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भ्रष्टाचार पर अपने-अपने तेवर

जागरण मेहमान कोना
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देश इन दिनों एक बिल्कुल ही नए हालात से रूबरू हो रहा है, जहां आंदोलनों की एक फेहरिस्त चल रही है। हालांकि एक-दूसरे के समानांतर चलते इन आंदोलनों का केंद्रीय विषय एक ही है- सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्वच्छता। किसी का संघर्ष भ्रष्टाचार रोकने के नाम से चल रहा है तो किसी का काले धन के खिलाफ। कोई राजनीति में शुद्धता की बातें कर रहा है। लेकिन देखें तो भ्रष्टाचार समाज की नैतिक अवस्था का प्रतिबिंब है, जबकि काला धन इसके नतीजे में पैदा हुआ बायप्रोडक्ट है। वहीं, राजनीति इन्हें रोकने या फिर होने देने के लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा कारक है। इन सब आंदोलनों में एक और बात सामान्य है। ये सारे आंदोलन बेहतरी के लिए उच्च नैतिक उदाहरण पेश करते हुए आग्रह नहीं करते, बल्कि दबावपूर्ण आदेश देते नजर आते हैं। इन सबमें भ्रष्टाचार मिटाने का मध्यमार्ग कहीं नहीं दिखता। वहीं, सरकार कहती है कि इस तरह से दबाव डालकर कानून नहीं बनवाया जा सकता। इसके खिलाफ वह खुद के बारे में चुनकर आए जनप्रतिनिधि होने का हवाला देते हैं और कहते हैं कि कानून बनाना या न बनाना उनके अधिकार के दायरे में आता है। सत्ता में बैठे लोग बीच-बीच में सामने वाले को लोकतांत्रिक लक्ष्मण रेखा पार न करने के लिए भी आगाह करते हैं।


सरकार की चिंता खुद पर बनाए जा रहे दबाव को लेकर है, जबकि वास्तव में चर्चा इस बात पर जरूरी लगती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यक्ति या संस्थाओं के खिलाफ सख्ती में समाधान है या एक चाक-चौबंद रणनीतिक व्यवस्था बनाने में? या फिर इन दोनों के मिले-जुले स्वरूप में? जरा सोचिए, देश के किसी उद्योगपति, राजनेता या नौकरशाह का वारिस किसी न किसी रूप में विरासत संभलता है और विरासत में मिली उसकी संपत्ति या उसका कोई हिस्सा काला है। क्या उससे यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अपनी संपत्ति यह कहकर सरकारी कोष में डाल देगा कि उसके पुरखों ने ये पैसे जायज तरीके से नहीं कमाए हैं? और क्या अगर वह ऐसा नहीं करता है तो उसे सजा का हकदार माना जाना चाहिए? यकीनन पहली स्थिति अव्यावहारिक है, जबकि दूसरी मौजूदा भारतीय परिस्थितियों में नामुमकिन-सी। समझने की जरूरत यह है कि हममें से अधिसंख्य लोगों को कहीं न कहीं भ्रष्टाचार विरासत में हासिल हुआ है।


यह परिवार के जरिए धन के रूप में मिला हो सकता है या फिर समाज का हिस्सा होने की वजह से माहौल की शक्ल में हासिल हुआ हो सकता है। दूसरी स्थिति हमें आगे चलकर गलत रास्ते पर जाने को मजबूर करती है, जबकि पहली स्थिति हमारे वश से बाहर की चीज होती है और जाने-अनजाने में हम भ्रष्टाचार के उस रूप के वाहक बनने पर मजबूर होते हैं। तो समाधान क्या हो? जिसे काला धन और करप्शन विरासत में मिला है, वह क्या करे? क्या सख्ती में समाधान का रास्ता है? यकीन मानिए महात्मानुमा स्वरूप धरकर कोई यों ही समाज में बनी अपनी हैसियत छोड़ने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि आज का समाज किसी भी तरीके से होड़ करने और आगे निकलने वालों की इज्जत करता है। उसे हीरो का दर्जा देता है। आइकन वही कहलाता है। ऐसे में दरअसल जरूरत भ्रष्टाचार पर व्यापक चर्चा की है और इससे निकलने का लंबा रास्ता कहीं ज्यादा कारगर हो सकता है। जो मजबूर करता और दबाव डालता हुआ न दिखे, बल्कि व्यावहारिक हो। सामने वाले से प्रभावी तरीके से बदलाव का आग्रह करता हुआ हो यानी जरूरत विशुद्ध व्यावसायिक सोच की है, क्योंकि इमोशनल होकर भ्रष्टाचार रोकना और काले धन को निकालना मुमकिन नहीं लगता।


विचार इस बात पर होना चाहिए कि बीच का रास्ता क्या हो सकता है? विचार इस पर हो कि कोई विदेशों में जमा कालाधन अगर खुद उजागर करने और देश में लाने की इच्छा जाहिर करता है तो क्या उसके लिए कोई कारगर योजना हमारे पास है? जरूरत किसी ऐसे मेकेनिज्म की है कि अगर कोई 100 रुपये काला धन देश में वपास लेकर आता है तो इसमें से कितना हिस्सा उसे खुद के पास सीधे रखने की छूट दी जा सकती है और कितना उसे बतौर सरकारी कोष में डालना जरूरी होगा। कोई ऐसी रचनात्मक बाध्यता भी रखी जा सकती है कि देश में लाए जाने वाले ऐसे काले धन का एक निश्चित प्रतिशत कुछ तयशुदा सामाजिक कार्यक्रमों और योजनाओं पर ही खर्च हों। मसलन, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल जैसी चीजों पर। साथ ही, सबसे बढ़कर सरकार यह भी सुनिश्चित कर सकती है कि अपना कालाधन उजागर करने वालों के नाम कैसे बेहद अतिगुप्त रखे जाएं या फिर देश कोई ऐसी आम राय पर पहुंचे, जिससे कि ऐसे लोग सामाजिक कुदृष्टि के शिकार होने के बजाय समाज के पुनर्निमाण के दूत के रूप में देखे जाएं। कोई कह सकता है कि यह तो भ्रष्टाचारियों को छूट देने का फॉर्मूला है। उनके आगे घुटने टेकने का सुझाव है। ऐसे में यकीनन एक उपाय इससे अगली सीढ़ी पर करने की भी जरूरत होगी, क्योंकि ये उपाय अब तक हुए भ्रष्टाचार को लेकर समाधान हो सकते हैं। ये आगे भ्रष्टाचार रुकने की गारंटी नहीं देते। इसके लिए विकल्प यह हो सकता है कि संसद एक तारीख सुनिश्चित करे, जो देश के लिए उतने ही पावन हों, जितने 15 अगस्त, 26 जनवरी या फिर 2 अक्टूबर होते हैं। इस तारीख से आगे देश करप्शन के खिलाफ जीरो टॉलरेंस जोन में चला जाए। यानी इस तारीख के बाद किया गया भ्रष्टाचार बेहद कम समय में सख्त सजा का हकदार हो। अगर वह शख्स राजनीति से जुड़ा है तो उसके लिए यह व्यवस्था हो सकती है कि वह कुछ साल तक चुनावी राजनीति से दूर रहेगा। साथ ही चुनाव आयोग के जरिए यह व्यवस्था दिलाई जा सकती है कि जब वह वापस राजनीति की मुख्यधारा में लौटेगा तो कोई भी विरोधी उम्मीदवार उसके इस अतीत को हथियार बनाकर उसके खिलाफ इस्तेमाल नहीं करेगा।


संभावित विकल्पों के ये महज कुछ बिंदु मात्र हो सकते हैं, जब विकल्पों पर व्यापक और गहराई से बात होगी तो यकीनन बड़े और अच्छे सुझाव आ सकते हैं। हां, इनमें केंद्रीय बात यह जरूर हो कि भ्रष्ट लोगों के खिलाफ व्यावहारिक रवैया होते हुए भी सिस्टम भ्रष्टाचार के खिलाफ अति आग्रह जैसी अवस्था में न दिखे। आज जरूरत उस सिस्टम की है, जिसमें काला धन रखने में भविष्य की जितनी सुरक्षा दिखे, उससे कहीं अधिक सुरक्षा की गारंटी उस धन को राष्ट्रनिर्माण में लगाने में महसूस हो। सिस्टम सख्ती से भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा दिखे, लेकिन गलत रास्ते पर निकल चुके तबके के लिए वापसी का कारगर रास्ता भी सुझाए। ईमानदारी से काम करना आत्मसंतुष्टि दे, सिटीजन चार्टर देखकर दबाव में काम करने की मजबूरी न लगे।


लेखक अश्विनी कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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