Menu
blogid : 5736 postid : 3244

खानाबदोश जातियों की त्रासदी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

इटली के तुरिन शहर के उपनगर वेलेट का वह दृश्य देखकर भारत के किसी शहर या नगर की याद ताजा हो सकती है जब यूरोप के खानाबदोश कहे गए रोमाओं की बस्ती, जिन्हें जिप्सी भी कहा जाता है-इतालवी लोगों के हमले एवं आगजनी का शिकार हुए। दरअसल 10 दिसंबर को वहां तुरिन शहर के उपनगर वेलेट के पास स्थिति रोमाओं की बस्ती पर वहां बसे इतालवी लोगों ने हमला कर भयंकर आगजनी की और वहां लंबे समय से बसे जिप्सियों को खदेड़ दिया। बहाना बना 16 साल की एक इतालवी लड़की का यह झूठा दावा कि उसके साथ दो रोमाओं ने अत्याचार किया। अधिकतर हमलावर खुद निम्न तबके से थे जो तूरिन की अब बंद हो चुकी फैक्टि्रयों में काम करने के लिए गए थे। मालूम हो कि यह कोई पहला मौका नहीं है जब रोमाओं की बस्ती पर हमले हुए या उन्हें खदेड़ा गया। कुछ समय पहले इटली के नेपल्स शहर में भी रोमाओं की बस्ती हमले का शिकार हुई थी। मालूम हो कि किसी रोमा महिला द्वारा किसी बच्चे को चुराए जाने के आरोप के बाद इस बस्ती का ऐसा हाल किया गया। नेपल्स के वे युवा जिन्होंने मोलोटोव काकटेल्स की बोतलें फेंककर बस्ती का यह हाल किया वह यह कहते हुए दिखे कि वे नस्लीय शुद्धिकरण की मुहिम में जुटे हैं।


भारत में रहने वाले विभिन्न खानाबदोश समुदायों की तरह ही यूरोप के रोमाओं की स्थिति है। वे विभिन्न तरह के नस्लीय उत्पीड़न का शिकार होते आए हैं। आज के समय में इटली में रोमाओं की अर्थात जिप्सियों की आबादी डेढ़ लाख हैं। इनमें 70 हजार बाकायदा इटली के नागरिक हैं। 2001 में जब दक्षिण अफ्रीका के डरबन में नस्लवाद तथा वंश आधारित उत्पीड़न के खिलाफ संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में विश्व सम्मेलन हुआ तो उसमें भी रोमा लोगों के खराब होते हालत पर निगाह डाली गई थी। ब्रिटेन के सम्मानित अखबार गार्डियन ने कुछ समय पहले इटली में किए गए सर्वेक्षण का हवाला देते हुए विस्तृत समाचार दिया था। इसके मुताबिक 68 फीसदी लोगों ने बताया कि वे चाहते हैं कि रोमाओं को देशनिकाला दे दिया जाए। यही समय था जब तत्कालीन नवनिर्वाचित इटली के राष्ट्रपति बर्लुस्कोनी ने अप्रवासियों को शैतान की सेना घोषित किया और वह राजधानी रोम में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली बार मुसोलिनी के मुरीद मेयर पद पर काबिज होने में कामयाब हुए थे।


द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में इटली के आर्थिक विकास के दिनों में तुरिन की फैक्टि्रयों में काम करने के लिए दक्षिण इटली से आने वाले प्रवासियों के लिए बसे वेलेट उपनगर पर इटली के आर्थिक संकट की छाया आसानी से देखी जा सकती है। विकसित यूरोप का हिस्सा कहे गए इटली से रोमाओं को देश निकाला देने की तैयारियां देश के कुछ हिस्सों में खानाबदोश समुदाय पर हुए अत्याचारों की याद ताजा करती हैं। नेपल्स की घटना के कुछ समय पहले सूबा मध्य प्रदेश के मुल्तई जिले से खबर आई थी जिसमें पिछड़ी जाति के लोगों ने उस इलाके में लंबे समय से रह रहे खानाबदोश समुदाय के लोगों पर यह कहकर हमला किया था कि उन्होंने किसी महिला के साथ अत्याचार किया। हमले में इस समुदाय के दो लोगों को मार डाला गया। आसपास के इलाके के रहने वाले लोगों की भीड़ इतनी आक्रामक थी कि उन्हें रातों रात 300 किलोमीटर दूर भोपाल भेज दिया गया। वहां आज भी वह बदहाल घूमने के लिए अभिशप्त हैं। उसी दौरान एक घटना बिहार के वैशाली जिले से आई जहां नट नाम के खानाबदोश जाति के लोगों को चोरी के शक में मार डाला गया, जो गांव में अपने किसी परिचित के यहां शादी के सिलसिले में आए थे। पुलिस वालों ने भी तत्काल इन मृतकों के खिलाफ चोरी का केस दर्ज किया।


खानाबदोश जातियों को आज डीनोटिफाइड ट्राइब्स यानी विमुक्त जाति नाम से जाना जाता है। यह वही जातियां हैं, जिन्हें ब्रिटिश उपनिवेश के दिनों में अपराधी जातियां कहा जाता था और कहा जाता था कि वे अलग-अलग किस्म के गैर जमानती अपराधों को अंजाम देने के आदी हैं। एक बार जब किसी जाति को अपराधी के तौर पर मान लिया जाता था, तब उसके सदस्यों की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वे स्थानीय मजिस्ट्रेट के यहां अपना नाम दर्ज कराएं और ऐसा न करने पर भारतीय दंड विधान के तहत उन्हें अपराध के लिए जिम्मेदार माना जाता था। आजादी के बाद क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1952 में भले ही इस नोटिफिकेशन को समाप्त कर दिया गया, लेकिन इसका स्थान हैबिचुअल अफेंडर्स एक्ट ने लिया। यह कानून पुलिस को इजाजत देता है कि वह संदिग्ध की आपराधिक प्रवृत्ति को जांचे और पड़ताल करे कि क्या उसका व्यवसाय स्थाई किस्म की जीवनशैली के लिए अनुकूल है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की भेदभाव विरोधी इकाई कमेटी ऑन द एलिमिनेशन ऑफ रेशियल डिसक्रिमिनेशन ने भारत सरकार से यह अपील की है कि वह इस अधिनियम को खारिज कर दे और इन विमुक्त जातियों का प्रभावी पुनर्वास करे। मगर अभी इस दिशा में कोई खास पहल नहीं हो सका है।


वर्ष 1931 में इन जातियों की समुदाय आधारित आखिरी जनगणना हुई थी। इसके बाद से इनकी आबादी का अनुमान प्रोजेक्शन के आधार पर ही किया जाता है। वैसे समुदाय विशेष के समूचे लोगों का अपराधीकरण का सिलसिला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ रहा है। सांप्रदायिक तनाव की स्थिति में या जातिगत तनावों की पृष्ठभूमि में ऐसी घटनाएं अक्सर सामने आती हैं। एक तरह से देखें तो राज्य और सिविल समाज के वर्चस्वशाली हिस्से के बीच इस मामले में साफ अपवित्र गठबंधन दिखता है। इस मामले में राजस्थान की हालिया घटनाएं प्रमाण पेश करने वाली हैं। जयपुर की एक अदालत ने पिछले दिनों ऐसे 11 निरपराध लोगों को बरी किया जिन्हें 2008 के जयपुर बम धमाके की घटना को अंजाम देने के आरोप में जेल में ठूंसा गया था। याद रहे कि इन बम धमाकों में साठ से अधिक लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हो गए थे और उसमें शक की सुई कथित तौर पर बांग्लादेश में बने संगठन हूजी पर था। पुलिस के इस संदेह की गाज राजस्थान में जगह-जगह बसे बांग्लाभाषियों विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय से संबद्ध लोगों पर गिरी। यही हाल मालेगांव बम धमाके 2006 तथा मक्का मस्जिद बम धमाके के बाद भी दिखी थी। सभी जानते हैं कि हमारे समाज में आम नागरिकों को अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों के बावजूद पुलिस के हाथों आएदिन प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।


अक्सर ऐसे मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ही नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी चिंता का इजहार करता रहता है। इस पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है कि ऐसा कोई कदम बांग्लादेशियों के नाम पर आबादी के कितने बड़े हिस्से के मानवाधिकार उल्लंघन का सबब बन सकता है। विडंबना यही है कि आतंकी हमले जैसी किसी घटना के बाद समूचा वातावरण इतना जज्बाती किस्म का हो जाता है कि यह प्रश्न उठाना भी खतरे से खाली नहीं होता कि क्या ऐसा कदम संविधान की मूल भावना के अनुकूल है और क्या संविधान के तहत समूचे समुदाय को निशाने पर रखने की छूट दी गई है?


लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh