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विषमता की पीड़ा

जागरण मेहमान कोना
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बीते दिनों अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक में भारत में महिलाओं की दयनीय स्थिति की चर्चा है। न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों की कसौटी पर इस पत्रिका द्वारा तैयार 165 देशों की सूची में भारत 141वें नंबर पर आया। उसे 100 में से सिर्फ 41.9 अंक मिले। रिपोर्ट के अनुसार भारत आर्थिक रूप से बड़ी ताकत बनने की राह पर है, लेकिन देश की अधिकतर महिलाएं इस बदलाव से अछूती हैं। इस सत्य को नकार पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं है कि स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बावजूद महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं। इस कटु सत्य को देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने स्वीकार करते हुए कहा, आजादी के बाद देश में महिलाओं का काफी विकास हुआ लेकिन लैंगिक असमानता के क्षेत्र में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुछ दिन पूर्व गैर सरकारी संगठन कम्युनिटी बिजनेस द्वारा एशिया की उभरती अर्थव्यवस्था वाले छह देशों की कामकाजी महिलाओं पर तैयार एक रिपोर्ट में भारत का स्थान चीन, मलेशिया, हांगकांग, सिंगापुर और जापान के बाद है। इस रिपोर्ट के मुताबिक चीन के कुल श्रमिकों में 49.79 प्रतिशत महिलाएं हैं, वहीं भारत में यह हिस्सा महज 24.43 प्रतिशत है।


चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर गौरवान्वित होता भारत इस सत्य को स्वीकार करेगा कि भारतीय महिलाएं न केवल दफ्तर में भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि इसके साथ ही उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। देश में महिलाओं को न तो काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर। जो महिलाएं नौकरी पा गईं वे भी शीर्ष पदों तक नहीं पहुंच पातीं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों तक उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं। समान कार्य का समान वेतन की नीति सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। श्रम मंत्रालय से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि झाड़ू लगाने जैसे अकुशल काम में भी स्त्री और पुरुष श्रमिक में भेदभाव किया जाता है।


विश्व के कुल उत्पादन में लगभग 160 खरब का अदृश्य योगदान केयर (देखभाल) अर्थव्यवस्था का होता है। इसमें भारतीय महिलाओं का योगदान 110 खरब का है। यूनीसेफ की रिपोर्ट यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएं नागरिक प्रशासन में भागीदारी निभाने में सक्षम हैं। यही नहीं वे बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सभी तरीकों का प्रयोग करती है और यह पूर्णतया सत्य है कि महिलाओं के सही प्रतिनिधित्व के बगैर किसी भी क्षेत्र में काम ठीक से और सौहा‌र्द्र के साथ नहीं हो सकता। भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है। इससे स्पष्ट होता है कि महिलाएं मानव विकास की समग्र उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित है। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृ मृत्यु दर की तुलना में भारत में लगभग 540 की मातृ मृत्यु दर है। सबसे दुखद पहलू तो यह है कि यहां जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट लैंगिक समानता और विकास के मुताबिक दुनिया में जन्म से पहले ही लड़कियों को मार देने की सबसे ज्यादा घटनाएं चीन के बाद भारत में होती हैं। परिवारों में लड़कों की चाहत आज भी इस कदर हावी है कि लड़कियां अवांछित बनी हुई हैं।


डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आंकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में निम्नतम पायदान पर पाया है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है। भारतीय महिलाओं के योगदान के बिना समाज और देश कदापि उन्नति नहीं कर सकते। जब स्ति्रयां आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ते हैं, गांव आगे बढ़ते हैं और राष्ट्र भी अग्रसर होता है- देश के सामाजिक आर्थिक विकास की समूची अवधारणा का मूल आधार देश के प्रथम प्रधानमंत्री के ये शब्द रहे पर क्या देश वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाया?


लेखिका डॉ. ऋतु सारस्वत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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