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वीरता की अप्रतिम गाथाएं

जागरण मेहमान कोना
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Rajiv Chandrashekharआज से पचास साल पहले 28 दिनों तक चले भारत-चीन युद्ध में 3824 बहादुर जवानों ने अपनी जान गंवा दी थी। युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर विश्लेषकों ने राजनीतिक और सैन्य गलतियों को रेखांकित किया है, इनमें चीन की राजनीतिक पार्टी पर किया गया गैरजिम्मेदाराना भरोसा, तत्कालीन सरकार तथा सैन्य प्रतिष्ठान की विफलता और रक्षा मंत्री व शीर्ष सैन्य अधिकारियों की अक्षमता पर सवाल उठाए गए थे, किंतु इस युद्ध को भारतीय जवानों के शौर्य के लिए याद किया जाएगा। पुराने, जंग लगे हथियारों और अक्षम राजनेताओं और जनरलों के गलत फैसलों के बावजूद भारतीय सैनिकों ने चीन का जबरदस्त प्रतिरोध किया। भीषण युद्ध में अनेक जगहों पर भारतीय जांबाजों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए चीन को एक-एक इंच जमीन के लिए जबरदस्त टक्कर दी। हममे से बहुत से लोग आज नहीं जानते, किंतु हमारी पीढि़यों को यह जानना ही चाहिए कि भारत को इस युद्ध की क्या कीमत चुकानी पड़ी। युद्ध में भारी खूनखराबा हुआ, अनेक परिवार तबाह हो गए। तमाम लड़ाइयों में भारतीय जांबाजों की शौर्य गाथाएं हैं। भारतीय सैनिकों ने मरते दम तक अपने कर्तव्य का पालन किया, जबकि उनके ऊपर जितने चैनल थे वे सभी अपने कर्तव्य पालन में पूरी तरह विफल रहे। सैनिकों को अनेक शौर्य पुरस्कारों से नवाजा गया। 13 कुमाओनात रेजांग दर्रा (लद्दाख) की सी कंपनी आखिरी सैनिक और आखिरी गोली तक लड़ती रही। 1 सिख प्लाटून अरुणाचल प्रदेश में तोपलेंट दर्रा में एक पहाड़ी की रक्षा के लिए तब तक चीनियों पर गोलियां बरसाती रही जब तक गोलियां खत्म नहीं हो गई। इसके बाद आखिरी आत्मघाती प्रयास में सैनिकों ने बंदूकों के आगे लगी संगीनों से चीनी सैनिकों पर हमला बोल दिया।


बिजली संकट से निपटने की राह


उनकी इस जांबाजी को कभी भूला नहीं जा सकता। इन टुकडि़यों का नेतृत्व करने वाले मेजर शैतान सिंह और सूबेदार जोगिंदर सिंह को मरणोपरांत परमवीर चक्र सम्मान से नवाजा गया। परमवीर चक्र हासिल करने वाले तीसरे बहादुर थे 8 गोरखा राइफल्स के मेजर धान सिंह थापा। वह लद्दाख में एक शेर की तरह लड़े और हमारा सौभाग्य है कि कहानी बताने के लिए वह जिंदा बच गए। बम दर्रा में एके रॉय के नेतृत्व में 5 असम राइफल्स ने आखिरी दम तक चीन के अनेक हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया। इस प्रकार की अनगिनत कहानियां लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक बिखरी पड़ी हैं। चीन ने बड़ी तेजी के साथ हमला बोला और एक समय ऐसा भी आया जब पूरा असम भारत के हाथ से निकलने का खतरा पैदा हो गया था। अगर आप भारत के नक्शे पर नजर डालें तो इस परिदृश्य की परिकल्पना करना भी कठिन है। असम के बिना भारत ऐसा लगता है जैसे इसका बायां हाथ कट गया हो। चीनी हमले का एक लाभ यह जरूर हुआ कि हमने भोलेपन को तिलांजलि दे दी। लगता है कि हम इस युद्ध और इसमें भाग लेने वाले जांबाज जवानों को भूल गए हैं यानी उन लोगों को जिन्होंने हमारे भविष्य के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। हमें हमारी सुरक्षा की केंद्रीय कुंजी जवानों की वीरता और शौर्य को नहीं भूलना चाहिए। चाहे जितने भी कबाड़ हथियारों से ये लैस हों या न हों, सही-गलत कैसे भी आदेश इन्हें मिल रहे हों या न मिल रहे हों, ये वीर जवान ही हमारी पहली, आखिरी और एकमात्र सुरक्षा पंक्ति हैं। क्या हम इनके लिए वह सब करते हैं जिसके ये हकदार हैं? क्या हम उन्हें सही ढंग से याद भी करते हैं? कुछ साल पहले एक रिपोर्ट छपी थी कि रेजांग दर्रे की बर्फीली पहाडि़यों पर अपनी जान गंवाने वाले मेजर शैतान सिंह की विधवा को उनकी पात्रता से कहीं कम पेंशन दी जा रही है। इसका जिम्मेदार कौन है? रक्षा लेखा नियंत्रक और बैंक एक दूसरे के सिर ठीकरा फोड़ रहे हैं। बाकी हम लोग हताशा में अपने कंधे झटका देते हैं। मैं अकसर राजनेताओं और नौकरशाहों को कौटिल्य की प्रसिद्ध उक्ति सुनाता हूं-जिस दिन एक सैनिक अपने बकाया की मांग करने लगे वह दिन मगध के लिए बहुत दुखद होगा। उस दिन से आप एक राजा होने का नैतिक अधिकार गंवा देंगे। राष्ट्र को हमेशा अपने सैनिकों पर गर्व करने के साथ-साथ उनकी परवाह भी करनी चाहिए।


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1962 की गलतियों को कभी दोहराया नहीं जाना चाहिए। यह स्पष्ट है कि हमारा वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व हमारे पूर्व सैनिकों की दशा के प्रति बेपरवाह है। पूर्व सैनिकों द्वारा अपने मेडल लौटाने की घटनाओं पर अधिकांश लोगों को शर्म से अपना सिर झुका लेना चाहिए। 3800 बहादुर सिपाहियों की स्मृति और देश के प्रति उनकी अंतिम सेवा की कहानियां हमारी सामूहिक अंतश्चेतना में अंकित हो जानी चाहिए। इंग्लैंड की संसद ने आ‌र्म्ड फोर्सेज कोवेनेंट पारित किया है। इसमें यूनाइटेड किंगडम के लोगों और देश के लिए लड़ने वाले सैनिकों के बीच एक समझौता किया गया है कि सैनिकों के मरने के बाद उनके परिवारों की जिम्मेदारी सरकार उठाएगी। इसी प्रकार का एक बिल मैंने भी संसद में पेश किया है। अभी इस पर चर्चा होनी बाकी है। मैं आशा करता हूं कि इस पर चर्चा होगी और सरकार अगर मेरा नहीं तो इस प्रकार का कोई अन्य प्रस्ताव पारित करेगी। यही 1962 के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। साथ ही इससे भारत की जनता और सशस्त्र बलों के बीच एक नए रिश्ते की शुरुआत भी होगी। रक्षा मंत्री और उनके साथ तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने जिस प्रकार 62 के युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने की शुरुआत की है वह एक सराहनीय कदम है। इससे संकेत मिलता है कि राष्ट्र अपने सपूतों के बलिदानों को भूला नहीं है। आजकल हमारे नायक क्रिकेटर, फिल्म स्टार और राजनेता बन गए हैं। यह जैसा है वैसा ही रहेगा, लेकिन भारत-चीन युद्ध की 50वीं सालगिरह ने हमें सुअवसर प्रदान किया है कि हम अपने बच्चों को भारत के जांबाजों के किस्से सुनाएं। आज के बच्चों को मेजर धान सिंह थापा, मेजर शैतान सिंह, सुबेदार जोगिंदर सिंह, मेजर पद्मपाणि आचार्य, राइफलमैन सतबीर सिंह, हवलदार अब्दुल हमीद, कैप्टन विक्रम बत्रा, राइफलमैन योगेंद्र यादव और इस प्रकार के अनेक वीरों के बारे में यह जानना ही चाहिए कि किस प्रकार छोटे से गांव या कस्बे से आकर उन्होंने देश की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान की और अपने पीछे बिलखते परिजनों को छोड़ गए। इन कहानियों को हमारी नई पीढ़ी को प्रेरणाFोत बनने देना चाहिए और अपने वीर सपूतों और उनके परिवार को याद करते हुए हमें अपना सिर झुकाकर उन्हें सलाम करना चाहिए।


लेखक राजीव चंद्रशेखर राज्यसभा के सदस्य हैं


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Tags:India, China, India China War, India China War 1962, भारत-चीन युद्ध, भारत, चीन, रक्षा मंत्री

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