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भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे को लेकर होने वाला करार ममता बनर्जी के विरोध के कारण टल गया है। तीस्ता नदी पर गोजलडोबा में भारत ने बैराज बनाया है। इस बैराज से नदी का अधिकतर पानी पश्चिम बंगाल के किसानों को सिंचाई के लिए दे दिया जाता है। बांग्लादेश के किसान पानी से वंचित हो जाते हैं। ममता बनर्जी चाहती हैं कि केवल 25 प्रतिशत पानी बांग्लादेश को दिया जाए, जबकि बांग्लादेश 50 प्रतिशत पानी चाहता है। केंद्र सरकार बांग्लादेश की ओर झुक रही है, अत: ममता ने बांग्लादेश जाने से इंकार कर दिया था।
दोनों देशों में सहमति है कि तीस्ता नदी के संपूर्ण पानी का उपयोग खेती के लिए किया जाए। विवाद मात्र यह है कि तीस्ता को भारत सुखाएगा या बांग्लादेश? मान्यता है कि बहकर समुद्र को जाने वाला पानी ‘बर्बादी’ है। इस सोच को बदलना होगा। वास्तव में नदी केवल कोरा पानी लेकर नहीं चलती है, बल्कि वह अपने साथ मिट्टी भी लाती है जो पानी के साथ समुद्र में ही गिरती है। मिट्टी के बैराज में ट्रैप हो जाने के कारण तटीय क्षेत्रों को मिट्टी की उनकी खुराक नहीं मिलती है और भूमि का क्षरण होने लगता है। टिहरी बांध में मिट्टी ट्रैप हो जाने के बाद से गंगा के मुंह पर गंगासागर द्वीप के क्षरण में तेजी आई है। मछुआरों की जीविका भी प्रभावित होती है। नदी के पानी को निकालने से बाढ़ नहीं आती है, पानी का फैलाव बाधित होता है, भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं होता है, कुएं सूखते हैं और खेती प्रभावित होती है। तटीय क्षेत्रों में भूमिगत पानी का पुनर्भरण न होने से समुद्र का खारा पानी प्रवेश करता है और कुओं से खारा पानी निकलने लगता है। अत: समुद्र में बहकर जाने वाले पानी के मूल्य को शून्य नहीं मानना चाहिए।
भारत द्वारा तीस्ता पर जल विद्युत के उत्पादन के लिए बांधों की श्रृंखला बनाई जा रही है। नदी का पूरा पाट सूख जाएगा, पर पानी नहीं निकाला जाएगा। ऐसे बांधों के भी अनेक भयंकर दुष्परिणाम होते हैं। बांधों से पानी केवल सुबह शाम छोड़ा जाता है। शेष समय पानी शून्यप्राय रहता है। इसके फलस्वरूप नावों का आवागमन बाधित होता है और मछलियां मरती हैं। नदी के पानी की ताजगी आक्सीजन तथा लाभकारी धातुओं को सोखने से उत्पन्न होती है। सुरंग में कैद पानी इन पोषक तत्वों को नहीं ग्रहण कर सकता है। आक्सीजन विहीन पानी में स्नान करने वालों को शांति व तृप्ति नहीं मिलती है। नदी के सूख जाने से स्थानीय लोगों को बालू एवं मछली उपलब्ध नहीं हो पाती है। सुरंग बनाने से पहाड़ में भूगर्भीय कुएं फूट जाते हैं, पानी रिस जाता है, जल स्रोत सूख जाते हैं और जंगल कमजोर पड़ते हैं। मकानों में दरार आ जाती है। लोग खतरे और भय का जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। बांध के पीछे लंबी झील बन जाती है। झील के पानी से भूमि पर दबाव पड़ता है। 500 में से एक बांध में भूकंप आने के प्रमाण मिलते हैं।
उपरोक्त तमाम दुष्प्रभावों का सही आकलन किया जाए तो सिद्ध हो जाएगा कि ये योजनाएं देश के लिए अहितकर हैं। इन योजनाओं से वास्तव में गरीब के प्राकृतिक संसाधनों को छीनकर अमीर को पहुंचाया जाता है। नदी के पानी से सिंचित भूमि पर पान, मेंथा और गन्ने जैसी जल-सघन फसलें उगाई जाती हैं जिनका उपयोग अधिकतर अमीर लोग करते हैं। उत्पादित बिजली का उपयोग अमीरों के एयर कंडीशनर चलाने के लिए किया जाता है। लाभ अमीरों के हिस्से जाता है और हानि गरीबों के हिस्से, परंतु लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस जनविरोधी नीति को सीधे लागू करना कठिन है इसलिए सरकार फर्जी अध्ययन कराकर जनता को भ्रमित करती है।
ऐसा फर्जी अध्ययन केंद्रीय सहायता प्राप्त उच्च तकनीकी शोध संस्थान से पर्यावरण मंत्रालय ने करवाया है। मंत्रालय ने एक करोड़ रुपये संस्थान को दिए। इसमें 48 लाख रुपये प्रोफेसरों को वेतन के अतिरिक्त सलाहकारी भत्ते के रूप में दिए गए। संस्थान ने लिखकर दे दिया कि गंगा पर बांध बनाने से पर्यावरण, धर्म तथा स्थानीय जनता की हानि नहीं होगी। इस निष्कर्ष को निकालने में तमाम झूठों का सहारा लिया गया।
संस्थान ने कहा कि सुरंगों की दिशा इस तरह से निर्धारित की जाए कि भूगर्भीय जलाशयों को हानि न हो, परंतु दूसरे भूगर्भीय वैज्ञानिक बताते हैं कि ऐसी तकनीकों का इजाद हुआ ही नहीं है। ऐसी सुरंगें बनाना संभव ही नहीं है। संस्थान ने निष्कर्ष दिया कि रन-आफ रिवर बांधों से जल में घुली हुई आक्सीजन पर मामूली प्रभाव ही पड़ता है। यह सही है, परंतु जल में घुले हुए ठोस तत्वों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के आंकड़े रपट में ही दिए गए हैं। इन दुष्प्रभावों पर संस्थान ने चुप्पी साध ली। संस्थान ने वर्ल्ड कमीशन आन डैम्स के हवाले से कहा है कि औसत बहाव का दस प्रतिशत पानी हर समय नदी में छोड़ा जाना चाहिए, परंतु वर्ल्ड कमीशन ने इसी फार्मूले की भर्त्सना की है। संस्थान ने कहा है कि बिजली का उत्पादन करने में जितनी ऊर्जा की लागत आती है उसकी तुलना में उत्पादित बिजली की मात्रा जल विद्युत में सर्वाधिक है। यह उसी तरह हुआ कि चोरी से लाभ सर्वाधिक मिलता है। मैं जल विद्युत की तुलना चोरी से इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को नजरअंदाज किया जाता है। संस्थान ने ठंडे देशों में जलाशयों से निकलने वाली मीथेन गैस की मात्रा को भारत जैसे गरम देश पर लागू कर दिया है। संस्थान ने उत्तराखंड के एक सम्मानित पर्यावरणविद् को बांधों का समर्थक बताया, जबकि वह इनके विरोधी हैं। विदेशी हुकूमत के समय हरिद्वार के भीमगोड़ा बैराज को हिंदुओं ने स्वीकार किया था। स्वतंत्र भारत पर भी यही व्यवस्था लागू होनी चाहिए ऐसा संस्थान का मानना है। इस प्रकार के तमाम झूठों के आधार पर सरकार ने संस्थान से बांधों के पक्ष में रपट लिखवा ली है। इसी प्रकार की झूठी रपटें पूर्वोत्तर की नदियों के लिए तैयार कराई जा रही हैं।
भारत और बांग्लादेश के नागरिकों को जानना चाहिए कि सरकार इस प्रकार के फर्जी अध्ययनों के आधार पर देश के पर्यावरण, संस्कृति और अर्थव्यवस्था को नष्ट करने को तैयार है। सिक्किम एवं अरुणाचल से बांग्लादेश के बीच बहने वाली नदियों के फर्जी अध्ययनों से जनता को सतर्क रहना चाहिए। भारत तथा बांग्लादेश की सरकारों को पहले पूर्वोत्तर की नदियों पर जल विद्युत बांधों एवं नहरों का निष्पक्ष एवं प्रमाणिक अध्ययन कराना चाहिए। इसके बाद शेष पानी के बंटवारे की चर्चा करनी चाहिए।
लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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