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गरीबों को मुंह चिढ़ाती सरकार

जागरण मेहमान कोना
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आजादी के इतने वर्षो बाद भी भारत में गरीबी एक अभिशाप के रूप में मौजूद है, अगर ऐसा मान लिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कम से कम नेशनल सैंपल सर्वे 2009-10 के आंकड़ों से तो ऐसा ही लगता है। इसके मुताबिक अगर जीने के लिए जरूरी मासिक खर्च को आधार माना जाए तो शहरों में जो लोग रोज 66.10 रुपये से कम कमाते हैं उन्हें गरीब माना जा सकता है। इसी तरह गांवों में प्रतिदिन 35.10 रुपये से कम कमाने वाला शख्स गरीब कहे जाएंगे। वैसे तो ग्रामीण गरीबी के उन्मूलन के उद्देश्य तथा योजनाबद्ध विकास को लेकर नीतियां और कार्यक्रम बनाना ग्रामीण मंत्रालय का काम है। इस मंत्रालय ने गरीबी उन्मूलन की चिरस्थायी कार्यनीति की प्रक्रिया में रोजगार के सार्थक अवसर बढ़ाने के सिद्धांत पर काम करना शुरू किया है। गरीबी, अज्ञानता, रोगों तथा अवसरों की असमानता को दूर करने के साथ-साथ लोगों को बेहतर जीवन स्तर प्रदान करने जैसी बुनियादी कार्यनीतियों पर विकास की सभी योजनाओं का ताना-बाना बुना गया, लेकिन एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक लोगों का औसत मासिक खर्च गांवों में 1054 रुपये और शहरों में 1984 रुपये प्रति व्यक्ति है। इस तरह गांवों में रहने के लिए 35.10 रुपये और शहरों में जीवन जीने के लिए रोज 66.10 रुपये जरूरी हैं। अगर इसे आधार माना जाए तो गांवों में रहने वाली 64.47 फीसदी आबादी और शहरों में रहने वाली 66.70 फीसदी आबादी इस औसत स्टैंडर्ड से नीचे है। इस तरह तकरीबन कुल आबादी का 65वां हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे है।


गैरजरूरी योजना आयोग


हालांकि ऐसे समय में जबकि सरकार गरीबी रेखा के बारे में अपने मानदंड पर फिर से विचार कर रही है तो गरीबी रेखा की परिभाषा तय करने में यह औसत मासिक खर्च का आंकड़ा लाभप्रद साबित हो सकता है। अगर राज्यों की ही बात करें तो सभी राज्यों की करीब 60 फीसद आबादी इस औसत मासिक खर्च से कम में गुजर-बसर करती है। मामले चाहे भ्रष्टाचार का हो अथवा योजना आयोग का, सरकार हर मुद्दे पर नाकाम होती नजर आ रही है। योजना आयोग ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर गरीबी रेखा का निर्धारण करने की नाकाम कोशिश की जो वर्तमान सरकार के गले की फांस बन गई। पिछले साल भी योजना आयोग ने गरीबी रेखा के लिए जो मानदंड तय किए उस पर काफी विवाद हुआ। योजना आयोग ने तब कहा था कि शहरों में प्रतिदिन 28.65 रुपये और गांवों में 22.42 रुपये से ज्यादा कमाने वाले लोग गरीबी रेखा से नीचे नहीं माने जा सकते हैं। योजना आयोग की यह दलील तो गले के नीचे नहीं उतरी, परंतु यह काला सच जरूर साबित हो गया कि जो लोग एसी कमरे में योजनाएं बनाते हैं उनका वास्तविकता से कोई सरोकार ठीक उसी प्रकार नहीं है जैसे एक समय जब फ्रांस में भुखमरी आई और लोग भूखे मरने लगे तो वहां की महारानी मेरी एंटोयनेट ने कहा कि अगर ब्रेड नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते? शहरी इलाके में 28.65 रुपये और ग्रामीण इलाके में 22.42 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब है या नहीं, असल में यह कोई मुद्दा ही नहीं है।


आजादी के समय भारत की जनसंख्या लगभग 33 करोड़ थी, परंतु आज आधी से ज्यादा जनसंख्या रोजाना 22.42 रुपये से कम पर जीती है अगर इन्हें गरीबी रेखा के नीचे रखने की बजाय भुखमरी रेखा की श्रेणी में रखा जाए तो कोई हर्ज नहीं होगा। यह संख्या चीन, वियतनाम जैसे देशों की तरह कम क्यों नहीं हो रही है? गरीबी रेखा का मामला संज्ञान में तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट पर 2011 के मूल्य सूचकांक के आधार पर कहा कि 20 और 15 रुपये में 2100 कैलोरी प्राप्त करना असंभव है। जहां एक तरफ तेंदुलकर कमेटी ने देश की कुल आबादी के 37 प्रतिशत लोगों को गरीबी रेखा से नीचे माना है तो वहीं दूसरी तरफ एनसी सक्सेना कमेटी और ग्रामीण विकास मंत्रालय ने देश की 50 प्रतिशत जनसंख्या को गरीबी रेखा से नीचे माना। दरअसल आंकड़ों की बाजीगरी के पीछे सरकार की किसी साजिश की बू आ रही है, क्योंकि विश्व बैंक का सरकार पर सब्सिडी कम करने का लगातार दबाव है। वर्ष 1991 में वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री थे। उस समय उनकी आर्थिक सुधार की पहल से पिछले दो दशको में भारत की अर्थव्यवस्था की गिनती चुनिंदा शक्तिशाली देशों में होने लगी। इसका अंदाजा हम वर्ष 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से भी लगा सकते हैं, जिसमें उनके भारत आने का एक उद्देश्य अमेरिकी व्यापार के लिए भारतीय बाजार को खोलना भी शामिल था। पर वर्तमान सरकार आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ के नारे पर सत्ता में आने के बाद उसी आम आदमी को भूल गई। दहाई अंकों में जीडीपी विकास दर की बात मात्र सपना बनकर रह गई है।


मनमोहन सिंह न केवल प्रधानमंत्री हैं, बल्कि एक विख्यात अर्थशास्त्री भी हैं इसलिए आर्थिक सुधार के मुद्दों पर कुछ करिश्माई कदमों की अपेक्षा तो थी ही। पर एनएसएसओ के ताजा आंकड़ों को मानें तो लगभग 60 फीसद जनता गरीबी में रह रही है, जो वर्तमान सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों पर प्रश्नचिह्न खडे़ करती है। इतना ही नहीं हाल में ही अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैडर्ड एंड पुअर्स ने राजकोषीय घाटे की बिगड़ती स्थिति तथा नीति-निर्णय के स्तर पर राजनीतिक दिशाहीनता को देखते हुए भारत की रेटिंग को नकारात्मक कर दिया है ! इतना ही नहीं एक अन्य रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारत की खराब अर्थव्यवस्था के लिए मनमोहन सिंह को सीधे-सीधे जिम्मेदार ठहराया। इन एजेंसिया की काफी साख है, जिनकी रपटों के आधार पर विदेशी निवेशक अपना निर्णय लेते हैं। जाहिर है कि इस गंभीर मुद्दे पर राष्ट्रव्यापी चिंतन की आवश्यकता है।


सरकारी आंकड़े अब नैतिकता के मुंह पर तमाचा मारते हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की मानें तो उनके मंत्रालय द्वारा एक लाख करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि खर्च की जाती है, जिसमें से मात्र नौ फीसद यानी तकरीबन नौ हजार करोड़ रुपये बीपीएल के हिस्से में जाता है। शहरों में तो ये हिस्सेदारी और भी कम होकर मात्र पांच प्रतिशत ही बैठती है। केरल में महज तीन फीसद बीपीएल परिवारों को दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है तो उत्तर प्रदेश में 18 फीसद लोग बीपीएल श्रेणी में आते हैं, जिन्हें केरल के बराबर ही दस फीसद खाद्य सब्सिडी मिलती है। हम भले ही विकसित देश बनने का दंभ भर रहे हैं, लेकिन गरीबी की भयावहता इसकी पोल खोलने वाली है। गरीब दिन-प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है और अमीर दिन-प्रतिदिन और अमीर, लेकिन आजादी के इतने वर्षो बाद भी हम इस कलंक से मुक्ति क्यों नहीं हो पा रहे हैं? स्कूली किताबों में पढ़ाया जाता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, लेकिन आज किसान गरीबी के कारण आत्महत्या करते हैं, पर किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगता। आम गरीब आदमी जाए तो जाए कहां?


लेखक राजीव गुप्ता स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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