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आज से तीन दशक पहले तक केवल नेहरू-इंदिरा को ही वंशवाद की बुराई बढ़ाने का दोषी माना जाता था, पर अब यह रोग हर छोटी-बड़ी पार्टी में लग गया है। सच यह है कि सत्ता के शिखर पर पहुंचे अधिकतर नेता अपने परिवार से ही उत्तराधिकारी चुनना पसंद करते हैं। उत्तराधिकार की राजनीति का नया उदाहरण तमिलनाडु में एम. करुणानिधि हैं। उन्होंने घोषणा कर दी है कि उनके पुत्र एम. स्टालिन ही उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी होंगे। अब तो ऐसा लगता है मानो करुणानिधि का द्रमुक राजनीतिक दल न होकर कोई पैतृक संपत्ति हो। इस घोषणा से हम भारतीय लोकतंत्र की विसंगतियों और राजनीति की मजबूरियों को भी जान सकते हैं। दक्षिण भारत के ही आंध्र प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पदयात्रा लेकर जा रहे हैं। निश्चित ही यह पदयात्रा अगले चुनावों के लिए तैयारी है। इस पदयात्रा में वह अपनी बहू को भी साथ ले जा रहे हैं। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगमोहन भी अपने पिता की विरासत पर अधिकार जमाने के लिए इस तरह संघर्ष कर रहे हैं मानो यह उनके पिता की निजी संपत्ति है, जो उन्हें मिलनी ही चाहिए। पीए संगमा ने भी अपनी बेटी को राजनीतिक विरासत सौंपी है, उसे सांसद भी बनाया और केंद्र में मंत्री भी। यद्यपि संगमा ने राष्ट्रपति चुनाव स्वयं लड़ने के लिए नई पार्टी बनाई और बेटी को मंत्री पद छोड़ना पड़ा। भारत के पूर्व में उड़ीसा भी पिता की राजनीतिक विरासत संभालने वाले पुत्र का मुंह बोलता उदाहरण है। बीजू जनता दल पिता के बाद पुत्र का ही दल है। महाराष्ट्र भी इस वंशतंत्र की विकृति से बचा नहीं है। बाल ठाकरे ने अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को ही कार्यभार सौंप दिया। उनका एक भतीजा इसी धारा में से निकला हुआ दूसरा नेता है।
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सुनील दत्त की पुत्री और शरद पवार की पुत्री संसद में पहुंचने वाले ऐसे उदाहरण हैं, यद्यपि रास्ता दोनों का अलग रहा। वैसे शिव सेना, द्रमुक से लेकर कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, सपा, राजद, बीजू जनता दल, लोक दल और इनेलो जैसी न जाने कितनी राजनीतिक पार्टियां हैं जिनमें वंश बेल देखी जा सकती है। हिमालय की चोटियों से यह काम शुरू हो गया। जम्मू-कश्मीर अब्दुल्ला परिवार की बपौती बन चुका है। शेख अब्दुल्ला से उमर अब्दुल्ला तक लोकतंत्र के नाम पर वंशतंत्र चला रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में भी धूमल ने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने पुत्र को सांसद और पार्टी के शिखर तक पहुंचा दिया। हिमाचल कांग्रेस में कुछ ऐसी ही रिश्तों का गोलमाल है। पड़ोसी पंजाब और हरियाणा किसी से कम नहीं हैं। प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री, बेटा उपमुख्यमंत्री, बहू सांसद, बहू का भाई मंत्री और अब चाहे अलग हो गया पहले भतीजा भी वित्त मंत्री था। हरियाणा में देवीलाल से लेकर अब अजय-अभय चौटाला की तीसरी पीढ़ी सत्ता में पहंुच चुकी है, चौथी तैयार हो रही है। उत्तर प्रदेश में मुलायम की समाजवादी पार्टी का समाजवादी परिवार बन गया है, पार्टी कम रह गई है। बेटा-बहू, भाई-भतीजे सब सत्तापति हैं। बहू को सांसद बनाने के लिए तो न जाने कैसा जादू फेंका कि उनके सामने कोई चुनाव लड़ने को भी तैयार न हुआ। बहुगुणा परिवार भी पीछे नहीं है। भाई उत्तराखंड में और बहन उत्तर प्रदेश में, चुनाव बेटे को भी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने लड़वाया था। अलग बात है कि हार गए। भारत सरकार में क्या हो रहा है। कोई करुणानिधि के रिश्तेदार, कोई पायलट और सिंधिया की विरासत संभालने वाले, कोई सांसद, दिल्ली की मुख्यमंत्री का बेटा और बेटे-बेटियों की तो यहां भरमार है। भारतीय जनमानस में अभी भी राजाओं का स्तुतिगान करने की आदत बची है। सत्ता के शिखरों पर बैठे बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें चिडि़या की आंख की तरह केवल राहुल गांधी में ही प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण दिखाई दे रहे हैं। दूसरी पार्टियों की भी लगभग यही स्थिति है। जिस लोकतंत्र की दुहाई देकर राजनीतिक दल जनता से वोट लेते हैं उन्हीं राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नाममात्र को भी नहीं बचा।
लेखिका लक्ष्मीकांता चावला पंजाब सरकार में पूर्व मंत्री हैं
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