लक्ष्मण रेखा की याद दिलाते हुए यह तर्क दिया जा रहा है कि 2जी घोटाले में अदालत द्वारा आरोप पत्र दायर किए जाने के बाद शीर्ष अदालत का निगरानी का अधिकार खत्म हो जाता है और पीठ को सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर विचार नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन अदालत ने भी यह कहते हुए आइना दिखा दिया है कि अगर सीता ने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होती तो राक्षसों का संहार नहीं होता। मतलब साफ है कि अदालत इस मामले में मुरव्वत के मूड में बिल्कुल ही नहीं है।
वित्त मंत्रालय के इस नोट के तकनीकी पक्ष पर विचार करें तो यह नोट तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा और तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बीच हुई बैठकों व सहमतियों का दस्तावेज भी है, लेकिन इस पत्र की गंभीरता इसलिए बढ़ जाती है कि अगर पी चिदंबरम ने अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया होता तो लाखों करोड़ के घोटाले को रोका जा सकता था। इसके अलावा इस पत्र में 2008 में हुई इन बैठकों का तिथिवार ब्यौरा दिया गया है। साथ ही इस बात की भी पुष्टि की गई है कि तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा और तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम के बीच इस बात को लेकर पूरी सहमति थी कि कंपनियों को 2001 की पुरानी कीमत के आधार पर ही लाइसेंस आवंटित किया जाए। पत्र के मुताबिक, 30 जनवरी 2008 को हुई बैठक में चिदंबरम ने कहा था कि स्पेक्ट्रम देने के लिए पुरानी प्रणाली यानी पहले आओ पहले पाओ ही उचित है। अगर वाकई चिदंबरम की स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई संलिप्तता नहीं थी तो उन्होंने 2001 की पुरानी आवंटन नीति के बजाए स्पेक्ट्रम की नीलामी में अभिरुचि क्यों नहीं दिखाई? जबकि 9 जनवरी 2008 को वित्त मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव द्वारा भी पहले आओ पहले पाओ की नीति का विरोध करते हुए नीलामी के जरिए स्पेक्ट्रम का आवंटन करने का सुझाव दिया गया था। फिर भी 10 जनवरी को बगैर नीलामी के ही आवंटन कर दिया गया।
मजे की बात तो यह है कि उसके ठीक पांच दिन बाद यानी 15 जनवरी को मामले की लीपापोती का प्रयास करते हुए चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख डाला कि 10 जनवरी को हुए आवंटन के अध्याय को समाप्त समझा जाना चाहिए और अब आगे से नीलामी से ही लाइसेंस दिया जाना चाहिए। ऐसे में पी चिदंबरम की आवंटन नीति पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है। इसके बाद भी 29 मई को चिदंबरम और तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा दोनों ही एक साथ बैठककर प्रधानमंत्री को यह संकेत भी दे देते हैं कि इस मामले में वित्त मंत्रालय और संचार मंत्रालय में सहमति है। संदेह को बल तब और मिल जाता है, जब जेपीसी की बैठक में वित्त मंत्रालय के तहत आने वाले आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा यह खुलासा किया जाता है कि उसके पास तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम और संचार मंत्री ए राजा के बीच 29 मई को हुई बातचीत का ब्यौरा नहीं है। क्या इसका मतलब यह नहीं निकलता है कि सरकार चिदंबरम को बचाना चाह रही है? सरकार को बताना चाहिए कि पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा और तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम की बैठक के मिनट्स क्यों उपलब्ध नहीं हैं? अगर सरकार इसे छिपा रही है तो मतलब साफ है कि दाल में कुछ काला जरूर है। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि पिछले दिनों ए राजा के वकील ने अदालत में जो कुछ भी कहा, उसमें सत्यता के अंश मौजूद हैं।
राजा ने अदालत में दावा कर रखा है कि लाइसेंसधारक कंपनियों के अपने शेयर बेचने के मामले पर प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्तमंत्री के बीच कई बार चर्चा हुई थी और स्पेक्ट्रम आवंटन के दौरान वे कई बार प्रधानमंत्री से मिले भी थे। ए राजा के वकील ने तो यहां तक चुनौती दे डाली है कि अगर प्रधानमंत्री इनकार कर सकते हैं तो करके दिखाएं। अब जब मामला चिदंबरम के गले का फांस बनता दिखने लगा है तो प्रधानमंत्री सहित पूरी कांग्रेस पार्टी एक बार फिर मामले की लीपापोती पर उतर आई है। प्रधानमंत्री का यह कहना देश की जनता को विचलित करने वाला है कि चिदंबरम की निष्ठा पर कोई शक नहीं है। राजा के बारे में भी तो ऐसा ही कहा जा रहा था? आखिर क्या हश्र हुआ प्रधानमंत्री की जुबानी पवित्रता का? देश को इस बात से भी कोई मतलब नहीं है कि वित्त मंत्रालय का यह नोट प्रणब बनाम चिदंबरम की लड़ाई का नतीजा है। देश 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में चिदंबरम की भूमिका को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी होते देखना चाहता है, जबकि सरकार पूरी तरह से लीपापोती पर उतर आई है।
लेखक अरविंद कुमार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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