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न्याय न हो पाने का अन्याय

जागरण मेहमान कोना
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अदालतों में लंबित मामलों के त्वरित निस्तारण के लिए अधिवक्ताओं से सार्थक पहल करने की अपेक्षा कर रहे है राजीव गुप्ता


आमतौर पर व्यक्तिगत रूप में अधिवक्ता एक-दूसरे के घनिष्ठ मित्र होते हैं, किंतु जब वे न्यायालय में एक-दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं तो अपने-अपने पक्षकार के हित के लिए कानून की हद में रहते हुए कुछ भी कहने-करने के लिए तैयार रहते हैं। तात्पर्य है कि यदि एक पक्ष ने अंतरिम आदेश प्राप्त किया हुआ है तो विपक्ष के अधिवक्ता वादी के अधिवक्ता से सहयोग न मिलने के कारण उस पर सुनवाई नहीं करा पाते हैं यानी यदि एक पक्ष की रुचि प्रकरण का निस्तारण न होने देने में है तो दूसरे पक्ष के अधिकांश प्रयास व्यर्थ ही चले जाते हैं, जिससे न्यायालयों में तारीख पर तारीख का एक अंतहीन सिलसिला प्रारंभ हो जाता है।


क्या कारण है कि वर्ष 1960-70 के दशक तक भारत के न्यायालयों में विवाद निवारण की परिस्थितियां नियंत्रण में थीं, किंतु उसके पश्चात अनियंत्रित होती चली गई। मेरी समझ से हमारे जीवन मूल्यों में गिरावट आने से सहयोग ने संघर्ष का रूप ले लिया है। वैश्वीकरण के इस काल में जहां विश्व के समस्त राष्ट्र एक-दूसरे से सहयोग करके आगे बढ़ रहे हैं वहीं अधिवक्ता सहयोग के पाठ को भूलते जा रहे हैं। हाल में ही बेंगलूर में हुए सम्मेलन में एक सर्वे से यह बात सामने आई कि मात्र 9 प्रतिशत विवाद ही न्यायालयों में आ रहे हैं। इसका मुख्य कारण है-निस्तारण में देरी। यदि यह स्थिति इसके विपरीत होती यानी 91 प्रतिशत विवाद न्यायालय में आ रहे होते तो आज अधिवक्ताओं के पास कम से कम दस गुना कार्य होता। आज विधिक सहायता दिवस के अवसर पर इस पर विचार करने की जरूरत है कि पीड़ित व्यक्ति न्यायालय की शरण में क्यों नहीं आना चाहते? यदि कहा जाए कि आज तो पीड़ा देने वाले व्यक्तियों को न्यायालय रास आने लगे हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी वर्ष 2010 के दिलीप सिंह के बाद वर्ष 2011 के अमर सिंह वाले निर्णय में पुन: यह कह दिया कि आजादी के पूर्व न्यायालय में झूठ न बोलने तथा सच बताने में गर्व महसूस करने वाला व्यक्ति आज बेखौफ शपथ लेकर और न्यायालय में झूठ बोलकर अंतरिम आदेश प्राप्त कर रहा है। संभवत: इसी कारण अधीनस्थ न्यायालयों में तो अंतरिम स्थगन आदेश प्राप्त करना आज असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य हो गया है तथा इससे उच्च न्यायालयों का कार्यभार अनावश्यक रूप से बढ़ा है। आज न्यायालयों को अंतरिम राहत देते समय दो तरह का संशय होता है। पहला, आदेश झूठ बोलकर गलत तथ्यों एवं साक्ष्यों पर लिया जा सकता है तथा दूसरे, यदि अंतरिम आदेश प्राप्त कर लिया गया तो उसके निस्तारण में तारीख पर तारीख का अनवरत सिलसिला प्रारंभ हो जाएगा। जो स्थिति सिविल मामलों की है, लगभग वही स्थिति दांडिक प्रकरणों की भी है। अधिकांश अपराधों को तथा अपराधियों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर लिखाया जाता है, जिससे प्रत्येक परिवाद विवाद को न्यायालय द्वारा शंका की दृष्टि से देखा जाता है।


यदि अधिवक्ता चाहें तो इन परिस्थितियों में बदलाव लाया जा सकता है। उन्हें मुवक्किलों को झूठ बोलने अथवा तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने से न केवल हतोत्साहित, बल्कि रोकना भी चाहिए। हालांकि जीवन मूल्यों का ह्रास हर क्षेत्र में हुआ है, किंतु न्यायालय संभवत: सबसे अधिक प्रभावित हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में ह्रास होने पर सरकारी अस्पतालों के साथ निजी अस्पताल भी आ गए हैं, जिनमें कम से कम समर्थ एवं सक्षम रोगी का समुचित इलाज हो जाता है, परंतु न्याय के क्षेत्र में हुए ह्रास का स्थान कौन लेगा? वादकारी के विवाद का हल कहां होगा? क्या यह वही न्यायालय है, जिसे अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षो में हमने देखा था? आखिर हम किस प्रकार की न्याय व्यवस्था अपनी भावी पीढी़ के लिए छोड़कर जाएंगे। पर्यावरणविद कहते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करो, पेड़ लगाओ जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी हमें दोष न दें। इसी तरह आज अधिवक्ताओं, न्यायाधीशों को यह समझने की आवश्यकता है कि मुकदमों का निर्णय तेजी से होने दो, हड़तालें कतई न करो, मुवक्किलों को झूठ बोलने पर हतोत्साहित करो, जिससे न्यायिक क्रियाविधि पर आधारित न्याय व्यवस्था कायम रह सके। पीड़ित व्यक्ति इसकी शरण में आने पर घबराएं नहीं। यदि किसी के घर में कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो वह उसे उसी अस्पताल में ले जाना पसंद करता है जहां जल्द से जल्द इलाज करके मरीज को स्वस्थ किया जाए। क्या आज हमारे न्यायालयों में विवादों का न्यायोचित, विश्वसनीय एवं आशानुकूल हल हो पा रहा है? चूंकि ऐसा नहीं हो रहा और इसी कारण मात्र 9 प्रतिशत विवाद ही न्यायालय तक पहुंच पा रहे हैं। आज के परिवेश में हम सभी का ध्यान दूसरे व्यक्ति के दायित्वों, कर्तव्यों पर अधिक है, अपने पर नहीं।


अब समय आ गया है, जब हर एक को अपने अधिकारों से अधिक अपने कर्तव्यों पर जोर देना होगा। इससे व्यक्ति एवं समाज, दोनों का उत्थान होगा। अधिवक्ताओं को मुकदमों के निस्तारण में देरी के लिए विपक्षी अधिवक्ता का दोष देने के स्थान पर स्वयं के व्यवहार को देखना होगा। एक-दूसरे से सहयोग करना होगा। पक्षकारों के व्यक्तिगत हित न देखकर समाज हित को देखना होगा। विलंब की इच्छा रखने वाले वादकारियों से असहयोग करना होगा। यदि अधिवक्ता स्वयं को अपने मुवक्किल से थोड़ा-सा अलग हटकर मानें तथा पक्ष एवं विपक्ष के अधिवक्ता होने की परवाह किए बिना मुकदमों के निस्तारण में सहयोग करें, तो अभी भी स्थिति इतनी खराब नहीं हुई है कि उस पर नियंत्रण न किया जा सके।


लेखक राजीव गुप्ता इलाहाबाद हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं


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