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पायलटों की कमी से जूझती वायुसेना

जागरण मेहमान कोना
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पूरी दुनिया में वायुसेनाओं में सर्वोत्तम मानी जाने वाली और भारत-पाकिस्तान के बीच हुए तीन युद्धों में अपने जांबाज लड़ाकुओं की वीरता, उनके अदम्य साहस के बलबूते विजय पताका लहराने वाली भारतीय वायुसेना आज पायलटों की कमी का सामना कर रही है। इसमें आए दिन होती लड़ाकू विमानों की दुर्घटनाओं, उनमें प्रशिक्षित पायलटों की मृत्यु होने और जमीनी स्तर के वायुसैनिक तकनीकी अधिकारियों-तकनीशियनों के बीच तालमेल के अभाव ने जहां प्रमुख भूमिका निबाही है, वहीं भूमंडलीकरण के दौर में सुविधा, सम्मान और आकर्षक वेतन की चाह में युवाओं के सूचना प्रौद्यौगिकी, प्रबंधन आदि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर बढ़ते लगाव ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। युवा आज सेना से विमुख होते जा रहे हैं। निजी एयरलाइंसों की तेजी से बढ़ती संख्या ने और पायलटों के संकट में और इजाफा किया है। इसके कारण जहां एक-डेढ़ दशक पूर्व वायुसेना में लगभग साढ़े पांच सौ पायलटों की कमी का सामना वायुसेना को करना पड़ रहा था, वहीं उसमें साल-दर-साल होती बढ़ोतरी ने वायुसेना के सकंट को और गंभीर कर दिया। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। नतीजन, आज भी 600 पायलटों की कमी से वायुसेना जूझ रही है।


रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार दो-तीन साल पहले तक तकरीबन 17 सौ विमानों के बेड़े वाली भारतीय वायुसेना में लड़ाकू मिग, जगुआर आदि विमानों के अलावा एएन 32, आइएल 76, आइएल 78, बोइंग या एवरो जैसे टर्बो प्रोपल्सन आदि परिवहन व मालवाहक विमान थे। जबकि बीते दो-तीन सालों में ही वायुसेना के बेड़े में दूर तक मार करने वाले मल्टीरोल युद्धक विमान, चिनुक हेलीकॉप्टर और हवा से हवा में ईधन भरने वाले उज्बेकिस्तान में निर्मित आईएल 78 व नए परिवहन विमान भी शामिल हुए हैं और कुछ आने वाले सालों में शामिल होने वाले हैं, जो वायु सेना की ताकत को कई गुना और बढ़ा देंगे। असलियत में दस-बारह साल पहले वायुसेना के इन विमानों को उड़ाने के लिए पायलटों की अधिकृत संख्या तीन हजार के लगभग थी। जबकि वायुसेना के पास उस समय मात्र पौने तीन हजार के लगभग पायलट ही मौजूद थे। तात्कालिक उपाय के बतौर वायुसेना ने उस समय हेलीकॉप्टर और परिवहन विमानों के पायलटों को लड़ाकू विमानों के लिए अपनी सेवाएं देने के लिए प्रेरित किया, लेकिन दो के अलावा कोई पायलट इसके लिए तैयार नहीं हुआ।


सरकारी के अलावा निजी एयर लाइनों में आकर्षक वेतन, भत्ते और सुविधाओं के लालच में वायुसेना से इस्तीफा देकर जाने वाले पायलटों का सिलसिला वर्ष 2004 तक तो आसानी से चलता रहा। वर्ष 2004 में देश में जब निजी एयरलाइंस ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वह मनचाही कीमत पर पायलटों को हासिल करने लगीं, तब कहीं जाकर बाजार की ताकतों का वायुसेना को एहसास हुआ। उस समय तक वायुसेना के करीब दो सौ पायलट नौकरी छोड़कर निजी एयरलाइंस के विमान उड़ाने लगे थे। यही नहीं, लगभग इतने ही लड़ाकू, परिवहन विमानों व हेलीकॉप्टरों के पायलट नौकरी छोड़ने की कतार में खड़े थे। तब घबराकर वायुसेना ने मार्च 2004 में पायलटों के लिए 20 वर्ष की सेवा अवधि पूरी करने या फिर तीन प्रमोशन बोर्ड को पूरा करने की शर्त लगा दी। उस समय वायुसेना की शर्त थी कि किसी एयरलाइंस में नौकरी के लिए इस्तीफा नहीं दिया जा सकता। वह तो विशेष पारिवारिक स्थिति, पारिवारिक संपत्ति या माता-पिता की देखभाल के लिए ही दिया जा सकता है। उससे पूर्व एयर चीफ मार्शल एस. कृष्णास्वामी का यह विचार था कि दस वर्ष की अवधि के बाद पायलट इस्तीफा देकर जा सकता है, क्योंकि इस अवधि में उस पर किए गए खर्च की वसूली हो जाती है। गौरतलब है कि तब वायुसेना ने एक और प्रयास यह किया कि पहले सेवानिवृत्ति की आयुसीमा 60 की और फिर उसे बढ़ाकर 61 साल तक कर दिया।


वायुसेना ने घबराकर तब एक और बीच का रास्ता निकाला कि वायुसेना के पायलट एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस की जरूरतों को पूरा करने के लिए इनमें डेपुटेशन पर भेजे जाएंगे और इसके लिए उन्हें अच्छा खासा भत्ता भी मिलेगा और साथ ही साथ वह वायुसेना में भी बने रहेंगे। बारी-बारी से उन्हें इस तरह मोटी कमाई भी हो जाएगी, लेकिन इसके बाद भी मर्ज बढ़ता ही चला गया। लेकिन पायलटों का वायुसेना छोड़ने का सिलसिला इसके बाद भी थमा नहीं और वे निजी एयरलाइंस में लाखों रुपये महीने सेलरी के लालच में मात्र रुतबे की वायुसेना की नौकरी छोड़कर लगातार जाने लगे। तब कहीं तंग आकर अंतत: वायुसेना ने पायलटों के इस्तीफे नामंजूर करने शुरू कर दिए। इससे भी समस्या हल नहीं हो सकी और वह ज्यों की त्यों बनी रही। इसका एक कारण यह भी रहा कि वायुसेना में तो लड़ाकू, परिवहन विमानों या फिर हेलीकॉप्टर उड़ाने के लिए पायलटों की चयन प्रक्रिया में श्रेष्ठतम योग्यता और गुणों वाले पायलटों को ही लड़ाकू विमान उड़ाने को दिया जाता है, लेकिन हाल में लड़ाकू विमानों को उड़ाने के लिए पायलट आवश्यक योग्यता पर खरे नहीं उतरते। कारण यह है कि इनके चयन में किसी प्रकार की ढील भी नहीं दी जा सकती, क्योंकि आज के लड़ाकू विमान अत्यधिक उच्च तकनीक वाले और काफी महंगे होते हैं, जिन्हें उड़ाने वाले पायलट का शारीरिक व मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त होना बहुत जरूरी होता हैं। इन मापदंडों पर कम ही पायलट खरे उतर पाते हैं।


वायुसेना एक लड़ाकू पायलट तैयार करने पर 10 करोड़ पैंतीस लाख, परिवहन पायलट पर तीन से पांच करोड़ और हेलीकॉप्टर पायलट पर दो करोड़ से तीन करोड़ रुपये तक खर्च करती है। एक कॉमर्शियल पायलट बनने के लिए आमतौर पर आज 25 से 40 लाख रुपये तक खर्च करने पड़ते हैं, जो संपन्न परिवार के लिए ही संभव है। मध्यम और निम्न वर्ग के नौजवानों द्वारा शार्टकट के रूप में वायुसेना को चुनने की यही अहम वजह है। आने वाले तीन वर्षो में करीब 2500 नये पायलटों की जरूरत होगी, जबकि हर साल देश में मात्र 150 पायलट ही कॉमर्शियल पायलट का लाइसेंस ले पाते हैं। आज कोई 200 विदेशी पायलट भारतीय एयरलाइंस के मुलाजिम हैं। पहले भारतीय पायलट नौकरी के लिए विदेशों में जाते थे, जबकि आज हालत यह है कि सोवियत संघ से अलग हुए सीआइएस देशों के अलावा अफ्रीका, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों के पायलट भारतीय निजी एयरलाइंस के विमान उड़ा रहे हैं। ऐसे समय में जबकि भविष्य में जिस तरह के युद्ध होंगे, उनमें पायलटों की संख्या का काफी महत्व होगा और उसमें अति आधुनिक विमानों की बेहद जरूरत होगी। इसकी चेतावनी तो चार वर्ष पहले पूर्व वायुसेनाध्यक्ष अर्जुन सिंह दे चुके हैं। उनका मानना रहा है कि भारतीय वायुसेना को न केवल अति आधुनिक विमान चाहिए, बल्कि समुचित संख्या में पायलट भी होने चाहिए। जाहिर-सी बात है कि अति कुशल प्रशिक्षित लड़ाकू पायलट का होना आवश्यक है, जबकि भारतीय वायुसेना के पास पायलटों का ही अभाव है।


लेखक ज्ञानेंद्र रावत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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