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चुनाव सुधार की अधूरी आस

जागरण मेहमान कोना
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HN Dixtअसंभव प्राय: संभव नहीं होता। आम के पेड़ पर बबूल के कांटे नहीं उगते। जनतंत्र में सामंत नहीं होते, लेकिन भारत के जनतंत्र में बाहुबल, धनबल, जातिबल और पंथ-मजहब की ताकत से लैस संवैधानिक सामंत हैं। जनतंत्र विरोधी दलतंत्र है। दलतंत्र के भीतर लोकतंत्र का अभाव है। निष्पक्ष चुनाव ही जनतंत्र की आत्मा है। संविधान सभा की मूल अधिकारों वाली समिति ने निष्पक्ष-निर्वाचन को भारतीय जनता का मौलिक अधिकार बताया था। संविधान सभा ने निष्पक्ष निर्वाचन प्रक्रिया पर लंबी बहस की। निर्वाचन आयोग को संवैधानिक संस्था बनाया, लेकिन पहले आम चुनाव से ही निर्वाचन में भ्रष्टाचार का रोग लगा। चुनाव प्रणाली भ्रष्ट होती गई, बाहुबली भी सांसद-विधायक होने लगे। धनबल का प्रभाव बढ़ा। चुनाव सुधारों पर लगातार बहस चली। परिणाम शून्य रहा। अब पूरी चुनाव प्रणाली को ही बदलने की मांग जोर पकड़ रही है।


राजनीतिक दल ही चुनाव खेल के मुख्य खिलाड़ी हैं। वे अपने नियमित कार्य संचालन पर करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष खर्च करते हैं। चुनाव अभियानों पर उनके खर्च आतंक पैदा करते हैं। बावजूद इसके वे अपनी आय के सभी स्नोतों का खुलासा नहीं करते। बीस हजार से ज्यादा चंदा देने वाले का विवरण देना कानूनी बाध्यता है। इससे कम चंदा देने वालों के नाम बताना जरूरी नहीं है। पार्टियां इसका फायदा उठाती हैं। भाजपा अपने सदस्यों से हर साल आजीवन सहयोग निधि लेती है। उसके पास बीस हजार से नीचे के श्रेणी वाले लाखों स्थाई सहयोगी हैं। चुनाव आयोग ने 2004 में सभी राजनीतिक दलों के आय-व्यय को सार्वजनिक करने की अपेक्षा ठीक ही की थी, लेकिन भारत के महालेखाकार से अनुमोदित संस्थाओं द्वारा पार्टी खातों का आडिट जरूरी है। आय और व्यय की विवरणी की समीक्षा के लिए सरकार मुक्त एक अलग तंत्र का विकास जरूरी है। आखिरकार जन और धनसमर्थन लेकर सत्ता चाहने वाले अपनी आय के बारे में जनता को विश्वास में क्यों नहीं लेते?


चुनाव में धन के प्रभाव से राष्ट्रीय बेचैनी है। सभी दल पैसे वाले प्रत्याशी पर ही दांव लगाते हैं। सरकार द्वारा चुनाव खर्च उठाने की बहस बहुत पुरानी है। दिनेश गोस्वामी समिति (1990) ने भी ऐसी ही संस्तुतियां की थीं। विधि आयोग ने भी चुनाव सुधारों की रिपोर्ट (1999) में आंशिक चुनाव खर्च की सिफारिश की थी। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी ऐसी ही बातें कहीं थीं। चुनाव आयोग ने भी विभिन्न पहलुओं पर 2006 में सभी दलों से विचार-विमर्श किया था, लेकिन व्यापक चुनाव सुधारों पर कोई ठोस पहल नहीं हुई। इसके बहुत पहले जयप्रकाश नारायण ने भी चुनाव सुधारों की मांग की थी। प्रत्याशी और दलों को अतिरिक्त खर्च से रोककर ही सरकारी खर्च पर चुनाव की व्यवस्था सफल हो सकती है। पारदर्शी व्यवस्था के अभाव के कारण मुख्य चुनाव आयुक्त ने इसे व्यावहारिक नहीं बताया। इंग्लैंड, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा की सरकारें भी सीमित चुनाव खर्च उठाती हैं, उम्मीदवार चुनावी खर्च का ब्यौरा देते हैं। अमेरिका में चुनाव का खर्च निजी क्षेत्र ही उठाते हैं। सहयोग राशि की सीमा है। पूरा विवरण व खर्च की मदों की घोषणा बाध्यकारी है। केंद्र की रुचि व्यापक चुनाव सुधारों में नहीं है। राज्य प्रायोजित चुनाव खर्च संप्रग के न्यूनतम कार्यक्रम का घोषित हिस्सा है, लेकिन गलत-सही सभी साधन अपनाकर चुनाव जीतना और सत्ता में बने रहना ही संप्रग का मूल एजेंडा है। चुनाव सुधारों से उसका कोई लेना-देना नहीं है।


पीछे डेढ़ दशक से इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में विकल्पहीन इच्छा वाले एक बटन की मांग बढ़ी है। पार्टी प्रत्याशी बहुधा जनआकांक्षा के प्रतिनिधि नहीं होते, निर्दल प्रत्याशी गंभीर नहीं होते। अमेरिका में उम्मीदवार होने के लिए भी प्रारंभिक चुनाव होते हैं। भारत के दलतंत्र में हाईकमान ही उम्मीदवार तय करते हैं। अन्ना हजारे ने उम्मीदवार को खारिज करने के अधिकार-राइट टु रिजेक्ट के साथ ही ‘जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार’ की मांग की थी। ईवीएम में ‘खारिज करने वाले बटन’ की उपयोगिता है। ‘अस्वीकार वोट’ सर्वाधिक होने पर दोबारा चुनाव कराना उपयोगी होगा। जनप्रतिनिधि की वापसी का सवाल जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’ (1974-75) में उठाया था। न्यायमूर्ति तारकुंडे की अध्यक्षता वाली समिति ने जनप्रतिनिधियों के कामकाज की निगरानी और वापसी पर जोर दिया था। वापसी के लिए संबंधित क्षेत्र में कुल मतदान के 51 प्रतिशत मतदाताओं की जरूरत बताई गई थी। जनप्रतिनिधि के विरुद्ध चुनाव आयोग/पीठासीन को की गई शिकायत पर जनप्रतिनिधि को सफाई देने के अवसर का सुझाव था। मतदाताओं के संतुष्ट न होने पर सदस्यता समाप्ति का सुझाव था। बेशक इसकी व्यावहारिकता पर बहस की गुंजाइश है, लेकिन ऐसे ही तमाम उपायों से जनतंत्र मजबूत होगा।


जनतंत्र की सफलता के लिए स्वस्थ दलतंत्र चाहिए, लेकिन यहां ‘स्वस्थ-दलतंत्र’ का विकास नहीं हुआ। अनेक दलों में आजीवन/वंशानुगत राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। ज्यादातर दलों में मनोनयन की पद्धति है। सभी दलों के संगठन चुनाव भी चुनाव आयोग को कराने के कानूनी प्रावधान होने चाहिए। जो दल अपने दल में जनतंत्र नहीं लाते, अपने आय व्यय का पूरा विवरण सार्वजनिक नहीं करते, चुनावी जीत को पक्का करने के लिए माफिया/धनबली को उम्मीदवार बनाते हैं उनसे ही चुनाव सुधारों पर काम करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? राजनीति का अपराधीकरण असामान्य परिघटना है। निर्वाचन आयोग ने नामांकन के 6 माह पूर्व के आरोप पत्र वाले गंभीर मुकदमों के अभियुक्तों को चुनाव से अयोग्य करार देने का प्रस्ताव किया है। यह सुझाव बुरा नहीं है, लेकिन दुर्भावनाग्रस्त राज्य सरकारें विपक्षी उम्मीदवारों की प्रत्याशिता खत्म कराने के लिए फर्जी मुकदमे भी बना सकती है। सभी दल जिताऊ प्रत्याशी चाहते हैं।


चुनाव सुधारों पर संपूर्णता में विचार की आवश्यकता है। यथास्थितिवाद सत्ता के लिए सुविधाजनक होता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड आदि देशों ने स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव प्रणाली बनाई है। सवाल यह है कि भारत भी चुनाव सुधारों की दिशा में प्रगति क्यों नहीं करता? मतदाता सूची का निर्माण आयोग का संवैधानिक कर्तव्य है। स्थानीय कर्मचारी सूची तैयारी में ईमानदारी नहीं करते। अवैध बांग्लादेशी भी मतदाता सूची में पंजीकृत हैं। ऐसे ही अनेक अनुषंगी विषय हैं, लेकिन संप्रग सरकार से व्यापक चुनाव सुधारों की उम्मीद नहीं की जा सकती। चुनाव सुधारों का नेतृत्व निर्वाचन आयोग को ही करना होगा। जनप्रतिनिधित्व कानून में जरूरी संशोधनों सहित सभी प्रश्नों पर उसे सरकार को राय देनी चाहिए। सरकार नहीं मानेगी तो भुगतेगी।


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं


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