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चालबाज चीन की चेतावनियों के मायने

जागरण मेहमान कोना
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Satish Pednekarपिछले दिनों भारत ने नई दिल्ली में हो रहे बौद्ध सम्मेलन को संबोधित करने से दलाई लामा को रोकने की चीन की अपील को नहीं माना तो कुपित चीन ने 28-29 नवबंर को होने वाली भारत-चीन सीमा वार्ता के पंद्रहवें दौर को रद्द कर दिया। राजनयिक हलकों में इसे भारत-चीन रिश्तों के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा रहा, लेकिन कई रक्षा विशेषज्ञों का मत रहा है कि भारत-चीन सीमा वार्ता एक रस्म अदायगी और एक अंतहीन व बांझ सिलसिला भर रह गई है, जिससे भारत-चीन सीमा विवाद हल होने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं हैं। कहना न होगा कि चीन के हालिया तेवर देखकर तो लगता है कि उनकी इन बातों में दम है। अगले वर्ष भारत-चीन युद्ध को पचास साल पूरे हो जाएंगे, लेकिन इस बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए कई दौर की बातचीत हो जाने के बावजूद सीमा विवाद जस का तस है। वर्ष 1981 से भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर बातचीत चल रही है। अब तक 14 दौर हो चुके हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। दरअसल, चीन बातचीत का दिखावा कर रहा है। दोनों देशों के बीच पुराने सीमा विवाद खत्म नहीं हुए हैं, जो 1962 के युद्ध का कारण बने थे और चीन नए-नए सीमा विवाद पैदा करता जा रहा है। पूर्वी क्षेत्र में मामला अब मैकमोहन लाइन का नहीं रहा। चीन अब पूरे अरुणाचल को ही अपना हिस्सा बता रहा है।


पश्चिमी क्षेत्र में चीन का पहले कश्मीर के अक्साई चीन पर दावा था, लेकिन अब वह पूरे कश्मीर को ही विवादास्पद बता रहा है। हमारी सरकार भारत-चीन संबंध सुधरने के कितने ही दावे क्यों न करे, हकीकत यह है कि चीन आए दिन सीमाओं को लेकर कोई न कोई बवाल पैदा करता है। पिछले कुछ वर्षो में चीन की सेना सैकड़ों बार सीमा का अतिक्रमण कर चुकी है। भारत सरकार और भारतीय सेना भी अब इन्हें गंभीरता से नहीं लेती और यह कहकर लीपापोती कर दी जाती है कि सीमा का अंकन न होने के कारण चीन के सैनिक गश्त लगाते समय भटककर हमारे क्षेत्र में आ जाते हैं। इसे अतिक्रमण नहीं माना जाना चाहिए। कश्मीर में तो चीन की सेना ने भारत द्वारा कराए जा रहे निर्माण कार्यो तक को रुकवा दिया और भारत सरकार उसका करारा जवाब देने के बजाय उस पर पर्दा डालने की कोशिश में लगी रही। चीन अक्सर कोई न कोई ऐसा नक्शा जारी करता है, जिसमें भारत के किसी क्षेत्र को अपना इलाका बताया जाता है। पिछले वर्षो में वह पूरे अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताकर उस पर अपना दावा जताता रहा है। यही नहीं, इसे लेकर वह बवाल भी पैदा करता रहा है।


2007 में चीन ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की एक टीम को इसलिए वीजा देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उस टीम में अरुणाचल प्रदेश कैडर का भी एक अधिकारी शामिल था। इस तर्क के आधार पर अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री अपांग को भी चीन ने वीजा देने से इनकार कर दिया था। चीन की दलील है कि अरुणाचल उसका दक्षिणी हिस्सा है और अपने ही देश में आने के लिए वीजा की क्या जरूरत। इसी तरह चीन ने दलाईलामा की अरुणाचल के तवांग की यात्रा को लेकर बहुत शोर मचाया। वर्ष 2009 में एशियन विकास बैंक द्वारा अरुणाचल प्रदेश हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट की राशि को चीन ने अपने प्रभाव के जरिये रोक दिया। चीन नए-नए हथकंडे अपनाकर जम्मू-कश्मीर के बारे में भी ऐसे ही विवाद खड़े करने लगा है। अपने एक नक्शे में उसने कश्मीर को विवादित क्षेत्र के रूप में दिखाया और अपने इस नजरिये पर जोर देने के लिए उसने जम्मू-कश्मीर के लोगों को अलग तरह का वीजा देना शुरू किया। जम्मू-कश्मीर को हड़पने या उस पर अप्रत्यक्ष प्रभुत्व स्थापित करने की चीन की कोशिश का ही नतीजा है कि आज भारत के पास जम्मू-कश्मीर का महज 45 प्रतिशत हिस्सा है। 35 प्रतिशत पाकिस्तान के पास और बाकी 20 प्रतिशत को चीन ने हड़प लिया है। इसके अलावा चीन पाक अधिकृत कश्मीर में भी बहुत सुनियोजित ढंग से अपना सैनिक प्रभाव बढ़ा रहा है।


भारत-चीन सीमा को लेकर चीन हमेशा पैंतरे बदलकर सीमा विवाद को और पेचीदा बना देता है। भारत-चीन दुनिया के अनोखे देश हैं, जिनके बीच की 4057 किलोमीटर की सीमा सुपरिभाषित नहीं है। इसकी वजह यह है कि भारत और चीन भले ही एशिया के सबसे प्राचीन सभ्यता वाले देश रहे हों, लेकिन वे कभी पड़ोसी नहीं रहे। 1950 में चीन द्वारा भारत और अपने बीच के बफर राज्य तिब्बत पर बलपूर्वक कब्जा किए जाने के बाद दोनों देश पड़ोसी बने। इसलिए भारत-तिब्बत की सीमा भारत-चीन सीमा बन गई और चीन हमारा पड़ोसी बन बैठा। नतीजतन भारत और चीन ही दुनिया के ऐसे देश रह गए हैं, जिनके बीच परस्पर तय की गई सीमा रेखा नहीं है। इसके विपरीत यदि कश्मीर को छोड़ दिया जाए, जहां नियंत्रण रेखा है तो भारत-पाकिस्तान के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा है, जो स्पष्ट रूप से निर्धारित और अंकित है। चीन के रवैये के कारण सीमा वार्ता का हर दौर रस्म अदायगी भर रह जाता है। दोनों देशों के वार्ताकार हर बार मिलते हैं। गर्मजोशी से हाथ मिलाते हैं और अगली बार फिर मिलने के वायदे के साथ बातचीत खत्म हो जाती है। दरअसल, पिछले तीस साल की बातचीत की निरर्थकता के बाद भारत इस हकीकत को समझने में असफल रहा है कि वह एक ऐसे विरोधी देश के साथ सफल बातचीत की आस लगाए हुए है, जिसकी सीमा विवाद सुलझाने में दिलचस्पी नहीं है।


कड़वी सच्चाई यह है कि इस लंबी बातचीत के दौरान भारत और चीन के बीच का शक्ति संतुलन बेहद बदल गया है, क्योंकि चीन अब एक सैन्य और आर्थिक महाशक्ति बन गया है। सामरिक समीकरणों को भी उसने अपने बस में कर लिया है। इसलिए अब वह चाहता है कि सीमा विवाद सुलझे तो सिर्फ उसकी शर्तो पर, जिसकी संभावना कम है। इन दिनों चीन लगातार यह संकेत दे रहा है कि सीमा विवाद न सुलझे। अभी चीन को सीमा विवाद को हल न करने में कई सामरिक लाभ नजर आ रहे हैं। अनिर्धारित सीमा से सामरिक लाभ तो यह है कि अगर भारत कभी तिब्बत के मुद्दे को ज्यादा तूल देने लगे या अमेरिका के साथ सैन्य गठबंधन कर ले तो वह सीमा पर सैनिक दबाव बढ़ा सकता है। उसके सदाबहार मित्र पाकिस्तान को भी इसका लाभ मिल रहा है। सुपरिभाषित सीमा न होने के कारण भारत को इतनी लंबी सीमा की रक्षा के लिए बड़े पैमाने पर सेना तैनात रखनी होती है और भारत कभी भी पाकिस्तान पर पूरा सैनिक दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं होता। वर्ष 1981 से लेकर 2002 के बीच सीमा वार्ता में भारत की मुख्य प्राथमिकता यह थी कि नियंत्रण रेखा पूरी तरह से स्पष्ट हो जाए और समग्र सीमा निर्धारण के चीनी प्रस्ताव पर खुले दिमाग से विचार किया जाए। इसके साथ आपसी विश्वास बढ़ाने वाले कदम भी उठाए जाएं। विश्वास बढ़ाने वाले कदम तो तेजी से उठे, लेकिन सीमा निर्धारण का काम तो ठप ही पड़ा रहा। आखिर चीन सीमा विवाद को बातचीत के द्वारा सुलझाने के बजाय नए-नए दावे करके उसे और ज्यादा क्यों उलझा रहा है? इस बारे में कई बातें सामने आ रही हैं, जो सीमा वार्ता की सार्थकता पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती हैं। उनसे लगता है कि चीन का इरादा कुछ और ही है।


अंग्रेजी पत्रिका न्यूज वीक में छपे लेख के मुताबिक चीन भारत को एक प्रतिद्वंद्वी की नजर से देखता है। इसलिए चीन हर कीमत पर भारत को कमजोर करने की कोशिश में है और इसके लिए हर तरह की जोर आजमाइश कर रहा है। कई रक्षा विशेषज्ञ यह मानते हैं कि अब चीन की दिलचस्पी सीमा विवाद हल करने में नहीं है। वह सीमा विवाद को भारत पर दबाव बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। ऐसे में भारत और चीन की सीमा वार्ता से कोई ठोस नतीजा निकलने के आसार लगभग नहीं के बराबर हैं। इसके बावजूद भारत बातचीत को खत्म कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। किसी शायर ने सही कहा है, दिल मिले न मिले, हाथ मिलाते रहिए।


लेखक सतीश पेडणेकर वरिष्ठ पत्रकार हैं


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