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नाजुक रिश्तों में नई पहल

जागरण मेहमान कोना
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Uday Bhaskarचीन के रक्षा मंत्री के भारत दौरे के सामरिक-कूटनीतिक निहितार्थ तलाश रहे हैं सी. उदयभाष्कर


भारत और चीन एशिया के दो सबसे बड़े पड़ोसी और विश्व के सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं, इसके बावजूद दोनों देशों का उच्च स्तरीय राजनीतिक संपर्क सीमित है और रक्षा क्षेत्र में तो कुछ अधिक ही। इस आलोक में चीनी रक्षा मंत्री का भारत दौरा महत्वपूर्ण हो जाता है, इसलिए खासतौर पर इसलिए कि इससे पहले आठ साल पूर्व 2004 में चीनी रक्षा मंत्री भारत आए थे। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यह दौरा बीजिंग के अनुरोध पर तय हुआ था। दौरे का समय भी खासा महत्वपूर्ण है। आजकल चीन में नेतृत्व परिवर्तन की तैयारी चल रही है और राष्ट्रपति हू जिंताओ गद्दी छोड़ने वाले हैं। चीन के रक्षा मंत्री जनरल लियांग गुआंगलेई 2 से 6 सितंबर तक भारत में थे। अफसोस की बात यह है कि यह दौरा सामरिक-कूटनीतिक सहयोग में वृद्धि के प्रयासों के बजाय मेहमान द्वारा भारतीय वायुसेना के पायलटों को आकस्मिक भेंट देने के विवाद में गुम होकर रह गया। निश्चित तौर पर यह प्रसंग चीन की तरफ से प्रोटोकोल के उल्लंघन का मामला है और पायलटों ने इस अजीबोगरीब मामले की जानकारी मुख्यालय को देकर मामले को सुलझा लिया। भारत सरकार ने फैसला लिया कि पायलटों को दी गई एक लाख रुपये की राशि चीन को विनम्रतापूर्वक वापस लौटाने के बजाय तोशखाना में जमा कर दी जाए।


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भारत को आशंका थी कि रकम वापस लौटाने से चीन की भावनाएं आहत हो सकती हैं। यह पूरा मामला पिछले पचास साल के भारत-चीन संबंधों और भविष्य में संबंधों के संभावित रुझान के संकेतक के रूप में देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि जनरल लियांग भारत के दौरे पर 1962 के भारत-चीन युद्ध की पचासवीं वर्षगांठ पर आए। इस युद्ध ने समूची भारतीय अंत:चेतना पर जख्मों के गहरे निशान छोड़ दिए थे। माओ ने नेहरू को सबक सिखाने के लिए 20 अक्टूबर, 1962 को अचानक धावा बोलकर भारत को भौचक कर दिया। यह हमला क्यूबाई मिसाइल संकट के समय किया गया था, जब सोवियत संघ अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी समूह के खिलाफ शीतयुद्ध में उलझा हुआ था। भारत के लिए यह युद्ध राष्ट्रीय सदमा था और प्रधानमंत्री नेहरू तो इस अपमान से कभी नहीं उबर पाए। इस युद्ध और इसके विनाशकारी दुष्परिणामों ने भारतीय उच्च रक्षा प्रबंधन तथा नेतृत्व के कौशल की राजनीतिक समझ की खामियों को उजागर कर दिया था। यह बहस का विषय है कि खिले हुए लोकतंत्र ने इस युद्ध से कोई सबक सीखा या नहीं। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि भारत ने कोई सबक नहीं सीखा। पिछले पचास वर्षो में एकल पार्टी के कम्युनिस्ट शासन वाला चीन समग्र राष्ट्रीय शक्ति के संचयन में भारत से आगे निकल गया है। भारत के साथ संबंधों को चीन अधिक महत्व नहीं देता। पिछले कुछ समय तक तो बीजिंग नई दिल्ली के साथ उपेक्षापूर्ण और दबंगई का व्यवहार कर रहा था। शीतयुद्ध के आखिरी दौर में चीन-अमेरिका की निकटता के कारण इससे निपटने में भारत के पास अधिक उपाय नहीं रह गए थे।


1962 के बाद भारत-चीन पुनर्मेल 1988 में राजीव गांधी की बीजिंग यात्रा से शुरू हुआ। इसके बावजूद द्विपक्षीय संबंध तनावग्रस्त ही रहे। इनमें और खटास तब आई जब चीन ने पाकिस्तान के परमाणु हथियार तथा मिसाइल कार्यक्रम में सहयोग करना शुरू किया। इसी का नतीजा है कि पाकिस्तान की सेना भारत के खिलाफ आतंकवाद का सहारा ले रही है। इस बीच भारत घोषित रूप से परमाणु हथियार शक्ति बन गया। 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारत ने प्रतिरोध और यथास्थितिवादी प्रकृति का प्रदर्शन किया। इस बीच परमाणु के जटिल मुद्दे पर अमेरिका से बिगड़े संबंधों को सुधारने की कवायद भी शुरू की। इन सब संबंधों का भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों पर असर पड़ा। लियांग के हालिया दौरे को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। वैश्विक स्तर पर 9/11 के पश्चात अमेरिका का अफगानिस्तान और इसके बाद इराक पर हमला तथा अब उलझी हुई अफ-पाक गुत्थी ने अमेरिका-चीन संबंधों के साथ-साथ भारत के अमेरिका तथा चीन के साथ संबंधों को भी प्रभावित किया। अतिरिक्त सतर्कता भारत-चीन संबंधों का अंतर्निहित तत्व है। दिल्ली और बीजिंग के बीच अनेक जटिल और अनसुलझे मुद्दों के मद्देनजर लियांग दौरे के अंत में दोनों पक्षों द्वारा जारी किया गया संयुक्त बयान बेहद महत्वपूर्ण है। संयुक्त बयान में संबंधों में सुधार पर जोर देते हुए कहा गया कि दोनों पक्षों ने क्षेत्रीय सुरक्षा के हालात और साझा हितों व चिंताओं के अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी विचार किया। दोनों मंत्री सहमत थे कि रक्षा मंत्रालयों तथा सशस्त्र सेनाओं के बीच द्विपक्षीय सहयोग के विस्तार से दोनों देशों में आपसी विश्वास और दोस्ती गहरी होगी तथा शांति व संपन्नता के लिए सामरिक व सहकारी साझेदारी के समग्र विकास को प्रोत्साहन मिलेगा। क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों में पंथिक उग्रवाद और इससे संबद्ध आतंक भी शामिल है, जिसे लेकर चीन बहुत चिंतित है। इसके अलावा 2014 के बाद अफ-पाक क्षेत्र का परिदृश्य तथा हिंद महासागर के हालात पर भी विस्तृत चर्चा हुई। इन सभी मुद्दों पर भारत और चीन के बीच सतत संवाद वांछनीय है। यह उम्मीद की जा सकती है कि दोनों देशों के बीच सुरक्षा और सामरिक हितों का ध्यान रखा जाएगा। द्विपक्षीय संबंधों में इस पारस्परिकता का फिलहाल अभाव है। संयुक्त बयान में एक और महत्वपूर्ण मुद्दे ने अधिक ध्यान नहीं खींचा है कि दोनों देश एशिया-प्रशांत क्षेत्र की शांति और स्थिरता के लिए साथ मिलकर काम करेंगे।


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दक्षिण चीन सागर के हालिया घटनाक्रम और इस क्षेत्र में भारत के हितों को देखते हुए इस सहमति का स्वागत किया जाना चाहिए। भारत और चीन के सामने एक ऐसा ढांचा खड़ा करने की चुनौती है जो दोनों के वैधानिक सुरक्षा हितों को आपसी सहमति से चिह्नित व अनुमोदित करे और इसके बाद प्रगतिशील व समतामूलक आधार पर इनमें सामंजस्य बैठाए। चीन-पाक मैत्री तथा भारत की अधीनस्थ भूमिका अतीत में अनेक बाधाएं खड़ी करती रही है, किंतु भविष्य के लिए इसमें अनेक अवसर भी छिपे हैं। इन अवसरों को पहचानने की आवश्यकता है, किंतु अगर नगद भेंट के प्रतीकवाद पर जाएं तो चीनी भावनाओं के सामने हमेशा भारत के झुकने को टिकाऊ व समान धरातल के संबंधों का आधार नहीं कहा जा सकता। अपने सबसे बड़े पड़ोसी तथा अगले दशक के एक प्रमुख व्यावसायिक साझीदार के साथ व्यवहार में भारत को 1962 के अनेक सबक अपने अंदर समाहित करने होंगे।


लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


रक्षा मंत्री, चीन, भारत



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