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चीन से खतरे का यथार्थ

जागरण मेहमान कोना
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Balbir Punjकेंद्र सरकार पर चीन की चुनौती के प्रति पर्याप्त गंभीरता न दिखाने का आरोप लगा रहे हैं बलबीर पुंज


पिछले दिनों लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान सांसद मुलायम सिंह के एक प्रश्न का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस संभावना को सिरे से नकार दिया कि चीन भारत पर हमले की तैयारी कर रहा है। वहीं चीन के साथ सीमा मुद्दे पर पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में विदेश राज्यमंत्री ई. अहमद ने सदन को आश्वस्त करने की कोशिश की कि चीन से लगने वाली भारत की सीमा पर स्थिति शांतिपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने भारत-चीन संबंध को संवेदनशील मुद्दा बताते हुए ऐसा कुछ भी नहीं करने की हिदायत दी जिससे भावनाएं भड़कें। क्या सचमुच चीन से भारत को कोई खतरा नहीं है? क्या चीन द्वारा भारत की सीमाओं से लगते हुए क्षेत्रों में तेजी से आधारभूत संरचनाओं का जाल बिछाए जाने पर भी हमें सचेत होने की कोई आवश्यकता नहीं है? क्या यह गलत है कि ऐसी ही मानसिकता के कारण भारत को सन बासठ में अपमानजनक पराजय का मुंह देखना पड़ा था?


अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर को लेकर चीन का नजरिया जगजाहिर है। तिब्बत और नेपाल से लगते सीमावर्ती भारतीय प्रदेशों में चीनी सैनिकों की घुसपैठ निरंतर चली आ रही है। विदेश राज्यमंत्री के अनुसार भारत और चीन की 3488 किलोमीटर लंबी सीमा जुड़ी है। चीन ने अक्साई क्षेत्र के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा किया और बाद में उसे पाकिस्तान से 5180 किलोमीटर क्षेत्र प्राप्त हुआ। विदेशमंत्री अक्साई क्षेत्र में चीन द्वारा कब्जाई गई भूमि को भले ही गौण साबित करें, पर यह पूरा क्षेत्र करीब 38 हजार वर्ग किलोमीटर है। विडंबना यह है कि बासठ के युद्ध से पूर्व जब भारतीय सीमा के कुछ इलाकों पर चीन ने कब्जा किया था, तब नेहरू सरकार के लिए भी यह चिंता का विषय नहीं था। तत्कालीन रक्षामंत्री वीके कृष्णमेनन के अनुसार कब्जाई गई भूमि में तो घास भी नहीं उगती थी। सरदार पटेल और तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने पत्र लिखकर चीन की ओर से उभरते खतरे की ओर ध्यान दिलाया था, तब इसी तरह पंडित नेहरू ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया था। कांग्रेसनीत वर्तमान सत्ता अधिष्ठान भी उसी शुतुरमुर्गी मानसिकता से ग्रस्त है।


चीन अब हिंद महासागर में भी अपने पैर पसार चुका है। पिछले दिनों हिंद महासागर के सेशेल्स द्वीप ने अपने यहां चीन को नौसैनिक अड्डा स्थापित करने की अनुमति दे दी है। कहने को चीन यह सुविधा सोमालिया के समुद्री डाकुओं से मुकाबले के लिए तैनात अपने युद्धपोतों को राशन और ईंधन की आपूर्ति के लिए खड़ा करना चाहता है, किंतु उसकी वास्तविक मंशा भारत की घेराबंदी की है। भारत सेशेल्स को अपना सामरिक मित्र मानता रहा है। सन 2005 में भारत ने सेशेल्स को उसके समुद्री इलाकों की चौकसी के लिए आइएनएस तारामुगली नामक युद्धपोत उपहार में दिया था। वस्तुत: सेशेल्स के साथ भारत के विशेष रक्षा संबंध को देखते हुए चीन और अमेरिका, दोनों ही इसे अपने पाले में करने के लिए बेचैन हैं। सेशेल्स के एक टापू से अमेरिका ने अपने पी-3-सी टोही विमानों को उड़ाने की अनुमति पहले ही ले रखी है। सेशेल्स 115 द्वीपों का देश है, जिसके राजस्व का मुख्य श्चोत पर्यटन और समुद्री मछली है। यहां होटल उद्योग में अपार संभावनाएं हैं, जिस पर चीन की निगाह टिकी है।


सामरिक पर्यवेक्षकों के अनुसार महासागर के बीच में कोई द्वीप स्थायी विमानवाहक पोत की भूमिका में काम आ सकता है। हाल ही में चीन ने हिंद महासागर में खनिज संसाधनों के दोहन के अधिकार प्राप्त किए हैं। इस पर होने वाले अरबों डॉलर के निवेश को सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी उसे एक ठोस नौसैन्य अड्डा स्थापित करने की जरूरत थी। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बंदरगाहों में चीन ने अपने नौसैन्य अड्डे स्थापित कर रखे हैं। पाकिस्तान के ग्वादर में तैनात चीनी मिसाइलों की मारक क्षमता इतनी है कि मुंबई जैसे शहर उसकी जद में हैं। चीनी व्यूह रचना की तुलना में भारत की निष्कि्रयता चिंताजनक है।


भारत-चीन सीमा पर जहां चीन एक ओर आधारभूत संरचनाओं का तेजी से विकास कर रहा है, वहीं भारत कछुआ चाल से सड़कों के निर्माण में लगा है। भारत ने 2012 तक चीन से सटी सीमाओं पर 13,100 किलोमीटर लंबी 277 अतिरिक्त सड़कों के विकास का लक्ष्य रखा था। इनमें से 80 योजनाओं का तो अभी श्रीगणेश भी नहीं हुआ है। वहीं 168 योजनाएं अपने निर्धारित लक्ष्य से काफी पीछे हैं। अब तक केवल 29 सड़कें बनाई जा सकी हैं। सड़क निर्माण की वर्तमान गति को देखते हुए इन योजनाओं के समापन का अनुमान लगाना कठिन है। इसकी तुलना में चीन ने भारतीय सीमाओं तक सड़क और रेलमागरें का जाल बिछा रखा है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के सुकार्दू और म्यांमार से सटे कुनमिंग जैसे दूरस्थ क्षेत्रों तक आधारभूत संरचनाओं का विकास कर चीन दक्षिण एशिया पर अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहता है। बासठ में चीन ने अक्साई चीन पर कब्जा कर लिया था। अक्साई चीन और ल्हासा के बीच संपर्क मार्ग विकसित करने के साथ चीन ने तिब्बत के दूरगम्य क्षेत्रों तक भी सड़कों का विस्तार किया है। भारत सीमा से सटे अपने सैन्य और सामरिक महत्व के अड्डों तक चीन ने सुचारू आवागमन व परिवहन व्यवस्था विकसित कर ली है।


कुछ समय पूर्व चीन के थिंक टैंक से जुड़े चीनी सैन्य विश्लेषक झान लुई ने चीनी सरकार को भारत को टुकड़ों में बांटने की सलाह दी थी। लुई ने भारत को तोड़ने के लिए असम, तमिल, कश्मीर और देश के अन्य भागों में चल रहे विघटनकारी आंदोलनों को चीनी समर्थन देने की सलाह दी थी। वास्तविकता तो यह है कि चीन इस काम में बहुत पहले से लगा है और उसके यथेष्ट प्रमाण भी हैं। भारत के कई टुकड़े करने की मंशा से ही चीन देश में सक्रिय अलगाववादी संगठनों को पोषित करने में लगा है। मणिपुर के अलगाववादी गुट-यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट और नक्सलवादियों के बीच साठगांठ चीनी साजिश का ही परिणाम है। असम के उग्रवादी संगठन-उल्फा को जिहादी ताकतों के बाद चीन का भी समर्थन प्राप्त है। नागा और मिजो समस्या चीन के लिए सोने में सुहागा है। उल्फा के नेता परेश बरुआ और उनके अन्य विश्वसनीय पिछले कुछ सालों से लगातार चीन के संपर्क में हैं, जहां से उन्हें हथियार और आर्थिक सहायता भी मिल रही है। अलगाववादी कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए जहां पहले पाकिस्तानी प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग मुख्यतया करते थे, वहीं अब चीन के प्रतिनिधि को भी शामिल करने की मांग उठने लगी है, किंतु भारत का सत्ता अधिष्ठान इन खतरों की अनदेखी कर एक बार फिर सन बासठ की हिमालयी भूल की पुनरावृत्ति की ओर अग्रसर है।


लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा सदस्य हैं


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