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शांत उत्तर या दक्षिण भारत में सेना को जनता का पुरजोर समर्थन मिलता है, जबकि राष्ट्रीयता के संघर्षो वाले कश्मीर, मणिपुर या नागालैंड जैसे इलाकों की बहुसंख्यक जनता भारतीय सेना को एक आक्रांता और उत्पीड़क सेना के बतौर ही देखती है। फिर भी, भारतीय सेना इस बात के लिए सम्मान की अधिकारी है कि उसने अपने सम्मान और विरोध के इस भू-राजनैतिक विभाजन पर सांप्रदायिकता की काली छाया कभी नहीं पड़ने दी। इसीलिए सांप्रदायिकता के चरम उभार के दौर में भी आप उत्तर प्रदेश से लेकर आंध्र प्रदेश तक तमाम अल्पसंख्यक समुदायों को राज्य पुलिस-अर्धसैनिक बल हटाने और सेना बुलाने की मांग करते हुए पाएंगे। दूसरी ओर मणिपुर के हिंदू आपको सेना हटाने की मांग करते हुए मिलेंगे। मूल चरित्र में हिंसक प्रतिगामी विभाजनों से भरे समाज में ऐसी छवि का निर्माण कर पाना आसान काम नहीं है। सेना की इस बात के लिए सराहना होनी ही चाहिए कि अपनी पंथनिरपेक्ष छवि पर किसी भी हमले का उसने तीव्र प्रतिकार किया है। फिर चाहे उसे कर्नल पुरोहित जैसे कट्टरपंथियों पर कठोरतम कार्रवाई ही क्यों न करनी पड़ी हो। ऐसे ही अंतर्विरोध सेना के नागरिक समाज से अंतर्सबंधों को भी पारिभाषित करते हैं। जमीनी सिपाहियों से लेकर उच्च आधिकारियों तक आप सैनिकों के अंदर नागरिक जीवन में व्याप्त अवगुणों मसलन भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, भाई-भतीजावाद आदि से उपजा सिविलियंस के लिए एक वितृष्णा का भाव देखेंगे। पर फिर आजादी के तुरंत बाद हुए जीप घोटाले, बोफोर्स, ताबूत घोटाले से लेकर हालिया टैट्रा ट्रक घोटाले और इनकी अंतरकथाओं में अदनान खशोगी जैसे सौदागरों से लेकर चंद्रास्वामी जैसे संतों तक की उपस्थिति याद करें तो साफ हो जाता है कि सेना का भी एक हिस्सा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है।
तमाम नैतिक दावों के बावजूद सेना के पास भी छिपाने के लिए बहुत कुछ है। इसीलिए भारतीय सेना को बहुत से मसलों पर पुनर्विचार की जरूरत है। अशांत क्षेत्रों में अपने ही नागरिकों के मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपी सैनिकों को बचाने से लेकर भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्रवाई करने तक सेना को बहुत कुछ साबित करना है। पर इन सबसे कहीं ऊपर भारतीय सेना का गौरव अपने राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अक्षुण्ण सम्मान में निहित है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से लेकर और तमाम असफल देशों की सेनाओं से ठीक उलट भारतीय सेना ने कभी भी नागरिक प्रशासन से टकराने की कोशिश नहीं की है। ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसे कठिन क्षणों में भी धैर्य बनाए रखने से लेकर नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में हस्तक्षेप से इनकार तक में सेना ने सदैव अपनी गरिमा बढ़ाई है। अफसोस कि पहले जन्मतिथि विवाद में सेनाध्यक्ष के अडि़यल रवैये और फिर बिना अनुमति सेना की लड़ाकू टुकडि़यों के युद्धाभ्यास ने इस गौरवशाली परंपरा को कड़ी चुनौती दी है। किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सेनाध्यक्ष का नागरिक प्रशासन यानी सरकार के खिलाफ न्यायालय जाना अपने आप में में एक गंभीर चिंता की बात है।
सेना प्रमुख की नीयत पर सवाल क्यों
फिर अगर सेनाध्यक्ष के अनुसार इसके पीछे सेना के ही कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के साथ-साथ हथियार लॉबी की संलिप्तता है तो सवाल बनता है कि उनकी नाक के नीचे ऐसा संभव कैसे हुआ? आखिर हथियार लॉबी और वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की मिलीभगत किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए खतरे की ही बात है। इस खतरे में अगर हम बिना अनुमति युद्धाभ्यास को भी शामिल कर लें तो खतरा और बड़ा हो जाता है। बेशक, सबसे नकारात्मक नजरिये से भी इस अभ्यास में सरकार को लज्जित करने से ज्यादा का कोई इरादा नजर नहीं आता और तख्तापलट के कयास कोरी बकवास से ज्यादा कुछ नहीं हैं। वह भी उस स्थिति में, जब सेनाध्यक्ष खुद कहते हों कि उन्हें रिश्वत देने की सीधी कोशिश की गई, लेकिन वह कोई कार्रवाई नहीं कर सके थे। कोई नहीं कह सकता कि सरकार को लज्जित करने के ऐसे प्रयास कब तख्तापलट की कोशिशों में बदल जाएं। आज बात इसलिए संभल गई है, क्योंकि सेनाध्यक्ष की कुर्सी पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा है, जिसकी व्यक्तिगत ईमानदारी और राष्ट्र के साथ-साथ लोकतंत्र में उसकी निष्ठा सवालों के दायरे के परे है। पर क्या इस आधार पर हम कल के लिए आश्वस्त हो सकते हैं? शायद यही समय है कि हम सेना और सरकार के अंतरसंबंधों को मजबूत करने के साथ-साथ सेना के भीतर मौजूद लोकतंत्र विरोधी तत्वों और हथियार लॉबी को ध्वस्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाएं। वरना, कल खतरा सिर पर आ जाएगा।
अविनाश पांडे समर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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