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उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सरकारें दो कलेक्टरों और एक विधायक के अपहरण के सदमे से फिर उबर आई हैं, लेकिन यह सवाल मौजूं है कि आखिर कब तक? उड़ीसा के मलकानगिरी के कलेक्टर से लेकर छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के कलेक्टर के अपहरण तक हमने देखा कि सरकारें इन सवालों पर कितनी बदहवास और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं। यह दर्द शुक्रवार को दिल्ली में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के बयान में भी दिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि अपहरण पर राष्ट्रीय नीति बने और मुख्यमंत्री का भी अपहरण हो तो भी आरोपी छोड़े न जाएं। अब सवाल यह उठता है कि भारतीय राज्य का नक्सलवाद जैसी समस्या के प्रति रवैया क्या है? क्या राज्य इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानता है या माओवाद को एक ऐसी संगठित आतंकी चुनौती के रूप में देखता है, जिसका लक्ष्य 2050 तक भारत की राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा करना है।
नक्सली अपने इरादों में बहुत साफ हैं। वे कुछ भी छिपाते नहीं और हमारे तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे हैं। हजारों करोड़ की लेवी वसूल रहे हैं और अपने तरीके से एक कथित जनक्रांति को अंजाम दे रहे हैं। हर साल हमारी सरकारें नक्सल ऑपरेशन के नाम पर हजारों करोड़ खर्च कर रही हैं, लेकिन अंजाम शून्य है। हमारे हिस्से बेगुनाह आदिवासियों और सुरक्षाकर्मियों की लाशें ही आ रही हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या भारतीय राज्य नक्सलवाद से लड़ना चाहता है? क्या वह इस समस्या के मूल में बैठे आदिवासी समाज की समस्याओं के प्रति गंभीर है? क्या स्वयं आदिवासी समाज के बडे़ पदों पर बैठे नेता, अधिकारी और जनप्रतिनिधि इस समस्या का समाधान चाहते हैं? क्या इस पूरे विमर्श में आदिवासी या आदिवासी नेतृत्व कहीं शामिल है? इन सवालों से टकराएं और इनके ठोस व वाजिब हलों की तलाश करें तो पता चलता है कि सरकार से लेकर प्रबुद्ध वर्गो में इन मुद्दों को लेकर न तो कोई समझ है, न ही अपेक्षित गंभीरता। सरकारें चुनाव जीत रही हैं और माओवाद प्रभावित इलाकों से भी प्रतिनिधि जीतकर आ रहे हैं। सरकार चल रही है और बजट खर्च हो रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार और ऐसे तमाम इलाकों के गरीब परिवारों के बच्चे जो जंगल की बारीकियां नहीं जानते, सीआरपीएफ के सिपाही बनकर यहां अपनी मौत खुद मांग रहे हैं।
जबकि राज्य को पता ही नहीं कि उसे लड़ना है या नहीं लड़ना है। अगर नहीं लड़ना है तो ये लाशें क्यों बस्तर में लगातार गिर रही हैं? हमें इस बात पर सोचना होगा कि आखिर आजादी के इन छह दशकों में हमारा जनतंत्र आम आदमी के लिए स्पेस क्यों नहीं बना पाया। हमें यह भी पता है कि कोई भी भ्रष्ट तंत्र नक्सलवाद जैसी बीमारियों का मुकाबला नहीं कर सकता, क्योंकि वह नक्सल प्रभावित इलाकों में आ रहे विकास के पैसे से लेकर, सुरक्षा के पैसे को भी सिर्फ हजम कर सकता है। देखा यह भी जाना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में जा रहा पैसा आखिर किसके पेट में जा रहा है। यह एक ऐसा समय है, जब हमें कुछ कठोर संकल्प लेने होंगे। किंतु अफसोस यही है कि हम एक गंभीर संकट के सामने हैं और हमारे केंद्र में इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री और राज्य में बेअंत सिंह जैसे मुख्यमंत्री नहीं हैं, जिनके संकल्पों और शहादत से पंजाब आतंकवाद की काली छाया से मुक्त हो सका। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी अपने तरीके से फौरी तौर पर नक्सलवाद पर अंकुश लगाने का काम किया है, लेकिन हम अगले किसी उच्चअधिकारी के अपहरण की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते। इसलिए जरूरी है कि नक्सल प्रभावित राज्य और केंद्र दोनों इस समस्या के परिणाम केंद्रित हल के लिए आगे आएं। हल वार्ता से हो या किसी अन्य तरीके से, हमें बस्तर और इस जैसी तमाम जमीनों पर शांति के फूल फिर से खिलाने होंगे।
बारूदों की गंध कम करनी होगी। लेकिन इसके लिए मिमियाती सरकारों को कुछ कठोर फैसले लेने होंगे। भ्रष्ट तंत्र पर लगाम कसनी होगी, ईमानदार और संकल्प से दमकते अफसरों को इन इलाकों में तैनात करना होगा और उन्हें काम करने की छूट देनी होगी। समाज को साथ लेते हुए और दमन को न्यूनतम करते हुए उनका विश्वास हासिल करते हुए आगे बढ़ना होगा। शायद इससे भटका हुआ रास्ता किसी मंजिल पर पहुंच जाए।
लेखक संजय द्विवेदी नक्सल मामलों के जानकार हैं
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