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भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग

जागरण मेहमान कोना
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Subhash kashyapभ्रष्टाचार को लेकर मध्य वर्ग और युवाओं में भारी आक्रोश है। इससे आज देश का एक बड़ा जनमानस प्रभावित और परेशान है। इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर लड़ाई लड़ रही सिविल सोसाइटी की मांगों के प्रति सरकार का टकरावपूर्ण रवैया किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता, बल्कि यह सरकार की हठधर्मिता का परिचायक है। यह संसदीय लोक प्रक्रिया की दृष्टि से भी हटकर है। देश के प्रत्येक नागरिक को संविधान ने यह अधिकार दिया है कि वह न केवल अपनी मांगें कर सकता है, बल्कि इससे संबंधित प्रस्ताव अथवा बिल सरकार के पास विचारार्थ प्रस्तुत कर सकता है। इस प्रस्ताव अथवा बिल को मानना या न मानना सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और वह चाहे तो इसे संसद में रखे अथवा न रखे? अन्ना हजारे की टीम द्वारा बनाया गया जनलोकपाल बिल भी इसी श्रेणी में आता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अन्ना हजारे की टीम और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच लंबे विचार-विमर्श और मेल-मिलाप के बावजूद संसद की स्थाई समिति के पास जो प्रस्ताव भेजा गया वह सशक्त लोकपाल की संभावनाओं को कमजोर करने वाला है। इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ाई के प्रति बहुत प्रतिबद्ध नहीं है और उससे यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि वर्तमान राजनीतिक दल व्यवस्था और निर्वाचन व्यवस्था दोषपूर्ण होने से भ्रष्ट लोगों की संख्या संसद में अधिक है और भ्रष्ट लोग कतई नहीं चाहेंगे कि ऐसा कोई प्रस्ताव पारित हो अथवा कानून बने जिससे उनकी बाहें आसानी से मरोड़ी जा सकें।


भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए अन्ना की टीम को और देश के दूसरे वर्गो को कुछ अधिक व्यावहारिक बातों पर जोर देने की आवश्यकता है। सबसे पहले हमें इस बात को समझना होगा कि भ्रष्टाचार है क्या और इसके कारण व स्नोत क्या हैं? भ्रष्टाचार की जड़ में व्यवस्था सर्वोपरि है और व्यवस्था को बदले बिना हम भ्रष्टाचार से लड़ाई नहीं लड़ सकते। इस व्यवस्था में बदलाव के लिए जो सबसे पहला कदम है वह दोषपूर्ण राजनीतिक दल व्यवस्था और निर्वाचन प्रक्रिया में तत्काल सुधार लाने का है। इसके अलावा हमें संसदीय, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में भी बड़े स्तर पर बदलाव करने होंगे, जिसके लिए अधिक बड़े प्रयास की आवश्यकता है। अन्ना हजारे को समझना चाहिए कि उनकी लड़ाई भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए है, न कि जनलोकपाल के लिए। एक सशक्त लोकपाल की उनकी लड़ाई सही है, लेकिन यह मान लेना भी ठीक नहीं होगा कि केवल लोकपाल बना देने से भ्रष्टाचार का रावण मर जाएगा।


लोकपाल के दायरे में न्यायपालिका और प्रधानमंत्री को अनिवार्य रूप से शामिल करने की उनकी मांग भी सही नहीं है, क्योंकि किसी एक संस्था के पास इतनी अधिक शक्तियां होना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं होगा। एक ही लोकपाल को इतनी अधिक शक्तियां देने से बेहतर यह है कि हम संसदीय लोकपाल अलग बनाएं और न्यायिक लोकपाल अलग। इससे संस्थाओं के बीच परस्पर टकराव को भी रोका जा सकेगा और उनके अधिकार क्षेत्रों की विशिष्टता भी कायम रहेगी, लेकिन इसके लिए दोनों ही पक्षों को फिर से मिल-बैठकर एक राजनीतिक समाधान तलाशने की दिशा में काम करने की जरूरत है। जहां तक अन्ना के आमरण अनशन की बात है तो यह भी सही नहीं है, क्योंकि समाधान का रास्ता बातचीत से ही निकल सकता है, न कि अपनी बातों पर अड़े रहने से। सरकार ने शुरुआत में ही अन्ना को गिरफ्तार करके उन्हें और उनके समर्थकों को और अधिक आक्रोशित होने का मौका दे दिया जिसके लिए निश्चित रूप से सरकार दोषी है, लेकिन अब जब सरकार ने भी बातचीत की पेशकश की है तो अन्ना की टीम को फिर से अपनी बातें रखनी चाहिए। एक रास्ता यह भी हो सकता है कि अन्ना की टीम संसद की स्थाई समिति के सामने अपनी बातें और प्रस्ताव पेश करे। इसके अलावा कोई सांसद व्यक्तिगत रूप से भी सिविल सोसाइटी के बिल को संसद में पेश कर सकता है।


संसद की स्थाई समिति के पास सरकार द्वारा रखा गया लोकपाल बिल का स्वरूप अभी अंतिम नहीं है और इसमें फेरबदल किया जा सकता है। स्थाई समिति जब इसे अंतिम स्वरूप दे देगी तो इसे संसद के पटल पर पेश किया जाएगा, जिस पर संसद सदस्य बहस करेंगे और यदि आवश्यक हुआ तो इसके प्रावधानों में अंतिम अनुमति मिलने से पहले बदलाव किया जा सकता है। इसलिए अभी भी वक्त है कि टकराव के रास्ते को छोड़कर आम सहमति का रास्ता तलाशा जाए। दूसरे यह भी समझना होगा कि सरकार और संसद एक नहीं है। यदि सरकार अन्ना की बातों को नहीं मानती है तो संसद में जाया जा सकता है, जिसके लिए बाकी राजनीतिक दलों को पहल करने की जरूरत है। अन्ना हजारे को चाहिए कि वह अपना आमरण अनशन खत्म करें और संवैधानिक प्रक्रिया में किसी तरह की बाधा न पैदा होने दें। सिविल सोसाइटी पूरे देश की प्रतिनिधि नहीं हो सकती और संसद उससे कहीं अधिक सर्वोच्च और संप्रभु है। इसलिए अपनी बात अनिवार्य रूप से मनवाने के लिए संसद पर किसी तरह का दबाव अथवा शर्ते थोपना ठीक नहीं होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान व्यवस्था में तमाम खामियों, व्यापक भ्रष्टाचार और असंवेदनशीलता के कारण ही स्थितियां इतनी उलझी हैं।


सरकार का यह कहना सही नहीं है कि सिविल सोसाइटी का मसौदा संसद में नहीं पेश किया जा सकता है। यदि सोनिया गांधी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रस्तावों को कैबिनेट की मंजूरी से संसद में रखा जा सकता है तो सिविल सोसाइटी के प्रस्तावों को सरकार अपने प्रस्ताव में शामिल क्यों नहीं कर सकती? इस संदर्भ में हमें नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जैसी सुपर कैबिनेट संस्थाओं की कोई वैधानिकता नहीं है इसलिए सिविल सोसाइटी को भी संसद का पर्याय नहीं माना जा सकता, लेकिन यहां सवाल भ्रष्टाचार के मुद्दे का है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के दायरे और अधिकार क्षेत्र की व्याख्या में पड़ने से ज्यादा जरूरी भ्रष्टाचार के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का है, जो अन्ना का भी उद्देश्य है। आज जो सबसे बड़ी जरूरत है वह है पूरी व्यवस्था में बदलाव लाने की, क्योंकि सख्त कानून बना देने भर से परिवर्तन आ जाने की अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा। तात्कालिक तौर पर निर्वाचन और राजनीतिक दल व्यवस्था में ऐसा बदलाव लाया जाए ताकि भ्रष्ट लोग चुनकर ही न आ सकें और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक भ्रष्टाचार का कैंसर खत्म नहीं होने वाला।


लेखक सुभाष कश्यप संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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