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अब लगातार एड्स के रोगियों के कम होने की खबरें आ रही हैं। बीती शताब्दी में एड्स को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया था कि महामारी का रूप लेकर एड्स दुनिया को खत्म कर देगा। इसे भय का बड़ा पर्याय मानकर दिखाया जा रहा था। एड्स से जुड़े संगठनों की मानें तो पिछले दशक में हर साल 22 लाख लोग एड्स की चपेट में आकर दम तोड़ रहे थे, लेकिन अब यह संख्या घटकर 18 लाख रह गई है। मसलन, 1997 की तुलना में एड्स के नए मरीजों की संख्या में 21 फीसदी की कमी आई है। कहा जा रहा है कि यदि इस गति से एड्स नियंत्रण पर काम चलता रहा तो दुनिया जल्दी ही एड्स-मुक्त हो जाएगी। यहां हैरजअंगेज पहलू यह है कि जब एड्स के जब सभी मरीजों को उपचार मिल नहीं पा रहा है तो यह बीमारी यकायक घटने क्यों लगी है? दरअसल एड्स को लेकर एक अवधारणा तो पहले से ही चली आ रही थी कि एड्स कोई ऐसी बीमारी नहीं है, जो लाइलाज होने के साथ केवल यौन संक्रमण से फैलती हो? इस कारण इसे सुरक्षित यौन उपायों और दवाओं के कारोबार का आधार भी माना जा रहा था। दुनिया में आई आर्थिक मंदी ने भी एड्स की भयावहता को कम करने का सकारात्मक काम किया है। दरअसल, अब तक एड्स पर प्रतिवर्ष 22 सौ करोड़ डॉलर खर्च किए जा रहे थे, लेकिन अब बमुश्किल 1600 करोड़ डॉलर ही मिल पा रहे हैं। इस कारण स्वयंसेवी संगठनों को जागरूकता के लिए धनराशि मिलनी कम हुई तो एड्स रोगियों की भी संख्या घटनी शुरू हो गई? अगर इन संगठनों को धन देना बंद कर दिया जाए तो एड्स पूरी तरह नियंत्रित हो जाएगा।
दुनिया में कथित रूप से फैला एड्स एक ऐसी महामारी है, जिसकी अस्मिता को लेकर अवधारणाएं बदलने के साथ-साथ दुनिया के तमाम देशों के बीच परस्पर जबरदस्त विरोधाभास भी सामने आते रहे हैं। हाल ही में एड्स से बचाव के लिए जो नई अवधारणा सामने आई हंै, उसके अनुसार एड्स से बचाव के लिए टीबी (क्षय रोग) पर नियंत्रण जरूरी है। यह बात कनाडा के टोरंटो शहर में संपन्न हुए सोलहवें एड्स नियंत्रण सम्मेलन में प्रमुखता से उभरी है। इस सम्मेलन में यह तथ्य उभरकर सामने आया कि दुनिया भर में जितने एचआइवी संक्रमित लोग हैं, उनमें से एक तिहाई से भी ज्यादा टीबी से पीडि़त हैं। अब सच्चाई यह है कि एड्स को लेकर दुनिया के वैज्ञानिक खुले तौर से दो धड़ों में बंट गए हैं। आर्थिक मंदी के चलते अब उन लोगों का पक्ष प्रबल होता जाएगा, जो एड्स को महामारी नहीं मानते। क्योंकि 1990 के दशक में एड्स का हौवा फैलाने वाले लोगों का दावा था कि 15-20 सालों के भीतर अफ्रीकी देशों की आबादी पूरी तरह बरबाद हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
मध्य और दक्षिण अफ्रीकी देशों की आबादी लगातार बढ़ रही है। उनके नवजात शिशुओं में एड्स के कोई लक्षण भी देखने में नहीं आ रहे हैं। एड्स से पीडि़त पांच युवक सबसे पहले जून 1981 में अमेरिका में पाए गए थे। तभी इस तथाकथित महामारी का पता चला था, लेकिन खासतौर से अमेरिकी विशेषज्ञों ने एक अवधारणा गढ़ी कि यह बीमारी 1970 से ही फैल रही थी और इसके वायरस पता चलने से पहले ही दुनिया के सभी देशों में फैल चुके थे। फिर अमेरिका और यूरोपीय देशों के वैज्ञानिक व चिकित्सकों ने पूरी दुनिया में यह अवधारणा फैलाई की एड्स के पहले वायरस अफ्रीका में पाए जाने वाले बंदर की एक प्रजाति में पाए गए थे। बंदर से यह पूरे अफ्रीका, अमेरिका और फिर इस वायरस का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। लेकिन कालांतर में इस वायरस पर हुए अनुसंधानों ने एड्स के जन्म के अमेरिकी तथ्य को सर्वथा झुठला दिया।
अफ्रीका के बुद्धिजीवियों ने बाद में कहा भी कि नस्लीय सोच के चलते श्वेत लोग हर बुराई को अश्वेतों पर लादने के तरीकों की खोज में लगे रहते हैं। भारत के बुद्धिजीवी भी इस महामारी के संदर्भ में नए सिरे से सोचने लगे है। उनका कहना है कि एड्स दुनिया की बीमारियों में एकमात्र ऐसी बीमारी है, जो दीन-हीन, लाचार, कमजोर और गरीब लोगों को ही गिरफ्त में लेती है, ऐसा क्यों? जबकि अन्य बीमारियों के साथ ऐसा नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि एड्स के मूल में क्या है और उसका उपचार कैसे संभव है? इस पर अभी खुले दिमाग से नए अनुसंधानों की और जरूरत है? इस सब के बावजूद यह एक अच्छी बात है कि डब्ल्यूएचओ ऐसे आंकड़े देने लगा है, जो एड्स के रोगियों की तादाद कम दर्शाते हैं। दुनिया में आर्थिक मंदी के हालात दो-चार साल ऐसे ही बने रहे तो तय है एड्स लगभग खत्म ही हो जाएगा।
लेखिका पारुल भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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