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झूठे रसूख का यह कैसा लेन-देन

जागरण मेहमान कोना
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मशहूर फ्रांसीसी समाजशास्त्री मार्शल मौस ने अपनी किताब द गिफ्ट में उपहारों के अस्तित्व को बखूबी समझाया है। उपहारों का यही लेन-देन (गिफ्ट गिफ्टिंग प्रैक्टिस) समाज में किस तरह अपने रसूख का प्रतीक बन गया, मार्शल मौस ने इस पर गहराई से प्रकाश डाला है। 1923 में छपी यह किताब आज भी तब प्रासंगिक हो उठती है, जब इसका जीता जागता उदाहण समकालीन भारतीय समाज में त्योहारों के मौके पर देखने को मिलता है, खासकर दिवाली के मौके पर। सालभर महंगाई का रोना रोने वाला मध्य वर्ग इन दिनों न जाने कहां से इतना महत्वाकांक्षी हो जाता है कि महंगे उपहारों के आदान-प्रदान में महंगाई को भी भुला बैठता है। दरअसल, यह तोहफों का आदान-प्रदान मात्र नहीं है। आज यह रसूख का सवाल बन चुका है, जिसके पीछे मकसद होता है सिर्फ और सिर्फ दिखावा। मनोवैज्ञानिकों का भी कहना है कि आजकल उपहारों के आदान-प्रदान के बाद आत्म संतुष्टि लेने वाले के बजाय देने वाले को ज्यादा होती है। जाहिर है, यह संतुष्टि इस बात का प्रतीक है कि हम देकर फिर अपना दिखावटी मुखौटा ओढ़ना चाहते हैं। हमने तुम्हें दिया, तुमने हमसे लिया, और हम तुमसे ज्यादा बड़े बन गए, उपहारों के लेन-देन में यही मानसिकता काम कर रही है। मध्य वर्ग ने अपनी इमेज बिल्डिंग का यह नायाब तरीका बना डाला है। ऐसे में सामने वाले को भले ही एक बड़ा-सा उपहार मिल जाए, लेकिन वह तुलनात्मक अभावबोध का शिकार होने लगता है।


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यह ऐसी विडंबना को जन्म देता है, जिसमें एक व्यक्ति पाकर भी खुश नहीं है और दूसरे के मन में देने का गुमान छाया है। यह समाजशास्त्र की चिंता का सबब होना चाहिए। देखने में यह बात साधारण सी लगती है, लेकिन इसके मायने व्यापक हैं। दिवाली के सुख और समृद्धि का मतलब ही पूरा बदल दिया गया है। गरीबों में अक्सर सुना भी जा सकता है कि दीवाली तो हमेशा अमीरों की ही होती है, क्योंकि वह रसूख उनके हिस्से में नहीं है जिसका दिवाली के नाम पर बोलबाला बढ़ रहा है। शगुन के नाम पर भी अच्छा शगुन, बुरा शगुन उसकी मौद्रिक कीमत से तय किया जाता है। महानगरों की संस्कृति से सभी वाकिफ हैं, जहां तकरीबन हर किसी के पास सामाजिक मेल-मिलाप के लिए समय काअभाव रहता है। अब तो यह अभाव त्योहार पर भी साफ दिखने लगा है। ऐसे में त्योहार के दिन उस कमी को उपहारों से पूरा करने की कोशिश जारी है। इसके पीछे यह मानसिकता काम करती है कि लेने वाला हमें उस तोहफे के साथ याद रखे। यहींसे इस प्रथा की गलत दिशा तय होती गई। इस मामले में हमारे विज्ञापन भी कम नहीं हैं, जिनमें तरह-तरह से यह बताने की कोशिश की जाती है कि आप किस तरह उनकी कंपनी के महंगे उपहारों से अपनों को खुशी दे सकतें हैं, मानो उनके बिना खुशियां अधूरी ही हों। मिसाल के तौर पर राखी पर दिखाया जाता है कि भाई के तोहफा न देने से बहन नाराज हो गई।


क्या यह इस बात बढ़ावा देना नहीं है कि मजबूरी या किसी कारणवश जो तोहफा न दे सका और जिसे तोहफा न मिल सका दोनों के मन में हीन भावना जगाई जाए? अब दिवाली को ही लीजिए। नकली मावा मिठाइयों की खबरें आ रही हैं, फिर भी घर आने वाला जब तक मिठाई का कंटेनर न लेकर आए तब तक इस मध्यवर्ग को उसकी खिदमत करने में मजा ही नहीं आता। बाजारों में भी तमाम स्पेशल गिफ्ट पैक इन्हीं परिवारों की भावनाओं को भुनाने के लिए लाए जाते हैं, ताकि इन्हीं दिनों बड़ा मुनाफा कमाया जा सके। यह चलन नव उदारवाद के सह उत्पाद उपभोक्तावाद का मूल उत्पाद है। यहां से यह भी पता चलता है कि सामाजिक-निजी रिश्तों में गिफ्ट गिफ्टिंग प्रैक्टिस को हमने न सिर्फ डालना शुरू कर दिया, बल्कि इसने यहां अपना अच्छा दखल भी बना लिया। यही मध्यवर्गीय समाज इस बात की गंभीरता को समझना ही नहीं चाहता। उसे इतना भी आभास नहीं है कि वह अपने रसूख की होड़ में जितना खर्च कर रहा है, उससे भी कम कीमत पर उन्हें खुश कर सकता है, जिन्हें दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं। न तो यह बात यहीं खत्म होती है और न ही चलन। महानगरों की देखादेखी यह चलन अब उनसे सटे गांवों तक पहुंच रहा है और ये तमाम बातें कुछ लोगों में आपराधिक प्रवृत्तियां भी जगाने का काम करती हैं। भौतिकवाद के दम पर रसूख बनाने वाले लोग भूल गए कि इस रसूखदार धारा में शामिल होने के लिए बहुत से लोग गलत तरीकों का सहारा लेते हैं, जो घूसखोरी और भ्रष्टाचार के रूप में विकसित हो जाती हैं। बीते समय में सभी ने अन्ना के आंदोलन में जमकर नारे लगाए, सरकार को कोसा, भ्रष्ट तंत्र की निंदा की, मगर भ्रष्टाचार की असली वजह समझने में असफल रहे। इस त्योहार के मौके पर अपने आसपास ही देख लें, सच सामने आ जाएगा। भाई साहब को पसंद नहीं आया कि दूसरे भाई साहब ने दो किलो मिठाई क्यों भिजवाई, मैंने तो पांच किलो भिजवाई थी।


भारत की नई भूमिका


सासू मां को पसंद नहीं कि दीवाली पर बहू के ससुराल से कम महंगे कपड़े आएं, या कपड़े आ गए तो गहने क्यों नहीं आए? बहनजी नाखुश हैं कि उनके पति ने इस बार पड़ोसिन से ज्यादा महंगी साड़ी क्यों नहीं दिलाई। यह घर-घर की कहानी है। ये वही लोग हैं, जो सालभर महंगाई की दुहाई देते रहे। हैरत और चिंता का विषय है कि यही बात बच्चों के मन में भी घर करने लगी है। चॉकलेट का बड़ा डब्बा लाने वाले अंकल अच्छे, लेकिन कोई अंकल अगर खाली हाथ आए तो वे खराब, चाहे वे कितना भी प्यार भरा हाथ उनके सिर पर फेरकर जाएं। बचपन में भी सिखाया जाता है कि तोहफा लेते समय उसकी कीमत नहीं, बल्कि देने वाले का दिल देखा जाता है, लेकिन आज का बचपन दूसरे ही तोहफों के दूसरे ही संस्कार पा रहा है। फेस्टिव सीजन में ही तमाम सीखें दरकिनार कर दी जाती हैं और फिर जब बड़े लोग ही अपने स्वार्थ सिद्धि के चलते सब कुछ भुला देते हैं तो ये तो फिर भी बच्चें हैं। समझने वाली बात है कि भ्रष्टाचार, दहेजप्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराधों के मूल में समाज की गलत सोच ही है और ये उसी के परिणाम हैं। अब जबकि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लहर दौड़ रही है, आंदोलन हुआ और आवाजें उठीं तो कम से कम अब हमें अपनी इस नासमझी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। इस आंदोलन ने बहुत देर बाद हमारे देश में जगह बनाई है और हमें इसे जाया होने से बचाना होगा। भ्रष्टाचार के आंदोलन में महज नारे लगाने से बेहतर होगा कि हम इसकी वजह को समझें और उन्हें न दोहराने का प्रयास करें। इस दिवाली पर हमें अपने स्वार्थ भुलाकर, रसूख और दिखावे का झूठा सच त्यागकर एक नई शुरुआत करनी होगी। सुख और समृद्धि का मतलब महंगे तोहफों का आदान-प्रदान नहींहोता। खुशहाली और समृद्धि संतोषजनक जीवन से है, जिसमें पैसे और भौतिक वस्तुओं के लालच की कोई जगह नहीं है। वहां सिर्फ और सिर्फ भावनाएं हैं।


लेखिका आशिमा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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Tags:Diwali, Festival Diwali, Dowry, Corruption, India, फ्रांसीसी , समाजशास्त्री मार्शल मौस, दिवाली , भ्रष्टाचार , दहेजप्रथा, कन्या भ्रूण हत्या

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