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हिंदुस्तान या हादसों का देश

जागरण मेहमान कोना
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abhishek ranjan singhमौत बेशक दबे पांव आती है, लेकिन वह कभी अकेले नहीं जाती। अपने पीछे वह कई जिंदा लोगों को मौत की मानिंद जिंदगी दे जाती है, जिसकी टीस मुद्दत तक कायम रहती है। उस मौत का फलसफा भी कुछ अजीब होता है, जिसे हम बेमौत करार देते हैं। असम के धुबरी जिले में पिछले दिनों हुए नौका हादसे में ऐसी ही बेमौत जिंदगी का मंजर दिखाई दिया। असम की इस नौका दुर्घटना ने समूचे देश को स्तब्ध कर दिया। नाव पर सवार मर्द, औरत और बच्चों के लिए यह जिंदगी का आखिरी सफर बन गया। बदकिस्मती से उस नौका पर जितने सवार थे, उनमें से ज्यादातर ने उफनती ब्रह्मपुत्र नदी में जलसमाधि ले ली। इस नाव दुर्घटना में करीब 125 लोगों की मौत हो गई, जबकि ढाई सौ के करीब लोग अब भी लापता हैं। असम में हुई यह नाव दुर्घटना अब तक की सबसे बड़ी नाव दुर्घटना मानी जा रही है। वहीं इस हादसे के बाद बतौर रस्म अदायगी राज्य और केंद्र सरकार ने शोक संतप्त परिवारों के लिए मदद और अनुग्रह राशि देने की घोषणा की, लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इंसानी जान की कीमत महज लाख-दो लाख रुपये ही है।


भारत में अमूमन हर हादसों के बाद ऐसा ही देखा जाता है। बात चाहे रेल-सड़क और नौका हादसों की करें या हवाई दुर्घटनाओं की, हमेशा दुर्घटना होने के बाद सरकार घडि़याली आंसू बहाकर जांच और सुरक्षा के नए उपाय तलाशने का आश्वासन देती है, लेकिन यह जमीनी हकीकत नहीं बन पाता। देश में कहीं न कहीं हर साल ट्रेन हादसे और सड़क हादसे होते ही रहते हैं। हालांकि रेल और हवाई दुर्घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए आधुनिक तकनीक और सुरक्षा उपायों की दिशा में काम जरूर किए जा रहे हैं, लेकिन नौका हादसों के प्रति सरकार पूरी तरह लापरवाह बनी हुई है। इस मामले में उनकी उदासीनता देखकर यही लगता है कि वह नावों के डूबने की घटनाओं को हादसा नहीं मानती। तभी तो हर साल देश के अलग-अलग राज्यों में नाव डूबते हैं, जिसमें सैकड़ों लोग मारे जाते हैं।


देश के कई राज्यों में आवाजाही के लिए आज भी नौकाओं का भरपूर इस्तेमाल होता है। जिस तरह रेल परिवहन के लिए रेल मंत्रालय है, हवाई परिवहन के लिए नागरिक उड्डयन मंत्रालय है, सड़क परिवहन के लिए भूतल एवं राजमार्ग मंत्रालय है। उसी तरह नौका परिवहन के लिए जल संसाधन विभाग है। आंकड़ों के मुताबिक हर साल देश में करीब एक लाख लोग सड़क हादसों में मरते हैं। जाहिर है, इससे संबद्ध मंत्रालय और विभाग सुरक्षा उपायों को तलाशते रहते हैं। इस बाबत आम लोगों में जागरूकता पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं, लेकिन जल संसाधन विभाग की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं की जाती। देश के लगभग सभी राज्यों में हर साल नौका हादसे होते रहते हैं। अगर देखा जाए तो सभी हादसों की प्रकृति कमोबेश एक जैसी ही होती है। कमजोर एवं पुरानी नौका, क्षमता से अधिक यात्रियों का सवार होना और खराब मौसम ऐसे हादसों को आमंत्रित करते हैं। बावजूद इसके प्रशासन इस मामले पर कोई एहतियातन कार्रवाई नहीं करता। बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में हर साल मानसून के समय भीषण नौका दुर्घटनाएं होती हैं।


खासकर बिहार के गंगा, कोसी, गंडक और बागमती नदियों के निकट रहने वाले लोगों के लिए नाव उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा होती है। वे नाव के जरिये ही मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम करते हैं। उसी नाव पर वे अपने जानवरों को भी लादकर सुरक्षित जगहों पर ले जाते हैं। बहुत सारे ऐसे राज्य हैं, जहां आज भी कई इलाकों में लोग जिला मुख्यालय एवं बाजार जाने के लिए नावों का ही सहारा लेते हैं। इसे मुल्क की बदकिस्मती कहें या कुछ और कि आजादी के 64 साल बाद भी कई गांव सीधे सड़क से नहीं जुड़ पाए हैं। पूर्वोत्तर राज्य असम की बात करें तो अमूमन यह राज्य तीन वजहों से ही यह राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में रहता है। पहली उग्रवाद, दूसरी हर साल आने वाली भीषण बाढ़ और तीसरी वजह समय-समय पर होने वाली नौका दुर्घटनाएं। पूर्वोत्तर राज्यों में आज भी कई गांवों में सड़कों का अभाव है। अगर आप दिल्ली से असम या मणिपुर के किसी सुदूर देहात जाना चाहते हैं तो आपको वहां जाने में कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, इसकी कल्पना करना मुश्किल है। यही वजह है कि यहां लोगों को आवागमन के लिए नावों का सहारा लेना पड़ता है। यहां नाव चलाने वाले जो लोग हैं, वे परंपरागत तरीकों से ही नाव चलाते हैं।


नावों पर कितने यात्रियों को बिठाना है, नाव में क्या-क्या सामान नहीं लादना है, ऐसा कोई नियम-निर्देश नहीं है। दूसरी जो अहम बात है, वह यह है कि ज्यादातर नौकाएं खराब मौसम की वजह से डूबती हैं। लेकिन नाविकों को इस बारे में कोई आधुनिक जानकारी नहीं रहती। वहीं मौसम विभाग की ओर से भी कोई पूर्व सूचना नहीं दी जाती। अगर कई राज्यों में मौसम विभाग के अधिकारी खराब मौसम के बारे में कोई चेतावनी जारी करते भी हैं तो उसे संबंधित जिले के प्रशासनिक अधिकारी संजीदगी से नहीं लेते। राज्यों के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग का दायित्व है कि उसके अधिकारी उन गांवों में जाएं, जहां लोग यात्रा के लिए नौकाओं का सहारा लेते हैं, वहां के लोगों को सुरक्षा उपायों के बारे में जागरूक करें।


क्योंकि अक्सर देखा गया है कि नाव चलाने वाले नाविक यह मानते हैं कि नाव की सुरक्षा जलदेवी करती हैं। इसलिए केवट या मल्लाह समुदाय के लोग सुरक्षा के नाम पर घाट की पूजा-अर्चना करते हैं। इसे हम अंधविश्वास ही कह सकते हैं। देश में नौका दुर्घटनाएं रोकी जा सकें, इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह रेल, सड़क और हवाई यातायात की तरह ही जल यातायात को भी अपनी प्राथमिकता में रखे। इसके लिए भी सुरक्षा उपायों से संबंधित ठोस नीति बनाई जाए। इसके अलावा सरकार को इस बात पर भी जोर देना होगा कि जहां वर्षो से लोग यात्रा करने के लिए नौकाओं का सहारा ले रहे हैं, वहां नदियों पर पुल बनाकर उसे सड़क मार्ग से जोड़े। अगर सरकार इस मामले पर प्रभावी कदम उठाती है तो निश्चित तौर पर गावों और शहरों के बीच की दूरियां कम होंगी। उस इलाके का विकास भी होगा और ग्रामीण आबादी सुरक्षित यात्रा भी कर सकेंगे। असम के धुबरी जैसे नौका हादसे भविष्य में न हों, इसके लिए सरकार को गंभीर पहल करनी होगी। प्रशासनिक अधिकारियों को भी लापरवाही, गैर जिम्मेदारी और संवेदनहीनता का त्याग करना होगा। इसके अलावा प्रशासन निजी ठेकेदारों को नौका घाटों की सालाना बंदोबस्ती अधिकार देने से पहले उनसे सुरक्षा संबंधी शपथ पत्र देने और नावों व स्टीमरों की मेंटेनेंस रिपोर्ट सौंपने के लिए बाध्य करना होगा। तभी आम लोग जिंदगी की नैया पार कर पाएंगे।


लेखक अभिषेक रंजन सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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