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17 अप्रैल, 1983 को अपनी चौथी और आखिरी उड़ान में प्रथम भारतीय रॉकेट एसएलवी-3 ने रोहिणी आरएसडी-2 नामक उपग्रह को सफलतापूर्वक उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया था और भारत अंतरिक्ष क्लब का छठा सदस्य राष्ट्र बन गया। इस महती सफलता के साथ भारतीय विज्ञान में दो समानांतर धाराएं पनपीं। छोटे रॉकेटों के विकास का एक युग पूरा हुआ और भारत धीरे-धीरे बड़े तथा शक्तिशाली रॉकेटों यथा एएसएलवी, पीएसएलवी और जीएसएलवी के विकास की ओर उन्मुख होता चला गया। इसी के साथ भारत का प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम आरंभ हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जुलाई, 1983 में भारतीय रॉकेटों के जनक एपीजे अब्दुल कलाम के निर्देशन में 360 करोड़ रुपये की आरंभिक अंशपूंजी के निवेश के साथ आइजीएमडीपी (एकीकृत निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम) का गठन करके भारतीय प्रक्षेपास्त्रों के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। कलाम और उनके सहयोगियों ने मात्र छह वषरें की लघु अवधि में पृथ्वी, अग्नि, नाग, आकाश और त्रिशूल जैसी पांच प्रक्षेपास्त्र प्रणालियों का सफलतापूर्वक विकास कर दिया। इनमें से पृथ्वी, अग्नि और आकाश की सैन्य तैनाती भी हो चुकी है। नाग और त्रिशूल की प्रौद्योगिकी अभी परिपक्व नहीं हुई है, परीक्षण चल रहे हैं। सैन्य अधिकारियों की हरी झंडी मिलने पर ही इनकी तैनाती हो सकेगी। फिर भी इससे कोई खास अंतर नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि डीआरडीओ ने इस अरसे में कई समुन्नत प्रणालियां विकसित कर ली हैं।
मसलन, भारत-रूस के संयुक्त उपक्रम की सुपर सोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस की नौसेना और थल सेना में तैनाती हो चुकी है। इसे रूसी लड़ाकू विमान सुखोई-30 एमकेआइ (मार्क इंडिया) में संलग्न किया जाएगा और हवा से हवा में मारक अस्त्र को भारत के सबसे हल्के लड़ाकू विमान तेजस और सुखोई व मिग-29 में लगाया जाएगा। इस प्रकार नाटो और रूस के बाद इस प्रकार का प्रक्षेपास्त्र विकसित करने वाला भारत अगला राष्ट्र होगा। वायुसेना में इसके सम्मिलित हो जाने से भारत की क्षमता पाक से कहीं अधिक हो जाएगी, क्योंकि पाक के पास ऐसा कोई प्रक्षेपास्त्र नहीं है। ध्वनि के वेग से 4 गुना वेग से तीव्र गतिमान अस्त्र को शत्रु के राडार भी नहीं भांप सकते, क्योंकि इसमें जैमर लगा है। अत्याधुनिक निर्देशन प्रणाली की मदद से दागे जाने के बाद भी यह शत्रु के विमान का पीछा करके उसे मार गिरा देने में सक्षम है। इस बीच हमने सागरिका (के-15) मिसाइल बनाई, जो पृथ्वी का नौसैनिक संस्करण है, जिसे परमाणु पनडुब्बियों में लगाया जा सकता है। आगे चलकर भारत ने शीघ्र ही अपनी एटीवी (एडवांस्टड टेक्नोलॉजी वेसेल) भी बना ली, जिसे आइएनएस अरिहंत नाम दिया गया है। शीघ्र ही भारत ने सागरिका का भू रूपांतरण शौर्य भी विकसित कर लिया।
सवाल यह नहीं है कि हमें अपनी रक्षा चिंताएं करनी हैं। हमारी रक्षा चिंताएं पाकिस्तान से कहीं अधिक चीन की ओर से हैं। यही कारण है कि जब-जब हमने अग्नि के परीक्षण किए तो चीन की भृकुटियां तनती ही गईं। अब अग्नि-5 ने भारत को प्रक्षेपास्त्र शक्ति बना दिया। अपनी आरंभिक मारक दूरी 5000 किलोमीटर के साथ अग्नि की जद में (संभावित नाम सूर्य) पूरा एशिया और आधा यूरोप आ चुका है। जब हमने अग्नि-2 बनाई थी तो उसकी प्रहारक क्षमता चीन के यूनान प्रांत तक थी। अग्नि-3 बीजिंग तक मार करती है, लेकिन अग्नि-5 ने तो मारक दूरियों का सीमोल्लंघन करके भारत के माथे पर सेहरा बांध दिया है और अब भारत अमेरिका, फ्रांस, रूस और चीन के साथ आइसीबीएम (अंतरमहाद्वीपीय प्राक्षेपिक प्रक्षेपास्त्र) क्लब में प्रवेश कर चुका है। 27 फरवरी, 1988 को जब डीआरडीओ ने पृथ्वी-1 का परीक्षण किया था (मारक दूरी 150 किलोमीटर) तब उसने प्रक्षेपास्त्रों के क्षेत्र में एक लघु सीमा को तोड़ा था, लेकिन इसी से भारत की आइआरबीएम (मध्यम दूरी के प्राक्षेपिक प्रक्षेपास्त्र) अग्नि के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ, जो भारतीय मिसाइलों की रीढ़ है। इसके चार संस्करण पहले ही विकसित किए जा चुके हैं। अग्नि-1 की मारक दूरी 700 किमी. है।
अग्नि-2 2500 किमी तक प्रहार कर सकती है। अग्नि-3 3000 किमी और अग्नि-4 3500 किमी. से आगे की मार करने में सक्षम है। गत दिवस प्रात: व्हीलर द्वीप से अग्नि-5 का सफल परीक्षण हुआ। व्हीलर द्वीप से किया गया यह परीक्षण एक रोड मोबाइल लांचर से किया गया था, जो अपने सारे मापदंडों में खरा उतरा। इस परीक्षण के अपने निहितार्थ और उद्देश्य है। भारत ने भी अब चीन की बराबरी प्राप्त कर ली है और अब अग्नि के नवसंस्करण 5000 से लेकर 8000 और 11000 किमी तक की मारक क्षमता वाले बनाए जा रहे हैं। इस परीक्षण का उद्देश्य 1962 की शर्मनाक हार का जवाब है। प्रथम एशियाई संबंध सम्मेलन में पंडित नेहरू ने जोरदार शब्दों में अपील अपील की थी-अब हम अपने पैरों पर खडे़ रहना चाहते हैं और परस्पर सहयोग चाहते हैं। हम दूसरे के हाथों के खिलौने नहीं बना रहना चाहते। आगे चलकर बांडुंग सम्मेलन (इंडोनेशिया, अप्रैल 1955) में इसकी आधारशिला रखी गई और ब्रेओनी (यूगोस्लाविया) में नेहरू, मार्शल टीटो, कर्नल नासिर ने नेहरू के पंचशील पर आधारित गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बुनियाद निर्मित की, लेकिन माओ की विरासत संभालने वाले चाऊ एनलाई ने इसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। भारत ने अग्नि-5 का परीक्षण करके चीन से अपना वही हिसाब चुकता कर लिया है और इस परीक्षण का यही निहितार्थ है।
शुकदेव प्रसाद अंतरिक्ष, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं परमाणु ऊर्जा विभाग के सलाहकार रहे हैं
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