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आंग सान सू के भारत दौरे के संदर्भ में म्यांमार के साथ द्विपक्षीय रिश्तों के इतिहास पर निगाह डाल रहे हैं सी. उदयभाष्कर जटिल संबंधों की विरासत म्यांमार की विख्यात लोकतंत्र समर्थक नेता और नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की ने 14 नवंबर को दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में सभा को संबोधित किया और उसके बाद लेडी श्रीराम कॉलेज का दौरा किया, जहां से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी। यहां उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया। म्यांमार में सैन्य शासन का विरोध करने पर सू की लंबे समय तक नजरबंद रही हैं। अपने संबोधनों में उन्होंने दिल्ली में अपने प्रवास और लेडी श्रीराम कॉलेज में बिताए गए अपने दिनों का स्मरण किया। उन्होंने महात्मा गांधी के सिद्धांतों और जवाहरलाल नेहरू के लेखन के प्रति गहरी आस्था जताई। उनके इस दौरे ने भारत पर एक अमिट छाप छोड़ी है। इन तमाम सकारात्मक पक्षों के साथ-साथ उन्होंने इस बात पर असंतोष भी जताया कि नाजुक समय में भारत ने म्यांमार में लोकतंत्र समर्थकों के साथ खड़े होने के बजाय जुंटा के सैन्य शासन का समर्थन किया। हालांकि साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि संभवत: भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए ऐसा किया होगा, फिर भी भारत के व्यवहार की कचोट तो उन्होंने जाहिर कर ही दी। लेडी श्रीराम कॉलेज में सभा के दौरान कुछ कार्यकर्ताओं ने सू की के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए म्यांमार-बांग्लादेश सीमा पर रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति म्यांमार के राजनेताओं के दोहरे आचरण पर सफाई मांगी। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान हिंसा और उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं।
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एक बयान में प्रदर्शनकारियों ने कहा कि हम सू की से अपील करते हैं कि वह अपने खोल से बाहर निकलें और रोहिंग्या मुसलमानों पर अपना रुख साफ करें। प्रतिक्रिया में सू की साफगोई की सराहना करनी होगी। उनका कहना था कि कभी-कभी हालात के अनुसार फैसले लेने पड़ते हैं। भारत-म्यांमार संबंधों पर एक नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि दोनों देशों के बीच संबंध या तो बहुत मधुर रहे या फिर बेहद कटु। जवाहरलाल नेहरू और सू की के पिता जनरल आंग सान के बीच बहुत गहरी दोस्ती थी। उस समय म्यांमार को बर्मा के नाम से जाना जाता था। यह एक ऐसा देश था जिसके पास विपुल प्राकृतिक संसाधन, उच्च साक्षरता दर और जनसंख्या का घनत्व काफी कम था। हालांकि 1962 में नागरिक सरकार के तख्तापलट के बाद बर्मा सैन्य शासन के खोल में सिमट गया। 8-8-88 यानी 8 अगस्त, 1988 को सैन्य शासन ने हजारों बर्मी छात्रों तथा सैन्य शासन के विरोधियों को बड़ी क्रूरता के साथ मौत के घाट उतार दिया था। सू इस लोकतंत्र समर्थक आंदोलन की नेता के रूप में उभरीं। सैन्य सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। यह उनकी लंबी सजा की शुरुआत थी। तब से सू की तथा उनका देश एकांतवास में दिन गुजार रहे थे। विडंबना देखिए कि 1984-89 के दौरान राजीव गांधी ने लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का समर्थन करके यंगून में सैन्य शासकों को अपने खिलाफ कर लिया और इसके गंभीर दुष्परिणाम भुगतने पड़े। म्यांमार ने भारत के पूर्वोत्तर में जारी विद्रोही समूहों को खुला समर्थन दिया और दिल्ली के लोकतंत्र समर्थक रुख ने भारत को विकट स्थिति में ला खड़ा किया। अब भारत को म्यांमार में शत्रु नंबर एक के रूप में देखा जाने लगा। नरसिंह राव के शासन काल (1991-96) में दिल्ली ने यंगून के साथ कटु संबंधों के कारण भारत के सुरक्षा हितों पर मंडराते खतरे को महसूस किया और इनमें बदलाव की शुरुआत की। यहीं से दिल्ली के म्यांमार के सैन्य जुंटा के साथ नए संबंधों का अध्याय शुरू हुआ, पर इसका यह कतई मतलब नहीं है कि भारत ने म्यांमार में तानाशाही का अनुमोदन कर दिया है। नीति में इस परिवर्तन का फायदा हुआ-न केवल भारत को, बल्कि दोनों देशों को। पूर्वोत्तर में विद्रोही गतिविधियों में कमी आने से भारत ने राहत की सांस ली।
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यह वह दौर था जब अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने म्यांमार पर प्रतिबंध लगा रखे थे। इस कारण म्यांमार पूरे विश्व से कट गया था। भारत के सहयोग से म्यांमार इस कठिन समय का सामना कर पाया। सू की के नेतृत्व में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को भारत द्वारा समर्थन न दिया जाना कोई लापरवाही भरी भूल नहीं थी, बल्कि सुविचारित नीति थी। जब राजनीतिक दांवपेंच की बात आती है तो भारत के पड़ोसी अधिक चतुर निकलते हैं। हालांकि इनमें से अधिकांश द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद औपनिवेशिक दासता से आजाद हुए, किंतु उनकी स्वतंत्रता सही अर्थो में लोकतंत्र में परिलक्षित नहीं हो पाई। नागरिक सरकारों को सेना ने उखाड़ फेंका। भारत के दो पड़ोसियों-पाकिस्तान और बर्मा में यही हुआ। 1971 में पैदा होने वाले बांग्लादेश में भी सेना ने सरकार का तख्तापलट कर दिया था। म्यांमार इसका ज्वलंत उदाहरण है। नेपाल और श्रीलंका खुद अपनी आंतरिक अशांति से जूझ रहे हैं और भारत के लिए चीन का मसला हमेशा से चिंता का विषय रहा है। जैसा कि करजई के हालिया दौरे से स्पष्ट है, भारत लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा करने के लिए दीर्घकालिक सहायता तथा उदार आर्थिक सहायता दे सकता है। अंतत: इन देशों में वहां के नागरिकों को ही निर्णायक चुनाव करना है और जैसाकि सूकी के अनुभव से पता चलता है, भारत विरोधाभासी मजबूरियों से सफलता के साथ निपट सकता है।
लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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